Monday, August 11, 2014

VEDAS,SCIENCE.#VEDA ,#VEDICSCIENCE

While talking of Vedas,Sanatan Dharma,Hinduism is considered a communalism in INDIA, Originator of VEDAS, Western pledge it for a science and consider a journey where science is moving to. Whether Indians forget Vedas, IT IS A LIGHT,WILL CONTINUE AS THOUSAND OF sun ,WILL ENHANCE WHOSOEVER UNDERSTANDS IT.In 1925, the world view of physics was a model of a great machine composed of separable interacting material particles. During the next few years, Schrodinger and Heisenberg and their followers created a universe based on super imposed inseparable waves of probability amplitudes. This new view would be entirely consistent with the Vedantic concept of All in One.
 (ref: Walter J. Moore in Schrödinger: Life and Thought (1989) ISBN 0521437679)

Monday, July 14, 2014

गायत्री मन्त्र का वैज्ञानिक आधार


गायत्री मन्त्र का अर्थ है उस परम सत्ता की महानता की स्तुति जिसने 

इस ब्रह्माण्ड को रचा है । यह मन्त्र उस ईश्वरीय सत्ता की स्तुति है जो 

इस संसार में ज्ञान और और जीवन का स्त्रोत है, जो अँधेरे से प्रकाश का 

पथ दिखाती है । गायत्री मंत्र लोकप्रिय यूनिवर्सल मंत्र के रूप में जाना 

जाता है. के रूप में मंत्र किसी भी धर्म या एक देश के लिए नहीं है, यह 

पूरे ब्रह्मांड के अंतर्गत आता है। यह अज्ञान को हटा कर ज्ञान प्राप्ति की 

स्तुति है ।

मन्त्र विज्ञान के ज्ञाता अच्छी तरह से जानते हैं कि शब्द, 

मुख के विभिन्न अंगों जैसे जिह्वा, गला, दांत, होठ और जिह्वा के 

मूलाधार की सहायता से उच्चारित होते हैं । 

शब्द उच्चारण के समय 

मुख की सूक्ष्म ग्रंथियों और तंत्रिकाओं में खिंचाव उत्पन्न होता है जो 

शरीर के विभिन्न अंगों से जुडी हुई हैं । योगी इस बात को भली प्रकार 

से जानते हैं कि मानव शरीर में संकड़ों दृश्य -अदृश्य ग्रंथियां होती है 

जिनमे अलग अलग प्रकार की अपरिमित उर्जा छिपी है । 

अतः मुख से 

उच्चारित हर अच्छे और बुरा शब्द का प्रभाव अपने ही शरीर पर पड़ता है 

। पवित्र वैदिक मंत्रो को मनुष्य के आत्मोत्थान के लिए इन्ही नाड़ियों 

पर पड़ने वाले प्रभाव के अनुसार रचा गया है । आर्य समाज का प्रचलित 

गायत्री मन्त्र है 

” ॐ भूर्भुव: स्व:, तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य 

धीमहि, धियो यो न: प्रचोदयात्”.

शरीर में षट्चक्र हैं जो सात उर्जा बिंदु हैं – मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान 

चक्र, मणिपूर चक्र, अनाहद चक्र, विशुद्ध चक्र, आज्ञा चक्र एवं सहस्त्रार 

चक्र ये सभी सुषुम्ना नाड़ी से जुड़े हुए है । गायत्री मन्त्र में २४ अक्षर हैं 

जो शरीर की २४ अलग अलग ग्रंथियों को प्रभावित करते हैं और व्यक्ति 

का दिव्य प्रकाश से एकाकार होता है । गायत्री मन्त्र के उच्चारण से 

मानव शरीर के २४ बिन्दुओं पर एक सितार का सा कम्पन होता है 


जिनसे उत्पन्न ध्वनी तरंगे ब्रह्माण्ड में जाकर पुनः हमारे शरीर में 

लौटती है जिसका सुप्रभाव और अनुभूति दिव्य व अलौकिक है।

 ॐ की 

शब्द ध्वनी को ब्रह्म माना गया है । ॐ के उच्च्यारण की ध्वनी तरंगे 

संसार को, एवं ३ अन्य तरंगे सत, रज और तमोगुण क्रमशः ह्रीं श्रीं और 

क्लीं पर अपना प्रभाव डालती है इसके बाद इन तरंगों की कई गूढ़ 

शाखाये और उपशाखाएँ है जिन्हें बीज-मन्त्र कहते है ।
गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों का संयोजन और रचना सकारात्मक उर्जा 

और परम प्रभु को मानव शरीर से जोड़ने और आत्मा की शुद्धि और बल 

के लिए रचा गया है । गायत्री मन्त्र से निकली तरंगे ब्रह्माण्ड में जाकर 

बहुत से दिव्य और शक्तिशाली अणुओं और तत्वों को आकर्षित करके 

जोड़ देती हैं और फिर पुनः अपने उदगम पे लौट आती है जिससे मानव 

शरीर दिव्यता और परलौकिक सुख से भर जाता है । मन्त्र इस प्रकार 

ब्रह्माण्ड और मानव के मन को शुद्ध करते हैं। दिव्य गायत्री मन्त्र की 

वैदिक स्वर रचना के प्रभाव से जीवन में स्थायी सुख मिलता है और 

संसार में असुरी शक्तियों का विनाश होने लगता है । गायत्री मन्त्र जाप 

से ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति होती है । गायत्री मन्त्र से जब आध्यात्मिक और 

आतंरिक शक्तियों का संवर्धन होता है तो जीवन की समस्याए सुलझने 

लगती है वह सरल होने लगता है । हमारे शरीर में सात चक्र और 

72000 नाड़ियाँ है, हर एक नाडी मुख से जुडी हुई है और मुख से निकला 

हुआ हर शब्द इन नाड़ियों पर प्रभाव डालता है । अतः आइये हम सब 

मिलकर वैदिक मंत्रो का उच्चारण करें .. उन्हें समझें और वेद विज्ञान 

को जाने । भारत वर्ष का नव-उत्कर्ष सुनिश्चित करें । 


गायत्री मंत्र ऋग्वेद के छंद 

‘तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्’ 

3.62.10 और यजुर्वेद के मंत्र ॐ भूर्भुवः स्वः से मिलकर बना है। —



BINIARY SYSTEM- STARTED BY MAHARSHI PINGAL

महर्षि पिंगल का जन्म लगभग 400 ईसा पूर्व का माना जाता है । कई इतिहासकार इन्हें महर्षि पाणिनि का 

छोटा भाई मानते है | महर्षि पिंगल उस समय के महान लेखकों में एक थे । इन्होने छन्दःशास्त्र (छन्दःसुत्र) 

की रचना की ।
छन्दःशास्त्र आठ अलग अलग अध्यायों में विभक्त है |

आठवे अध्याय में पिंगल ने छंदों को संक्षेप करने तथा उनके वर्गीकरण के बारे में लिखा ।

तथा द्विआधारीय रचनाओं को गणितीय रूप में लिखने के बारे में बताया ।
तथा इनके छंदों की लम्बाई नापने के लिए वर्णों की लम्बाई या उसे उच्चारित (बोलने) में लगने वाले समय 

के आधार पर उसे दो भागों में बांटा :- गुरु (बड़े के लिए) तथा लधु (छोटे के लिए) |
इसके लिए सर्व प्रथम एक पद (वाक्य) को वर्णों में विभाजित करना होता है विभाजित करने हेतु निम्न

नियम दिए गये है :
1. एक वर्ण में स्वर (vowel) अवश्य होना चाहिए तथा इसमें अवश्य केवल एक ही स्वर होना चाहिए|

2. एक वर्ण सदैव व्यंजन से प्रारंभ होना चाहिए परन्तु वर्ण स्वर से प्रारंभ हो सकता है केवल यदि वर्ण 

लाइन के प्रारंभ में हो |
3.किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए ।
4.जो वर्ण छोटे स्वर से अंत होता है (अ इ उ आदि ) उसे लघु तथा बाकि सारे गुरु कहे जाते है अर्थात जिस 

किसी वर्ण के पीछे कोई मात्रा न हो वो लघु (Light) तथा मात्रा वाले गुरु(Heavy) कहे जाते है जैसे : मे, री 

आदि
उदहारण के लिए :
त्वमेव माता च पिता त्वमेव

इस श्लोक को उपरोक्त वर्णन के आधार पर विभाजित किया गया है
त्व मे व मा ता च पि ता त्व मे व
L H L H H L L H L H L
त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव
त्व मे व बन् धुश् च स खा त्व मे व

L H L H H L L H L H L
बन्धु को विभक्त करते समय आधे न (न्) को ब के साथ रखा गया है (बन्) क्योंकि तीसरा नियम कहता है

“किसी वर्ण को हो सके उतना अधिक दीर्घ बनाना चाहिए” तथा बन् को साथ रखने पर दूसरा नियम भी 

सत्य होता है चूँकि बन् लाइन के आरंभ में नही है इसलिए व्यंजन से प्रारंभ होना अनिवार्य है |
और प्रथम नियम भी बन् में सत्य हो रहा है क्योकि ब में अ(स्वर) है |

धुश् में भी प्रथम तथा तृतीय नियम सत्य होते है |

आधे वर्ण में अंत होने वाले वर्ण जैसे : बन् धुश् गुरु की श्रेणी में आएंगे |
लघु और गुरु को क्रमश: “|” और “S” (ये अंग्रेजी वर्णमाला का S नही है) से भी प्रदर्शित किया जाता है |
इस प्रकार उपरोक्त चार नियमो द्वारा किसी भी श्लोक आदि को द्विआधारीय रचना में लिखा जा सकता है |

ये तो हुई बात लघु और गुरु की |
अब बात आती है इन्हें उचित स्थान देने की ।
यदि हमारे पास 4 वर्ण है |तो इसके द्वारा हम 16 प्रकार के संयोजन (combinations) बना सकते है

जिसमे प्रत्येक का स्थान महत्व रखता है |
आगे पिंगल ने उसी के सन्दर्भ में एक मैट्रिक्स दी जिसका नाम था : प्रस्तार |

प्रस्तार मैट्रिक्स को बनाने के लिए पिंगल ने मात्र एक ही सूत्र दिया :
एकोत्तरक्रमश: पूर्वप्र्क्ता लासंख्या – छन्दःशास्त्र 8.23
इस एक ही सूत्र से मैट्रिक्स की रचना को जानना अत्यंत कठिन था | कदाचित पिंगल के अतिरित 8 वी

सदी तक इसके सन्दर्भ को कोई समझ नही पाया |
परन्तु 8 वी सदी में केदारभट्ट ने पिंगल के छन्दःशास्त्र पर कार्य किया और इस पहेली को सुलाझा लिया

इनके ग्रन्थ का नाम वृतरत्नाकर है इसके पश्चात त्रिविक्रम द्वारा १२वीं शती में रचित तात्पर्यटीका तथा 

हलायुध द्वारा १३वीं शती में रचित मृतसंजीवनी में उपरोक्त सूत्र को और भी बारीकी से प्रस्तुत किया गया। ये 

सभी छन्द:शास्त्र के ही भाष्य है |
वृतरत्नाकर में केदार द्वारा वर्णित थ्योरी का अध्यन कर IIT कानपूर के प्रध्यापक हरिश्चन्द्र वर्मा जी ने एक

फ्लो चार्ट तैयार किया जो इस प्रकार है :
प्रथम चरण: हमें सारे B (big/गुरु) लिखने है जितने हमारे वर्ण है | यदि वर्ण तिन है तो संयोजन 3*3=9

बनेंगे यदि 4 है तो 16 बनेंगे|
हम 4 वर्ण लेकर चलते है संयोजन बनेंगे 16.
4 वर्ण के लिए 4 बार B लिखना है :
BBBB

द्वितीय चरण:
हमें left to right चलना है लेफ्ट में प्रथम B है तो दुसरे चरण में उसके निचे लिखे S और बाकि सारे वर्ण 

ज्यों के त्यों लिख दें|
SBBB
तृतीय चरण :
अब उपरोक्त प्रथम है S तो अगली पंक्ति में उसके निचे B लिखें जब तक B न मिल जाये | और B मिलते ही 

S लिखें और बचे हुए वर्ण ज्यों के त्यों लिख दें|
BSBB
इस प्रकार उपरोक्त फ्लो चार्ट के अनुसार चलने पर हमें 16 संयोजनों की टेबल प्राप्त होगी |
SSBB
BBSB

SBSB
BSSB
SSSB
BBBS
SBBS
BSBS
SSBS
BBSS
SBSS
BSSS
SSSS
अंत में सारे S प्राप्त होने पर रुक जाएँ|
उपरोक्त टेबल में B गुरु के लिए, S लघु के लिए है|
कंप्यूटर जगत 0 1 पर कार्य नही करता अपितु सर्किट के किसी कॉम्पोनेन्ट/भाग में विधुत धारा है अथवा

नही पर कार्य करता है | आधुनिक विज्ञान में धारा होने को 1 द्वारा तथा नही होने को 0 द्वारा प्रदर्शित किया 

जाता है | 0 1 केवल हमारे समझने के लिए है कंप्यूटर के लिए नही| इसलिए 0 1 के स्थान पर यदि low 

high, empty full , small big, no yes अथवा लघु और गुरु कहा जाये तो कोई फर्क पड़ने वाला नही|
कंप्यूटर जगत के जानकर उपरोक्त वर्णन को अच्छे से समझ गये होंगे|

इसके अतिरिक्त पिंगल ने द्विआधारीय संख्याओं को दशमलव (binary to decimal), दशमलव से 

द्विआधारीय (decimal to binary) में परिवर्तित करने, मेरु प्रस्तार (पास्कल त्रिभुज), और द्विपद प्रमेय 

(binomial theorem) हेतु कई सूत्र दिए जिसे केदार, हलयुध आदि ने अपने ग्रंथों में पुनः विस्तृत रूप से 

लिखा|
बिलकुल यही खोज हमारे western भाई साहब Gottfried Wilhelm Leibniz ने पिंगल से लगभग 1900 

वर्ष पश्चात की |
http://www.bsgp.org/Know_India_Culture/Great_people/The_Sage/Pingla_Rishi

http://www.allempires.com/forum/forum_posts.asp?TID=17915
http://en.wikipedia.org/wiki/Binary_number#History
http://www.math.canterbury.ac.nz/~r.sainudiin/lmse/pingalas-fountain/


अधिक जानकरी के लिए निम्न विडियो 34.40 मिनट तक काट कर आगे से देखें :
https://www.youtube.com/watch?v=pscROPdITjA
Posted in INDIAN INVENTIONS

ARYABHATT IS REAL INVENTOR OF PLANATARY MOTION#ARYABHATT

जर्मन खगोलविद Johannes Kepler ने ग्रहों की गति का नियम दिया। 1609 AD में।
लेकिन भारतीय विद्वान आर्यभट्ट ने इसका वर्णन किया है। केपलर से बहुत बहुत पहले, 5 वीं ईसवी सदी में।
आर्यभटीयम के अध्याय 3 का 17 वां श्लोक देखिए….इसका मतलब निकलता है कि…
सारे ग्रहों-उपग्रहों में गति होती है। धुरी पर घूमने के साथ यह अपनी दीर्घवृत्ताकार कक्षा में भी चक्कर लगाते हैं। दोनों गतियों की दिशा नियत रहती है।


आज चर्चा धरती की लट्टुई गति पर…। यह अपनी धुरी पर चक्कर लगाती है…। पश्चिम से पूर्व की ओर 23.5 अंश झुककर…। 23 घंटे 56 मिनट और 4 .091 सेकंड में…। माना जाता है कि फ्रांसीसी भौतिक विद Jean Bernard Leon Foucault ने ‘Foucault पेंडुलम’ बनाया। 1851 में। इससे धरती की दैनिक गति का पता चला…।
अब जिक्र आर्यभट्ट का करुंगा। 5 वीं सदी में इन्होंने आर्यभटीय लिखा। पुस्तक के अध्याय 4 का 9 वां श्लोक देखिए….।
अनुलोमगतिनौस्थः पश्यत्यचलं विलोमगं यद्वत्।
अचलानि भानि तद्वत् समपश्चिमगानि लड्.कायाम्।।
यानि जैसे ही एक व्यक्ति समुद्र में नाव से आगे बढ़ता है, उसे किनारे की स्थिर चीजें विपरीत दिशा में चलती दिखती हैं। इसी तरह स्थिर तारे लंका (भूमध्य रेखा) से पश्चिम की जाते दिखते हैं…।

J C BASU IS REAL RADIO WAVE INVENTOR NOT MARCOUNI

मारकोनी के आविष्कार के कई वर्ष पूर्व 1855 में आचार्य जगदीशचन्द्र बसु बंगाल के अंग्रेज गवर्नर के सामने अपने आविष्कार का प्रदर्शन कर चुके थे।उन्होंने विद्युत तरंगों से दूसरे कमरे मे घंटी बजाई और बोझ उठवाया और विस्फोट करवाया। आचार्य बसु ने अपने उपकरणों से 5 मिलीली.की तरंग पैदा की जो अब तक मानी गई तरंगों में सबसे छोटी थी। इस प्रकार बेतार के तारों के प्रथम आविश्कारक आचार्य बसु ही थे। बसु ने अपने उपरोक्त आविश्कारों का इंग्लैंड में भी प्रदर्शन किया।इन प्रदर्शनों से अनेक तत्कालीन वैज्ञानिक आष्चर्यचकित हो गये। उपरोक्त प्रयोगों को आधार बनाकर जब नये प्रयोग उन्होंने प्रारम्भ किये तो वे इस निश्कषर् पर पहुंचे कि सभी पदार्थों में जीवन प्रवाहित हो रहा है। अपने प्रयोग…ों द्वारा उन्होंने यह सिध्द कर दिया कि पेड़ पौधों में भी जीवन का स्पंदन है।.
और वनस्पतियों पर शोध करते समय उन्होंने एक ऐसे यंत्र का निर्माण किया जिससे सूक्ष्म तरंगों के प्रवाह से पानी गरम हो गया यह प्रयोग आगे बढाने के लिए धन के आभाव ने इस प्रयोग को वहीं रोक दिया परन्तु कृपया एक बार पुन्ह ध्यान दें कि पानी कैसे गर्म हुआ और फिर सोचें माइक्रोवेव क्या करता है.
लेकिन आचार्य बसु का ध्यान पेटेंट करवाने में समय व्यर्थ ना करने के स्थान पर विज्ञानं की अधिक से अधिक सेवा में था इसका फायदा उठाकर इन पश्च्यात जगत के तकनीकज्ञों ने कलपुर्जे जोड़कर रेडियो और माइक्रोवेव का नाम देकर पेटेंट करवा दिया और खुद को वैज्ञानिक के रूप में विश्व के सामने प्रेषित किया.

India- favourite destination for enlightened masters? #secretsofindia #hinduism

Why is India the favourite destination for enlightened masters? Is there some secret in the land?

Why is India the favourite destination for enlightened masters? Is there some secret in the land?
The word California comes from a Rishi called Kapila Rishi. He was the previous incarnation of Lord Krishna. He was born in California, and lived there for a long time. The place was called Kapilaranya. It is said in the scriptures that Kapilaranya is a 12 hours difference from India.
Nova Scotia (in Canada) is also a Sanskrit name. Navas kosha, means it is at 9 hours difference from India. One koshais a one hour distance. Navas Kosha means 9 hours difference, and it is exactly 9 hours.
Ram means light. The root of words like rays and radiance comes from ram. Ra means radiance. Ma means me, mine, myself. Ram means the light within me, the light in my heart. Ram, of course, is the name of Lord Rama, who lived on this planet, in 7560 BC… long ago. About 9,000 years ago.
Lord Rama is connected with all the Asian continents. The entire belt of Indonesia, Malaysia and Cambodia are all connected with Ramayan.
It is a very ancient epic, whose impact is very strong, even today, thousands of years later. Lord Rama is known for his truthfulness, he is considered to be perfect in all human behavior. An ideal human emperor. Mahatma Gandhi once said, ‘You take away everything from me, I can live. But if you take away Ram, I cannot exist.’
The last words that he uttered were, ‘Hey Ram’. Ram is found in almost everywhere in India. Every state will have a Rampur, a Ramnagar! Everywhere! You will confuse the postal department if you only address a letter to Ramnagar. There are thousands of of Ramnagars.
Studies have found thousands of names related to Ram in Europe!
Some Airports Name Starts From Name – RAM
CITY NAME
COUNTRY
AIRPORT NAME
Ramadan
Egypt
Ramadan
Ramadi
Iraq
Ramadi
Ramagundam
India
Ramagundam
Ramallah
Palestine
Ramallah Heliport
Ramata
Solomon Islands
Ramata
Ramechhap
Nepal
Ramechhap
Ramingining
Australia
Ramingining
Rampart
United States
Rampart
Ramsar
Iran
Ramsar
Ramstein
Germany
Ramstein
In Sanskrit, Australia is called Astralaya. Do you know the meaning of Australia? Astaralaya means storehouse of weapons. Astra means weapons. During the time of Ramayana, they had stored many different types of weapons here. Weapons were made here too. Due to the weapons, there was a lot of desert in the centre and it was uninhabited. Is it so even now? Yes.
From http://matrabhumi.wordpress.com

SPEED OF LIGHT PER HINDU/VEDAS.#SANATANDHARM, #HINDUISM, #SPEEDOFLIGHT

Speed of Light is calculated in Vedas more accurately than Einstein did

Ancient Vedic science “Nimisharda” is a phrase used in Indian languages of Sanskrit origin while referring to something that happens/moves instantly, similar to the ‘blink of an eye’. Nimisharda means half of a Nimesa, (Ardha is half). In Sanskrit ‘Nimisha’ means ‘blink of an eye’ and Nimisharda implies within the blink of an eye. This phrase is commonly used to refer to instantaneous events.
Below is the mathematical calculations of a research done by S S De and P V Vartak on the speed of light calculated using the Rigvedic hymns and commentaries on them.
The fourth verse of the Rigvedic hymn 1:50 (50th hymn in book 1 of rigveda) is as follows:
तरणिर्विश्वदर्शतो जयोतिष्क्र्दसि सूर्य | विश्वमा भासिरोचनम |
taraNir vishvadarshato jyotishkrdasi surya | vishvamaa bhaasirochanam ||
which means:
“Swift and all beautiful art thou, O Surya (Surya=Sun), maker of the light, Illumining all the radiant realm.”
Commenting on this verse in his Rigvedic commentary, Sayana who was a minister in the court of Bukka of the great Vijayanagar Empire of Karnataka in South India (in early 14th century) says:
” tatha ca smaryate yojananam. sahasre dve dve sate dve ca yojane ekena nimishardhena kramaman.” which means “It is remembered here that Sun (light) traverses 2,202 yojanas in half a nimisha”
NOTE: Nimisharda= half of a nimisha.
In the vedas Yojana is a unit of distance and Nimisha is a unit of time.
Unit of Time: Nimesa.
The Moksha dharma parva of Shanti Parva in Mahabharata describes Nimisha as follows: 15 Nimisha = 1 Kastha.
30 Kashta = 1 Kala,
30.3 Kala = 1 Muhurta,
30 Muhurtas = 1 Diva-Ratri (Day-Night),
We know Day-Night is 24 hours So we get 24 hours = 30 x 30.3 x 30 x 15 nimisha, in other words 409050 nimisha.
We know 1 hour = 60 x 60 = 3600 seconds.
So 24 hours = 24 x 3600 seconds = 409050 nimisha.
409050 nimesa = 86,400 seconds,
1 nimesa = 0.2112 seconds (This is a recursive decimal! Wink of an eye=.2112 seconds!).
1/2 nimesa = 0.1056 seconds.
Unit of Distance:
Yojana Yojana is defined in Chapter 6 of Book 1 of the ancient vedic text “Vishnu Purana” as follows:-
10 ParamAnus = 1 Parasúkshma,
10 Parasúkshmas = 1 Trasarenu,
10 Trasarenus = 1 Mahírajas (particle of dust),
10 Mahírajas= 1 Bálágra (hair’s point),
10 Bálágra = 1 Likhsha,
10 Likhsha= 1 Yuka,
10 Yukas = 1 Yavodara (heart of barley),
10 Yavodaras = 1 Yava (barley grain of middle size),
10 Yava = 1 Angula (1.89 cm or approx 3/4 inch),
6 fingers = 1 Pada (the breadth of it),
2 Padas = 1 Vitasti (span),
2 Vitasti = 1 Hasta (cubit),
4 Hastas = a Dhanu,
1 Danda, or paurusa (a man’s height),
or 2 Nárikás = 6 feet,
2000 Dhanus = 1 Gavyuti (distance to which a cow’s call or lowing can be heard) = 12000 feet 4 Gavyutis = 1 Yojana = 9.09 miles
Calculation: So now we can calculate what is the value of the speed of light in modern units based on the value given as 2202 Yojanas in 1/2 Nimesa = 2202 x 9.09 miles per 0.1056 seconds = 20016.18 miles per 0.1056 seconds = 189547 miles per second !!
As per the modern science speed of light is 186000 miles per second ! And so I without the slightest doubt attribute the slight difference between the two values to our error in accurately translating from Vedic units to SI/CGS units. Note that we have approximated 1 Angula as exactly 3/4 inch. While the approximation is true, the Angula is not exactly 3/4 inch.

Monday, July 7, 2014

SCIENTIFIC VERIFICATION OF VEDIC SYSTEM AND ITS PROOF

Aryan invasion theory, proven false. Sanatan Vedic Dharm (Hinduism) proven SCIENTIFICALLY. A vast number of statements and materials presented in the ancient Vedic literatures can be shown to agree with modern scientific findings and they also reveal a highly developed scientific content in these literatures. The great cultural wealth of this knowledge is highly relevant in the modern world. Techniques used to show this agreement include:•Marine Archaeology of underwater sites (such as Dvaraka) •Satellite imagery of the Indus-Sarasvati River system •Carbon and Thermoluminiscence Dating of archaeological artifacts •Scientific Verification of Scriptural statements •Linguistic analysis of scripts found on archaeological artifacts •A Study of cultural continuity in all these categories. Source: http://devavision.org/videos.html

Friday, July 4, 2014

महाभारत सीरीज #MAHABHARAT #HINDUISM, #SANATANDHARM

महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय
महाभारत युद्ध
कौरव व पांडवों की सेना युद्ध की इच्छा से कुरुक्षेत्र में एकत्रित हो गई। दोनों पक्ष के सेना प्रमुखों ने युद्ध के कुछ नियम निर्धारित किए। जब दोनों पक्ष के वीर आमने-सामने आए तो कौरवों के पक्ष में भीष्म, द्रोणाचार्य आदि को देखकर अर्जुन का मन व्यथित हो गया। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता का उपदेश दिया। युद्ध शुरू होने से पहले युधिष्ठिर ने भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य व महाराज शल्य से युद्ध करने की आज्ञा ली। युद्ध की घोषणा होते ही कौरव व पांडवों की सेना में भयंकर मार-काट शुरू हो गई। दो दिनों तक इसी प्रकार युद्ध होता रहा।
 9 दिनों तक पांडव व कौरवों में भयंकर युद्ध होता रहा। इन 9 दिनों में भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना के कई वीर योद्धाओं का वध कर दिया। यह देखकर पांडवों की सेना भयभीत हो गई। तब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडव भीष्म पितामह के पास गए और उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म पितामह बताया कि तुम्हारी सेना में शिखंडी नाम का योद्धा है, वह पहले स्त्री था। इसलिए मैं उसके सामने शस्त्र नहीं उठाऊंगा। इस प्रकार भीष्म ने बड़ी ही सहजता ने पांडवों को अपनी मृत्यु का उपाय बता दिया।  
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाययुद्ध के तीसरे दिन भीष्म ने गरुड़ व्यूह की रचना की। इस व्यूह को तोडऩे के लिए अर्जुन ने अर्धचंद्राकार व्यूह बनाया। शंख बजते ही कौरवों व पांडवों की सेना में भयंकर युद्ध शुरू हो गया। भीष्म पितामह ने अपना पराक्रम दिखाते हुए पांडवों की सेना में खलबली मचा दी। पांडव पक्ष के अनेक वीर भीष्म के इस रौद्र रूप को देखकर भागने लगे। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन भीष्म पितामह से युद्ध करने आए, लेकिन मोहवश अर्जुन युद्ध में ढिलाई करते रहे। यह देखकर श्रीकृष्ण को क्रोध आ गया और वे स्वयं रथ से उतरकर सुदर्शन चक्र धारण कर भीष्म को मारने दौड़े।  
यह देख अर्जुन भी रथ से उतर कर उन्हें रोकने के लिए दौड़े। जैसे-तैसे अर्जुन ने क्रोधित श्रीकृष्ण को रोका और उन्हें शांत किया। अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि अब वे युद्ध में ढिलाई नहीं बरतेंगे। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन रथ पर सवार होकर पुन: युद्ध करने लगे। जब अर्जुन क्रोधित होकर बाण वर्षा करने लगे तो कौरवों की सेना के बड़े-बड़े वीर भी भयभीत हो गए। इस प्रकार युद्ध का तीसरा दिन भी समाप्त हो गया।
- चौथे दिन भी भीष्म और अर्जुन में भयंकर युद्ध हुआ। इधर भीमसेन क्रोधित होकर कौरवों का सेना का नाश करने लगे। देखते ही देखते भीमसेन ने दुर्योधन के 14 भाइयों का वध कर दिया। यह देखकर भीष्म आदि वीर भीम पर टूट पड़े, लेकिन घटोत्कच ने भीम को बचा लिया। 

इस प्रकार चौथे दिन का युद्ध समाप्त हो गया। इसी प्रकार पांचवे व छठे दिन भी दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध के सातवे दिन कौरव सेना ने महाव्यूह की रचना की तथा पांडव सेना ने शृंगाटक नाम के व्यूह की रचना की। इस दिन भीम ने दुर्योधन के आठ भाइयों का वध कर दिया। 
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय युद्ध के आठवे व नौवे दिन भी भीष्म पितामह ने पांडवों की सेना का संहार किया। उनके सामने कोई भी योद्धा नहीं टिक पाता था। नौवे दिन युद्ध समाप्त होने के बाद पांडव भीष्म पितामह से मिलने पहुंचे और उनसे उनकी मृत्यु का उपाय पूछा। भीष्म पितामह ने बताया कि तुम्हारी सेना में शिखंडी नामक जो योद्धा है, वह पहले स्त्री था। 

युद्ध करते समय यदि वह मेरे सामने आ जाए तो मैं अपने शस्त्र रख दूंगा, उस समय तुम मुझ पर वार कर सकते हो। अत्यधिक घायल होने के कारण मैं युद्ध करने में असमर्थ हो जाऊंगा। उस स्थिति में तुम ये युद्ध जीत सकते हो। इस प्रकार भीष्म पितामह से उनकी मृत्यु का उपाय जानकर पांडव पुन: अपने शिविर में आ गए।
- युद्ध के दसवें दिन भीष्म पितामह पुन: पांडवों की सेना का संहार करने लगे। यह देख अर्जुन आदि वीर शिखंडी को आगे कर भीष्म के सामने आ डटे। शिखंडी ने भीष्म को घायल कर दिया, लेकिन भीष्म ने उस पर प्रहार नहीं किया। भीष्म की रक्षा के लिए अनेक कौरव वीर आगे आए, लेकिन वे अर्जुन के आगे नहीं टिक सके। 

अर्जुन ने पराक्रम दिखाते हुए भीष्म के शरीर को बाणों से छलनी कर दिया। इस प्रकार अत्यधिक घायल होने के कारण भीष्म रथ से गिर पड़े। उनके शरीर के हर अंग पर बाण लगे हुए थे। इसलिए उनका शरीर उन बाणों पर ही टिक गया। भीष्म ने देखा कि इस समय सूर्य दक्षिणायन में है, इसलिए यह मृत्यु के लिए उचित समय नहीं है। यह सोचकर उन्होंने अपने प्राणों का त्याग नहीं किया। 
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय- दसवें दिन का युद्ध समाप्त होने पर पांडव व कौरव पक्ष के वीर भीष्म पितामह के पास एकत्रित हुए। भीष्म पितामह का शरीर बाणों की शय्या पर टिका हुआ था और उनका सिर नीचे लटक रहा था। भीष्म के कहने पर अर्जुन ने अपने बाणों से उनके सिर को सहारा दिया। भीष्म पितामह के उपचार के लिए दुर्योधन अनेक वैद्य ले आया, लेकिन भीष्म ने उपचार करवाने से इनकार कर दिया। भीष्म पितामह के कहने पर दोनों पक्षों के वीर अपने-अपने शिविरों में चले गए। 

​युद्ध के ग्यारहवे दिन सुबह पुन: कौरव व पांडव भीष्म पितामह को देखने पहुंचे। भीष्म के कहने पर अर्जुन ने अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए धरती पर बाण मारकर एक जल की धारा प्रकट की, जिसे पीने से भीष्म पितामह को तृप्ति का अनुभव हुआ। जब कर्ण को पता चला कि भीष्म बाणों की शय्या पर हैं तो वह उनसे मिलने पहुंचा। कर्ण ने भीष्म से पांडवों के विरुद्ध युद्ध करने की आज्ञा मांगी। भीष्म ने उसे युद्ध करने की आज्ञा दे दी।
- भीष्म पितामह के घायल होने पर कौरवों की सेना बिल्कुल उत्साहहीन हो गई, लेकिन कर्ण के आते ही कौरवों में पुन: उत्साह का संचार हो गया और वे युद्ध के लिए तैयार हो गए। कर्ण के आते ही दुर्योधन भी प्रसन्न हो गया। कर्ण के कहने पर दुर्योधन ने गुरु द्रोणाचार्य को अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया। तब द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा कि मैं अपनी पूरी शक्ति से पांडवों के साथ युद्ध करूंगा, लेकिन राजा द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न का वध मैं नहीं कर सकूंगा क्योंकि उसकी उत्पत्ति मेरे ही वध के लिए हुई है।

सेनापति बनने के बाद द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से पूछा कि मैं तुम्हारा कौन सा प्रिय काम करूं। तब दुर्योधन ने कहा कि आप युधिष्ठिर को बंदी बनाकर मेरे पास ले आइए। तब द्रोणाचार्य ने प्रतिज्ञा की कि यदि अर्जुन ने युधिष्ठिर की रक्षा न की तो मैं आसानी से युधिष्ठिर को बंदी बना लूंगा। जब पांडवों को द्रोणाचार्य की इस प्रतिज्ञा के बारे में पता चला तो उन्होंने मिलकर युधिष्ठिर की रक्षा करने का फैसला लिया। 
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय- गुरु द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर को बंदी बनाने का कई बार प्रयास किया, लेकिन अर्जुन के कारण वे सफल नहीं हो पाए। तब द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की और दुर्योधन से कहा कि तुम किसी बहाने से अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले जाओ ताकि मैं युधिष्ठिर को बंदी बना सकूं। दुर्योधन के कहने पर संशप्तक योद्धा अर्जुन को युद्ध के लिए दूर ले गए। 

जब युधिष्ठिर ने देखा कि चक्रव्यूह के कारण उनके सैनिक मारे जा रहे हैं तो उन्होंने अभिमन्यु से इस व्यूह को तोडऩे के लिए कहा। अभिमन्यु ने कहा कि मुझे इस व्यूह को तोडऩा तो आता है, लेकिन इससे बाहर निकलने का उपाय मुझे नहीं पता। तब युधिष्ठिर व भीम ने अभिमन्यु को विश्वास दिलाया कि तुम जिस स्थान से व्यूह भंग करोगे, हम भी उसी स्थान से व्यूह में प्रवेश कर जाएंगे और व्यूह का विध्वंस कर देंगे।
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय- युधिष्ठिर व भीम की बात मानकर अभिमन्यु चक्रव्यूह भेदकर उस में प्रवेश कर गया, लेकिन युधिष्ठिर, भीम आदि वीरों को जयद्रथ ने बाहर ही रोक दिया।  चक्रव्यूह में घुसकर अभिमन्यु ने कौरवों की सेना का संहार करना शुरू किया। अभिमन्यु ने अकेले ही अनेक कौरव वीरों का वध कर दिया और दु:शासन व कर्ण को पराजित कर दिया। 

अभिमन्यु के पराक्रम को देखकर कर्ण आचार्य द्रोण के पास गया और उसे मारने का उपाय पूछा। तब द्रोणाचार्य ने कहा कि यदि अभिमन्यु का धनुष व प्रत्यंचा काटी जा सके व उसके घोड़े व सारथि को मार दिया जाए तो इसका वध संभव है। कर्ण ने ऐसा ही किया। रथ से उतरते ही अभिमन्यु को कर्ण, अश्वत्थामा, दु:शासन, द्रोणाचार्य, दुर्योधन व शकुनि ने मार डाला। अभिमन्यु की मृत्यु से पांडवों को बहुत दु:ख हुआ। 
महाभारत 15: भीष्म ने पांडवों को खुद बताया था अपनी मौत का उपाय- उस दिन का युद्ध समाप्त होने तक अर्जुन संशप्तकों को पराजित कर चुके थे और जब वे अपने शिविर में लौट रहे थे, तभी उन्हें किसी अनहोनी की आशंका होने लगी। शिविर में पहुंचने पर उन्हें अभिमन्यु के पराक्रम व मृत्यु की सूचना मिली। अपने प्रिय पुत्र अभिमन्यु की मृत्यु के बारे में जानकर अर्जुन को बहुत दु:ख हुआ। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि अभिमन्यु वीरों की तरह लड़ता हुआ मृत्यु को प्राप्त हुआ है। इसलिए उसकी मृत्यु पर शोक नहीं करना चाहिए। 
अर्जुन ने युधिष्ठिर से अभिमन्यु की मृत्यु का प्रसंग विस्तार पूर्वक जाना। जब अर्जुन को पता चला कि जयद्रथ के कारण ही पांडव वीर चक्रव्यूह में प्रवेश नहीं कर पाए तो अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि कल मैं निश्चय ही जयद्रथ का वध कर डालूंगा अथवा स्वयं जलती चिता में प्रवेश कर जाऊंगा। 


टोरंटो कनाडा का स्वामीनारायण मंदिर-भारतीय कला का शानदार नमूना#TEMPLES OF INDIA

भारतीय कला का शानदार नमूना है कनाडा का ये मंदिर, छूना है मनाभारत ही नहीं पूरी दुनिया के अलग-अलग देशों में ऐसे हिंदू देवस्थान हैं, जो सनातन संस्कृति से पूरी दुनिया के लोगों को जोड़ते हैं। यह मंदिर मात्र धर्म और आस्था के ही स्थान नहीं है, बल्कि अपनी अद्भुत और अनूठी वास्तुकला के लिए भी पूरी दुनिया में जाने जाते हैं।

इन मंदिरों में से एक है कनाडा देश के टोरंटो शहर में स्थित स्वामीनारायण संप्रदाय का स्वामीनारायण मंदिर। यह मंदिर कनाडा में फिंच एवेन्यू के पास हाईवे नंबर 427 पर स्थित है। इस मंदिर की मुख्य विशेषता है कि इसके निर्माण में इस्पात या लोहे का उपयोग नहीं किया गया है।

इस मंदिर का अधिकांश भाग अलग-अलग प्रकार के पत्थरों से बना है। जिन पर भारत में ही हस्तशिल्प कार्य  किया गया है। यह मंदिर मात्र 18 माह की छोटी सी अवधि में बनकर तैयार हुआ। मंदिर की सुंदर नक्काशी को नुकसान न पहुंचे। इसलिए इसकी दीवारों को छूना निषेध है। इस मंदिर के निर्माण से जुड़ी अनेक रोचक बाते हैं, जो इस प्रकार हैं-
- इस मंदिर के निर्माण में उपयोग किया गया लाईम स्टोन और संगमरमर क्रमश: टर्की और इटली से भारत लाया गया। बाद में इस पर हस्तशिल्प कर कनाडा ले जाया गया। 


भारतीय कला का शानदार नमूना है कनाडा का ये मंदिर, छूना है मनाये हैं स्वामीनारायण मंदिर की कुछ अन्य विशेषताएं-
- जिन पत्थरों से इस मंदिर का निर्माण हुआ है, उन पत्थरों पर भारत के 26 स्थानों पर लगभग 1800 हस्तशिल्पियों ने कार्य किया है।
- यह मंदिर 18 एकड़ क्षेत्र में फैला है।  
- मंदिर के 132 तोरण, 340 खंबों और छत के 84 भागों के लिए 24 हजार नक्काशीदार संगमरमर और लाईम स्टोन पत्थर के टुकड़े उपयोग किए गए।
- इस मंदिर का निर्माण 100 भारतीय कारीगरों और हस्तशिल्पियों ने किया है।
- पत्थरों पर की गई नक्काशी में भारतीय धर्म ग्रंथों और पुराणों से जुड़े देवी-देवता और चिह्न दिखाई देते हैं।

भारतीय कला का शानदार नमूना है कनाडा का ये मंदिर, छूना है मनासनातन संस्कृति के अनुसार मंदिर की पवित्रता बनाए रखने के लिए स्वामी नारायण मंदिर में अनेक नियम और व्यवस्थाएं हैं, जो इस प्रकार हैं- 
- मंदिर में भगवान के दर्शन सुबह 9 से दोपहर 12 बजे तक और शाम को 4 से 6 बजे तक होते हैं। 
- मंदिर का आध्यात्मिक वातावरण बनाए रखने के लिए शांत रहने का नियम बनाया गया है। साथ ही सुंदर नक्काशी को नुकसान न पहुंचे इसलिए दीवारों का छूना निषेध है। 
- मंदिर में वस्त्रों की भी मर्यादा नियत की गई है। शार्ट या घुटने से ऊपर तक ऊंचाई वाले कपड़े की अनुमति न होकर उसके स्थान पर धोती या लुंगी दी जाती है। 
- जूते-चप्पल, धूम्रपान, मोबाइल आदि मंदिर में लाने और मंदिर के अंदर खान-पान पर पाबंदी है। 

Wednesday, July 2, 2014

ताजमहल’ नहीं, हिंदुआें के तेजोमहालय का ८५० वर्ष पुराना सच्चा इतिहास

ताजमहल' वास्तु मुसलमानोंकी नहीं, अपितु वह मूलतः हिंदुओंकी है । वहां इससे पूर्र्व भगवान शिवजीका मंदिर था, यह इतिहास सूर्यप्रकाशके जितना ही स्पष्ट है । मुसलमानोंने इस वास्तुको ताजमहल बनाया । ताजमहल इससे पूर्र्व शिवालय होनेका प्रमाण पुरातत्व विभागके अधिकारी, अन्य पुरातत्वतज्ञ, इतिहासके अभ्यासक तथा देशविदेशके तज्ञ बताते हैं । मुसलमान आक्रमणकारियोंकी दैनिकीमें (डायरी) भी उन्होंने कहा है कि ताजमहल हिंदुओंकी वास्तु है । तब भी मुसलमान इस वास्तुपर अपना अधिकार जताते हैं । शिवालयके विषयमें सरकारके पास सैकडों प्रमाण धूल खाते पडे हैं । सरकार इसपर कुछ नहीं करेगी । इसलिए अब अपनी हथियाई गई वास्तु वापस प्राप्त करने हेतु यथाशक्ति प्रयास करना ही हिंदुओंका धर्मकर्तव्य है । ऐसी वास्तुएं वापस प्राप्त करने हेतु एवं हिंदुओंकी वास्तुओंकी रक्षाके लिए ‘हिंदु राष्ट्र’ अनिवार्य है !

मुसलमान आक्रमणकारियोंने भारतके केवल गांव एवं नगरोंके ही नामोंमें परिवर्तन नहीं किया, अपितु वहांकी विशाल वास्तुओंको नियंत्रणमें लेकर एवं उसमें मनचाहा परिवर्तन कर निस्संकोच रूपसे  मुसलमानोंके नाम दिए । मूलतः मुसलमानोंको इतनी विशाल एवं सुंदर वास्तु बनानेका ज्ञान ही नहीं था । परंतु हिंदुओंने इस्लाम पंथकी स्थापनासे पूर्व ही अजिंटा तथा वेरूलके साथ अनेक विशाल मंदिरोंका निर्माणकार्य किया था । मुसलमान आक्रमणकारियोंको केवल भारतकी वास्तुकलाके सुंदर नमुने उद्ध्वस्त करना इतना ही ज्ञात था । गजनीद्वारा अनेक बार उद्ध्वस्त श्री सोमनाथ मंदिरसे लेकर तो आजकलमें अफगानिणस्तानमें उद्ध्वस्त बामयानकी विशाल बुद्धमूर्तितकका इतिहास मुसलमान आक्रमणकारियोंकी विध्वंसक मानसिकताके प्रमाण है ।

अंग्रेज सरकारद्वारा भी निश्चित रूपसे विध्वंस  !

मुसलमान आक्रमणकर्ताओेंके पश्चात आए अंग्रेज सरकारको भारतीय संस्कृतिके विषयमें तनिक भी प्रेम न रहनेके कारण उन्होंने मुसलमान आक्रमणकर्ताओंका ही अनुकरण किया ।

आक्रमणकर्ताओंकी दैनिकीमें ताजमहलके विषयमें सत्य !

आग्राकी ताजमहल वास्तुकी भी कहानी इसी प्रकारकी है । डॉ. राधेश्याम ब्रह्मचारीने ताजमहलका तथाकथित निर्माता शहाजहानके ही कार्यकालमें लिखे गए दस्तावेजोंका संदर्भ लेकर ताजमहलका इतिहास तपासकर देखा है । अकबरके समान शहाजहानने भी बादशहानामा ऐतिहासिक अभिलेखमें अपना चरित्र एवं कार्यकालका इतिहास लिखकर रखा था । अब्दुल हमीद लाहोरीने अरेबिक भाषामें बादशहानामा लिखा था, जो एशियाटिक सोसायटी ऑफ बेंगाल ग्रंथालयमें आज भीr उपलब्ध है । इस बादशहानामाके पृष्ठ क्रमांक ४०२ एवं ४०३ के भागमें ताजमहल वास्तुका इतिहास छिपा हुआ है । इस भागका स्वच्छंद भाषांतर आगे दिया है ।
'शुक्रवार दिनांक १५ माह जमदिउलवलको शहाजहानकी पत्नी मुमताजुल जामानिका पार्थिव बुरहानपुरसे आग्रामें (उस समयका अकबराबाद) लाया गया । यहांके राजा मानसिंहके महलके रूपमें पहचाने जानेवाले अट्टालिकामें गाडा गया । यह अट्टालिका राजा मानसिंहके नाती राजा जयसिंहके मालिकीकी थी । उन्होंने यह अट्टालिका शहाजहानको देना स्वीकार किया । इसके स्थानपर राजा जयसिंहको शरीफाबादकी जहागिरी दी गई । यहां गाडे गए महारानीका विश्वको दर्शन न होने हेतु इस भवनका रूपांतर दर्गामें किया गया ।

मुमताजुुलकी मृत्यु !

शहाजहानकी पत्नीका मूल नाम था अर्जुमंद बानू । वह १८ वर्षोंतक शहाजहानकी रानी थी । इस कालावधिमें उसे १४ अपत्य हुए । बरहानपुरमें अंतिम जजगीमें उसकी मृत्यु हो गई । उसका शव वहींपर अस्थायी रूपसे गाडा गया ।

ॐ का शिल्प

ताजमहल शिवालय होनेका सरकारी प्रमाण !

ताजमहलसे ४ कि.मी. दूरीपर आग्रा नगरमें बटेश्वर नामक बस्ती थी । वर्ष १९०० में पुरातन सर्वेक्षण विभागके संचालक जनरल कनिंघमद्वारा किए गए उत्खननमें वहां संस्कृतमें ३४ श्लोकमें मुंज बटेश्वर आदेश नामक पोथा पाया गया, जो लक्ष्मणपुरीके संग्रहालयमें संरक्षित है । इसमें श्लोक क्रमांक २५, २६ एवं ३६ महत्त्वपूर्ण हैं । इनका स्वच्छंद भाषांतर आगे दिया है ।
'राजाने एक संगमरवरी मंदिरका निर्माणकार्य किया । यह भगवान विष्णुका है । राजाने दूसरा शिवका संगमरवरी मंदिरका निर्माण कार्य किया । ' यह अभिलेख विक्रम संवत १२१२ माह आश्विन शुद्ध पंचमी, शुक्रवारको लिखा गया । (वर्तमान समयमें विक्रम संवत २०७० चालू है । अर्थात शिवालयका निर्माणकार्य कर लगभग ८५० वर्षोंकी कालावधि बीत गई है ।) (यह कालावधि लेख लिखनेके समयका अर्थात वर्ष १९०० के संदर्भके अनुसार है – संपादक, दैनिक सनातन प्रभात )

शिवालयके प्रमाणको पुरातत्व शास्त्रज्ञोंका समर्थन !

१. प्रख्यात पुरातत्वशास्त्रज्ञ डी.जे. कालेने भी उपरोक्त दस्तावेजको समर्थन दिया है । उनके संशोधनके अनुसार राजा परमार्दीदेवने २ विशाल संगमरवरी मंदिरोंका निर्माणकार्य किया, जिसमें एक श्रीविष्णुका तो दूसरा भगवान शिवजीका था । कुछ समय पश्चात मुसलमान आक्रमणकर्ताओंने इन मंदिरोंका पावित्र्य भंग किया । इस घटनासे भयभीत होकर एक व्यक्तिने दस्तावेजको भूमिमें गाडकर रखा होगा । मंदिरोंकी पवित्रताका भंग होनेके कारण उनका धार्मिक उपयोग बंद हो गया । इसीलिए बादशहानामाके लेखक अब्दुल हमीद लाहोरीने मंदिरके स्थानपर महल ऐसा उल्लेख किया होगा ।
२. प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मुजुमदारके अनुसार चंद्रात्रेय (चंदेल) राजा परमार्दिदेवका दूसरा नाम था परमल एवं उसके राज्यका नाम था बुंदेलखंड । आज आग्रामें दो संगमरवरी प्रासाद हैं, जिसमें एक नूरजहांके पिताकी समाधि (श्रीविष्णु मंदिर) है एवं दूसरा (शिवमंदिर) ताजमहल है ।

ताजमहल हिंदुओंका शिवालय होनेके और भी स्पष्ट प्रमाण !

प्रसिद्ध इतिहासकार आर.सी. मुजुमदारके मतका समर्थन करनेवाले प्रमाण आगे दिए हैं ।
१. ताजमहलके प्रमुख गुंबजके कलशपर त्रिशूल है, जो शिवशस्त्रके रूपमें प्रचलित है ।
२. मुख्य गुंबजके उपरके छतपर एक संकल लटक रही है । वर्तमानमें इस संकलका कोई उपयोग नहीं होता; परंतु मुसलमानोंके आक्रमणसे पूर्व इस संकलको एक पात्र लगाया जाता था, जिसके माध्यमसे शिवलिंगपर अभिषेक होता था ।
३. अंदर ही २ मंजिलका ताजमहल है । वास्तव समाधि एवं रिक्त समाधि नीचेकी मंजिलपर है, जबकि २ रिक्त कबरें प्रथम मंजिलपर हैं । २ मंजिलवाले शिवालय उज्जैन एवं अन्य स्थानपर भी पाए जाते हैं ।
४. मुसलमानोंकी किसी भी वास्तुमें परिक्रमा मार्ग नहीं रहता; परंतु ताजमहलमें परिक्रमा मार्ग उपलब्ध है ।

वैदिक पद्धतीका वास्तुनिर्माण
५. फ्रांस देशीय प्रवासी तावेर्नियारने लिखकर रखा है कि इस मंदिरके परिसरमें बाजार भरता था । ऐसी प्रथा केवल हिंदु मंदिरोंमें ही पाई जाती है । मुसलमानोंके प्रार्थनास्थलोंमें ऐसे बाजार नहीं भरते ।

ताजमहल शिवालय होनेकी बात आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगद्वारा भी सिद्ध

वर्ष १९७३ में न्यूयार्कके प्रैट संस्थाके प्राध्यापक मर्विन मिल्सद्वारा ताजमहलके दक्षिणमें स्थित लकडीके दरवाजेका एक टुकडा अमेरिकामें ले जाया गया । उसे ब्रुकलिन महाविद्यालयके संचालक डॉ. विलियम्सको देकर उस टुकडेकी आयु कार्बन-१४ प्रयोग पद्धतिसे सिद्ध करनेको कहा गया । उस समय वह लकडा ६१० वर्ष (अल्प-अधिक ३९ वर्ष) आयुका निष्पन्न हुआ । इस प्रकारसे ताजमहल वास्तु शहाजहानसे पूर्व कितने वर्षोंसे अस्तित्वमें थी यह  सिद्ध होता है ।

शिवालय (अर्थात तेजोमहालय) ८४८ वर्ष पुराना !

यहांके मंदिरमें स्थित शिवलिंगको 'तेजोलिंग' एवं मंदिरको तेजोमहालय कहा जाता था । यह भगवान शिवका मंदिर अग्रेश्वर नामसे प्रसिद्ध था । इससे ही इस नगरको आग्रा नाम पडा । मुंज बटेश्वर आदेशके अनुसार यह मंदिर ८४८ वर्ष पुराना है । इसका ३५० वां स्मृतिदिन मनाना अत्यंत हास्यजनक है ।
(संदर्भ : साप्ताहिक ऑर्गनायजर, २८.११.२००४)