Wednesday, June 8, 2016

अद्भुत मंदिर यहां गुप्त स्त्रोत से प्रवाहित होतीं है माँ गँगा-GALTAJI Temple Jaipur,India

यह मंदिर है राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्तिथ गलता तीर्थ पर जंहा आज भी श्रद्धालु दूर दूर से मौके बे मौके स्नान करने आते है, इस तीर्थ को जितनी महानता मिलनी चाहिए थी उतनी मिली नहीं क्योंकि ज्यादा लोग इसके बारे में कुछ जानते ही नहीं। आइये जानते है क्या है खास इस गलता तीर्थ में और क्यू जाना चाहिए यहाँ।

ऋषि विश्वामित्र के शिष्य ऋषि गलवा ने यहाँ तपस्या की तब उनके लिए गँगा यहाँ गुप्त रूप से प्रकट हुई, जिसका पानी आज भी अंजान स्त्रोत से निकलता है. लोगो का मानना है की जब भी तीर्थो पे सनान होता है तो यहाँ त्रिदेव समेत सभी देवता स्नान करने आते है इसलिए यहाँ के लोग यहाँ स्नान करने को किसी कुम्भ में स्नान के बराबर मानते है।
गलता जी में मुख्य मंदिर त्रिदेवो का है जो शायद भारत का एकमात्र ऐसा मंदिर है, जहां मान्यता है की ऋषि गलवा के तप से पर्सन हो कर तीनो देवो ने एक साथ उन्हें दर्शन दिए और इसी कारण वो यहाँ विराजमान है। ( इस मंदिर में प्रतिमूर्ति स्वरुप ),  अथवा इस मंदिर में सूर्य देव का मंदिर भी है जिसका निर्मा अठारहवीं सदी में हुआ था।
संत शिरोमणि नाथ जी जो की जानते थे की भगवान् किस वक्त क्या करते है यो यह घुमने आय थे , फिर यही उनका सत्संग स्थान भी बन गया तब से यो यही अपने सत्संग किया करते थे l इन्होने ही नाभाजी भक्तमाल की रचना की जिसमे उहोने भगवान् के समस्त भक्तो का चरित्र लिखा हुआ है।
गलता जी में ही एक और मंदिर है जहा एक ऐसी प्रतिमा है जिसमे श्रीराम और श्रीकृष्ण दोनों के दर्शन एक ही प्रतिमा में हो जाते है, तो कही ऐसा तो नही तुलसीदास जी को इसी मंदिर में तो नहीं हुए थे श्रीकृष्ण की मूर्ति में श्रीराम के दर्शन ?


Pallavi Sharma- Contributor

Father of Atom Maharishi Kanada- In Hindi

Atomic Theory के प्रथम जन्मदाता थे महर्षि कणाद. इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा
(It was Sage Kanada who originated the idea that anu (atom) was an indestructible particle of matter.)
सम्पूर्ण लेख
परमाणुशास्त्र के जनक आचार्य कणाद | Father of Atom Maharishi Kanada

महान परमाणुशास्त्री आचार्य कणाद पूर्व 3500 ईसापूर्व से भी पहले हुए थे गुजरात के प्रभास क्षेत्र (द्वारका के निकट) में जन्मे थे। इन्होने वैशेषिक दर्शनशास्त्र की रचना की | दर्शनशास्त्र (Philosophy) वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है| माना जाता है कि परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार सर्वप्रथम इन्होंने किया था इसलिए इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा |
It was Sage Kanada who originated the idea that anu (atom) was an indestructible particle of matter.
महर्षि कणाद ने सर्वांगीण उन्नति की व्याख्या करते हुए कहा था ‘यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:‘ जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात् भौतिक दृष्टि से तथा नि:श्रेयस याने आध्यात्मिक दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे धर्म कहते हैं।
परमाणु विज्ञानी महर्षि कणाद अपने वैशेषिक दर्शन के १०वें अध्याय में कहते हैं
‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘
अर्थात् प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।
इसी प्रकार महर्षि कणाद कहते हैं पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।
ईसा से ६०० वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का प्रतिपादन किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन (6 सितम्बर 1766 – 27 जुलाई 1844) की संकल्पना मेल खाती है। इस प्रकार कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन कर दिया था |
कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं बल्कि ऐसी इकाई को ‘परमाणु‘ नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते।
वैशेषिक दर्शन में इन्होने गति के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त किया है । इसके पांच प्रकार हैं यथा :
उत्क्षेपण (upward motion)
अवक्षेपण (downward motion)
आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)
प्रसारण (Shearing motion)
गमन (General Type of motion)
विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।
(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से
Dr. N.G. Dongre अपनी पुस्तक 'Physics in Ancient India' में वैशेषिक सूत्रों के ईसा की प्रथम शताब्दी में लिखे गए प्रशस्तपाद भाष्य में उल्लिखित वेग संस्कार और न्यूटन द्वारा 1675 में खोजे गए गति के नियमों की तुलना की है ।
महर्षि प्रशस्तपाद लिखते हैं
‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियतदिक् क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद् द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित् कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘
अर्थात् वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
उपर्युक्त प्रशस्तिपाद के भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
(१) वेग: निमित्तविशेषात् कर्मणो जायते
The change of motion is due to impressed force (Principia)
(२) वेग निमित्तापेक्षात् कर्मणो जायते नियत्दिक् क्रिया प्रबंध हेतु
The change of motion is proportional to the motive force impressed and is made in the direction of the right line in which the force is impressed (Principia)
(३) वेग: संयोगविशेषाविरोधी
To every action there is always an equal and opposite reaction (Principia)
वैशेषिक सूत्र में गति के साथ साथ ब्रह्माण्ड , समय तथा अणु /परमाणु का ज्ञान भी है जिसे विदेशी भी चुपके चुपके पढ़ते हैँ देखिये , ये निम्न एक पीडीऍफ़ फाइल दे रहा हूँ ये मुझे अमेरिका के एक कॉलेज की साईट पर मिली
Division of Electrical & Computer Engineering, School of Electrical Engineering and Computer Science
3101 P. F. Taylor Hall • Louisiana State University • Baton Rouge, LA 70803, USA
Space, Time and Anu (Atom) in Vaisheshika ->http://www.ece.lsu.edu/kak/roopa51.pdf
चाहे तो http://www.ece.lsu.edu/ में जाएँ और सर्च बॉक्स में kanad लिखें
विदेशी हमारी चीजें पढ़ कर हमें पढ़ा रहे है वो भी अपने नाम से और भारत के कूल डूडोँ को कैँडल मार्च से फुर्सत नहीँ है , कैसे दिन आ गये !!
दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश में आर्यों की ऐसी स्थति पर बड़ा दुःख व्यक्त किया है 
http://phys.org/news106238636.html
कणाद आगे यह भी कहते हैं कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक‘ का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मालिक्यूल‘ लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। यहां निश्चित रूप से कणाद रासायनिक बंधता की ओर इंगित कर रहे हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।
ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था।
कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत् यानी विशाल व्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
अत: कणाद कहते हैं-
‘धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम" :- वैशेषिकo दo-४
अर्थात् धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।
वैशेषिक हिन्दुओं के षडदर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं (ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) । यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है।
इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में लिखा। कणाद एक ऋषि थे। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि कण अर्थात् परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "उल्लू" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया। इन्हीं कारणों से यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", "वैशेषिक" या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है।
पठन-पाठन में विशेष प्रचलित न होने के कारण वैशेषिक सूत्रों में अनेक पाठभेद हैं तथा 'त्रुटियाँ' भी पर्याप्त हैं। मीमांसासूत्रों की तरह इसके कुछ सूत्रों में पुनरुक्तियाँ हैं - जैसे "सामान्यविशेषाभावेच" (4 बार) "सामान्यतोदृष्टाच्चा विशेष:" (2 बार), "तत्त्वं भावेन" (4 बार), "द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्यख्याते" (3 बार), "संदिग्धस्तूपचार:" (2 बार) ।
इसके नामकरण के दो कारण कहे जाते हैं -
(1) प्रत्येक नित्य द्रव्य को परस्पर पृथक् करने के लिए तथा प्रत्येक तत्व के वास्तविक स्वरूप को पृथक्-पृथक् जानने के लिए इन्होंने एक "विशेष" नाम का पदार्थ माना है ;
(2) "द्वित्व", "पाकजोत्पत्ति" एवं "विभागज विभाग" इन तीन बातों में इनका अपना विशेष मत है जिसमें ये दृढ़ हैं। अभिप्राय यह है कि वैशेषिक दर्शन व्यावहारिक तत्वों का विचार करने में संलग्न रहने पर भी स्थूल दृष्टि से सर्वथा व्यवहारत: समान रहने पर भी, प्रत्येक वस्तु दूसरे से भिन्न है । इन्होंने इसके परिचायक एकमात्र पदार्थ "विशेष" पर बल दिया है, इसलिए प्राचीन भारतीय दर्शन की इस धारा को "वैशेषिक" दर्शन कहते हैं। अन्य शास्त्रों ने इस बात का विवेचन नहीं किया है। पर उक्त कुछ कारणों से इस दर्शन को "वैशेषिक दर्शन" की संज्ञा दी गई है ।
कणादकृत वैशेषिकसूत्र - इसमें दस अध्याय हैं।
वैशेषिकसूत्र के दो भाष्यग्रन्थ हैं - रावणभाष्य तथा भारद्वाजवृत्ति । वर्तमान में दोनो अप्राप्य हैं।
पदार्थधर्मसंग्रह (प्रशस्तपाद, 4 वी सदी के पूर्व) वैशेषिक का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। यद्यपि इसे वैशेषिकसूत्र का भाष्य कहा जाता है किन्तु यह एक स्वतंत्र ग्रन्थ है।
पदार्थधर्मसंग्रह की टीका "व्योमवती" (व्योमशिवाचार्य, 8 वीं सदी),
पदार्थधर्मसंग्रह की अन्य टीकाएँ हैं- 'न्यायकंदली' (श्रीधराचार्य, 10 वीं सदी), "किरणावली" (उदयनाचार्य 10 वीं सदी), लीलावती ( श्रीवत्स, ११वीं शदी)।
पदार्थधर्मसंग्रह पर आधारित चन्द्र के 'दशपदार्थशास्त्र' का अब केवल चीनी अनुवाद प्राप्य है।
ग्यारहवीं शदी के आसपास रचित शिवादित्य की 'सप्तपदार्थी' में न्याय तथा वैशेषिक का सम्मिश्रण है।
अन्य : कटंदी, वृत्ति-उपस्कर (शंकर मिश्र 15 वीं सदी), वृत्ति, भाष्य (चंद्रकांत 20 वीं सदी), विवृत्ति (जयनारायण 20 वीं सदी), कणाद-रहस्य, तार्किक-रक्षा आदि अनेक मौलिक तथा टीका ग्रंथ हैं।
वैशेषिक तथा न्याय दोनों दर्शन ही "समानतंत्र" हैं। व्यावहारिक जगत् को यह वास्तविक मानते हैं। ये बाह्य जगत् तथा अंतर्जगत् की अवधारणा में परात्पर एवं घनिष्ठ संबंध मानते हैं। बाह्य जगत् (मानसिक) विचार पर निर्भर नहीं है, यह स्वतंत्र है।
'आत्मदर्शन' के लिए विश्व की सभी छोटी-बड़ी, तात्विक तथा तुच्छ वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना सामान रूप से आवश्यक है। इन तत्वों के ज्ञान के लिए प्रमाणों की अपेक्षा होती है। न्यायशास्त्र में प्रमाण पर विशेष विचार किया गया है, किंतु वैशेषिक दर्शन में मुख्य रूप से 'प्रमेय' के विचार पर बल दिया गया है।
यहाँ स्मरण कराना आवश्यक है कि न्याय की तरह वैशेषिक भी, लौकिक दृष्टि ही से विश्व के 'वास्तविक' तत्वों पर दार्शनिक विचार करता है। लौकिक जगत् की वास्तविक परिस्थितियों की उपेक्षा वह कभी नहीं करता, तथापि जहाँ किसी तत्व का विचार बिना सूक्ष्म दृष्टि का हो नहीं सकता, वहाँ किसी प्रकार अतीन्द्रिय , अदृष्ट, सूक्ष्म, योगज आदि हेतुओं के आधार पर अपने सिद्धांत को स्थापित करना इस धारा के दार्शनिकों का स्वभाव है, अन्यथा उनकी वैचारिक भित्तियां अंतर्विरोधी होतीं ; फलतः परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन आदि सत्ताओं का स्वीकार इस दर्शन में बराबर उपस्थित है ।
वैशेषिकों के स्वरूप, वेष तथा आचार आदि 'नैयायिकों' की तरह होते हैं; जैसे, ये लोग शैव हैं, इन्हें शैव-दीक्षा दी जाती थी। इनके चार प्रमुख भेद हैं - शैव, पाशुपत, महाव्रतधर, तथा कालमुख एवं भरट, भक्तर, आदि गौण भेद भी मिलते हैं। वैशेषिक विशेष रूप से "पाशुपत्" कहे जाते हैं। (षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरस्त की टीका न्याय-वैशेषिक मत। इस ग्रंथ से अन्य 'आचारों' के संबंध में संज्ञान हो सकता है)।
वैशेषिक मत में समस्त विश्व "भाव और अभाव" इन दो विभागों में विभाजित है। इनमें "भाव" के छह विभाग किए गए हैं- जिनके नाम हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, तथा समवाय। अभाव के भी चार उप-भेद हैं - प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यंताभाव तथा अन्योन्याभाव। ग्रंथों में इनके लक्षण आदि कुछ इस तरह प्राप्त होते हैं :
द्रव्य जिसमें "द्रव्यत्व जाति" हो वही द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं।द्रव्य गुणों का आश्रय है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य" कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं। नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वीपरमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।
जिससे गंध हो वह "पृथ्वी", जिसमें शीत स्पर्श हो वह "जल" जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह "तेजस्", जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होने वाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह "वायु", तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायीकरण हो, वह "आकाश" है। ये ही 'पंचभूत' भी कहलाते हैं।
आकाश, काल, दिक् तथा आत्मा ये चार "विभु" द्रव्य हैं। मनस् अभौतिक परमाणु है और नित्य भी है। आज, कल, इस समय, उस समय, मास, वर्ष, आदि समय के व्यवहार का जो साधारण कारण है- वह काल है। काल नित्य और व्यापक है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आदि दिशाओं तथा विदिशाओं का जो असाधारण कारण है, वह "दिक्" है। यह भी नित्य तथा व्यापक है। आत्मा और मनस् का स्वरूप यहाँ न्यायमत के समान ही है।
गुण कार्य का असमवायीकरण "गुण" है। रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह (चिकनापन), शब्द, ज्ञान, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म अधर्म तथा संस्कार ये चौबीस गुण के भेद हैं। इनमें से रूप, गंध, रस, स्पर्श, स्नेह, स्वाभाविक द्रवत्व, शब्द तथा ज्ञान से लेकर संस्कार पर्यंत, ये "वैशेषिक गुण" हैं, अवशिष्ट साधारण गुण हैं। गुण द्रव्य ही में रहते हैं।
कर्म क्रिया को "कर्म" कहते हैं। ऊपर फेंकना, नीचे फेंकना, सिकुड़ना, फैलाना तथा (अन्य प्रकार के) गमन, जैसे भ्रमण, स्पंदन, रेचन, आदि, ये पाँच "कर्म" के भेद हैं। कर्म द्रव्य ही में रहता है।
सामान्य अनेक वस्तुओं में जो एक सी बुद्धि होती है, उसके कारण प्रत्येक घट में जो "यह घट है" इस प्रकार की ए सी बुद्धि होती है, उसका कारण उसमें रहनेवाला "सामान्य" है, जिसे वस्तु के नाम के आगे "त्व" लगाकर कहा जाता है, जैसे - घटत्व, पटत्व। "त्व" से उस जाति के अंतर्गत सभी व्यक्तियों का ज्ञान होता है।
यह नित्य है और द्रव्य, गुण तथा कर्म में रहता है। अधिक स्थान में रहनेवाला "सामान्य", "परसामान्य" या "सत्तासामान्य" या "पर सत्ता" कहा जाता है। सत्तासामान्य द्रव्य, गुण तथा कर्म इन तीनों में रहता है। प्रत्येक वस्तु में रहनेवाला तथा अव्यापक जो सामान्य हो, वह "अपर सामान्य" या "सामान्य विशेष" कहा जाता है। एक वस्तु को दूसरी वस्तु से पृथक् करना सामान्य का अर्थ है।
विशेष द्रव्यों के अंतिम विभाग में रहनेवाला तथा नित्य द्रव्यों में रहनेवाला "विशेष" कहलाता है। नित्य द्रव्यों में परस्पर भेद करनेवाला एकमात्र यही पदार्थ है। यह अनंत है।
समवाय एक प्रकार का संबंध है, जो अवयव और अवयवी, गुण और गुणी, क्रिया और क्रियावान् जाति और व्यक्ति तथा विशेष और नित्य द्रव्य के बीच रता है। वह एक है और नित्य भी है।
किसी वस्तु का न होना, उस वस्तु का "अभाव" कहा जाता है। इसके चार भेद हैं - "प्राग् अभाव" कार्य उत्पन्न होन के पहले कारण में उस कर्य का न रहना, "प्रध्वंस अभाव" कार्य के नाश होने पर उस कार्य का न रहना, "अत्यंत अभाव" तीनों कालों में जिसका सर्वथा अभाव हो, जैसे वंध्या का पुत्र तथा "अन्योन्य अभाव" परस्पर अभाव, जैसे घट में पट का न होना तथा पट में घट का न होना।
ये सभी पदार्थ न्यायदर्शन के प्रमेयों के अंतर्गत है। इसलिए न्यायदर्शन में इनका पृथक् विचार नहीं है, किंतु वैशेषिक दर्शन में तो मुख्य रूप से इनका विचार है। वैशेषिक मत के अनुसार इन सातों पदार्थों का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने से मुक्ति मिलती है।
इन दोनों समान तत्वों में पदार्थों के स्वरूप में इतना भेद रहने पर भी दोनों दर्शन एक ही में मिले रहते हैं, इसका कारण है कि दोनों शास्त्रों का मुख्य प्रमेय है "आत्मा"। आत्मा का स्वरूप दोनों दर्शनों में एक ही सा है। अन्य विषय है - उसी आत्मा के जानने के लिए उपाय। उसमें इन दोनों दर्शनों में विशेष अंतर भी नहीं है। केवल शब्दों में तथा कहीं-कहीं प्रक्रिया में भेद है। फल में भेद नहीं है। अतएव न्यायमत के अनुसार प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के तत्वज्ञान से दोनों से एक ही प्रकार की "मुक्ति" मिलती है। दोनों का दृष्टिकोण भी एक ही है।
न्याय वैशेषिक मत में पृथ्वी, जल, तेजस् तथा वायु इन्हीं चार द्रव्यों का कार्य रूप में भी अस्तित्व है। इन लागों का मत में सभी कार्य द्रव्यों का नाश हो जाता है, और वे परमाणु रूप में आकाश में रहते हैं। यही अवस्था "प्रलय" कहलाती है। इस अवस्था में प्रत्येक जीवात्मा अपने मनस् के साथ तथा पूर्व जन्मों के कर्मों के संस्कारों के साथ तथा अदृष्ट रूप में धर्म और अधर्म के साथ विद्यमान रहती है। परतु इस समय सृष्टि का कोई कार्य नहीं होता। कारण रूप में सभी वस्तुएँ उस समय की प्रतीक्षा में रहती हैं, जब जीवों के सभी अदृष्ट कार्य रूप में परिणत होने के लिए तत्पर हो जाते हैं। परंतु अदृष्ट जड़ है, शरीर के न होने से जीवात्मा भी कोई कार्य नहीं कर सकती, परमाणु आदि सभी जड़ हैं, फिर "सृष्टि" के लिए क्रिया किस प्रकार उत्पन्न हो?
इसके उत्तर में यह जानना चाहिए कि उत्पन्न होनेवाले जीवों के कल्याण के लिए परमात्मा में सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है, जिससे जीवों के अदृष्ट कार्योन्मुख हो जाते हैं। परमाणुओं में ए प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक "द्रव्यणुक" उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं। वे दोनों उत्पन्न हुए "दव्यणुक" के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। इसी प्रकार जलीय, तैजस आदि शरीर के संबंध में समझना चाहिए।
यह स्मरण रखना चाहिए कि सजातीय दोनों परमाणु मात्र ही से सृष्टि नहीं होती। उनके साथ एक विजातीय परमाणु, जैसे जलीय परमाणु भी रहता है। "द्रव्यणुक" में अणु-परिमाण है इसलिए वह दृष्टिगोचर नहीं होता। "दवयणुक" से जो कार्य उत्पन्न होगा वह भी अणुपरिमाण का ही रहेगा और वह भी दृष्टिगोचर न होगा। अतएव दव्यणुक से स्थूल कार्य द्रव्य को उत्पन्न करने के लिए "तीन संख्या" की सहायता ली जाती है। न्याय-वैशेषिक में स्थूल द्रव्य, स्थूल द्रव्य का महत् परिमाणवाले द्रव्य से तथा तीन संख्या से उत्पन्न होता है। इसलिए यहाँ दव्यणुक की तीन संख्या से स्थूल द्रव्य "त्र्यणुक" या "त्रसरेणु" की उत्पत्ति होती है। चार त्र्यणुक से चतुरणुक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से पृथिवी तथा पार्थिव द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। द्रव्य के उत्पन्न होने के पश्चात् उसमें गुणों की भी उत्पत्ति होती है। यही सृष्टि की प्रक्रिया है।
संसार में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं सभी उत्पन्न हुए जीवों के भोग के लिए ही हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से जीव संसार में उत्पन्न होता है। उसी प्रकार भोग के अनुकूल उसके शरीर, योनि, कुल, देश, आदि सभी होते हैं। जब वह विशेष भोग समाप्त हो जाता है, तब उसकी मृत्यु होती है। इसी प्रकार अपने अपने भोग के समाप्त होने पर सभी जीवों की मृत्यु होती है।
न्यायमत - "संहार" के लिए भी एक क्रम है। कार्य द्रव्य में, अर्थात् घट में, प्रहार के कारण उसके अवयवों में एक क्रिया उत्पन्न होती है। उस क्रिया से उसके अवयवों में विभाग होता है, विभाग से अवयवी (घट) के आरंभक संयोगों का नाश होता है। और फिर घट नष्ट हो जाता है। इसी क्रम से ईश्वर की इच्छा से समस्त कार्य द्रव्यों का एक समय नाश हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि असमवायिकारण के नाश से कार्यद्रव्य का नाश होता है। कभी समवायिकारण के नाश से भी कार्यद्रव्य का नाश होता है।
इनका ध्येय है कि बिना कारण के नाश हुए कार्य का नाश नहीं हो सकता। अतएव सृष्टि की तरह संहार के लिए भी परमाणु में ही क्रिया उत्पन्न होती है और परमाणु तो नित्य है, उसका नाश नहीं होता, किंतु दो परमाणुओं के संयोग का नाश होता है और फिर उससे उत्पन्न "द्रव्यणुक" रूप कार्य का तथा उसी क्रम से "त्र्यणुक" एवं "चतुरणुक" तथा अन्य कार्यों का भी नाश होता है। नैयायिक लोग स्थूल दृष्टि के अनुसार इतना सूक्ष्म विचार नहीं करते। उनके मत में आघात मात्र ही से एक बारगी स्थूल द्रव्य नष्ट हो जाता है। कार्य द्रव्य के नाश होने पर उसके गुण नष्ट हो जाते हैं। इसमें भी पूर्ववत् दो मत हैं जिनका निरूपण "पाकज प्रक्रिया" में किया गया है।
न्याय मत की तरह वैशेषिक मत में भी बुद्धि, उपलब्धि, ज्ञान तथा प्रत्यय ये समान अर्थ के बोधक शब्द हैं। अन्य दर्शनों में ये सभी शब्द भिन्न भिन्न पारिभाषिक अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। बुद्धि के अनेक भेद होने पर भी प्रधान रूप से इसके दो भेद हैं - "विद्या" और "अविद्या", अविद्या के चार भेद है - संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय तथा स्वप्न।
संशय तथा विपर्यय का निरूपण न्याय में किया गया है। वैशेषिक मत में इनके अर्थ में कोई अंतर नहीं है। अनिश्चयात्मक ज्ञान को "अनध्यवसाय" कहते हैं। जैसे - कटहल को देखकर वाहीक को, एक सास्ना आदि से युक्त गाय को देखकर नारिकेल द्वीपवासियों के मन में शंका होती है कि यह क्या है?
दिन भर कार्य करने से शरीर के सभी अंग थक जाते हैं। उनको विश्राम की अपेक्षा होती है। इंद्रियॉ विशेषकर थक जाती हैं और मन में लीन हो जाती है। फिर मन मनोवह नाड़ी के द्वारा पुरीतत् नाड़ी में विश्राम के लिए चला जाता है। वहाँ पहुँचने के पहले, पूर्वकर्मों के संस्कारों के कारण तथा वात, पित्त और कफ इन तीनों के वैषम्य के कारण, अदृष्ट के सहारे उस समय मन को अनेक प्रकार के विषयों का प्रत्यक्ष होता है, जिसे स्वप्नज्ञान कहते हैं।
यहाँ इतना ध्यान में रखना चाहिए कि वैशेषिक मत में ज्ञान के अंतर्गत हो "अविद्या" को रखा है और इसीलिए "अविद्या" को "मिथ्या ज्ञान" भी कहते हैं। बहुतों का कहना है कि ये दोनों शब्द परस्पर विरुद्ध है। जो मिथ्या हैं, वह ज्ञान नहीं कहा जा सकता और जो ज्ञान है, वह कदापि मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
विद्या भी चार प्रकार की है - प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति तथा आर्ष। यहाँ यह ध्यान में रखना है कि न्याय में "स्मृति" को यथार्थज्ञान नहीं कहा है। वह तो ज्ञात ही का ज्ञान है। इसी प्रकार "आर्ष ज्ञान" भी नैयायिक नहीं मानते। नैयायिकों के शब्द या आगम को अनुमान में तथा उपमान को प्रत्यक्ष में वैशेषिकों ने अंतर्भूत किया है।
वेद के रचनेवाले ऋषियों को भूत तथा भविष्य का ज्ञान प्रत्यक्ष के समान होता है। उसमें इंद्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं रहती। यह "प्रातिभ" (प्रतिभा से उत्पन्न) ज्ञान या "आर्षज्ञान" कहलाता है। यह ज्ञान विशुद्ध अत:करणवाले जीव में भी कभी कभी हो जाता है। जैसे - एक पवित्र कन्या कहती है - कल मेरे भाई आवेंगे और सचमुच कल उसके भाई आ ही जाते हैं। यह "प्रातिभ ज्ञान" है।
प्रत्यक्ष और अनुमान के विचार में दोनों दर्शनों में कोई भी मतभेद नहीं है। इसलिए पुन: इनका विचार यहाँ नहीं किया गया।
कर्म का बहुत विस्तृत विवेचन वैशेषिक दर्शन में किया गया है। न्याय दर्शन में कहे गए "कर्म" के पाँच भेदों को ये लोग भी उन्हीं अर्थों में स्वीकार करते हैं। कायिक चेष्टाओं ही को वस्तुत: इन लोगों ने "कर्म" कहा है। फिर भी सभी चेष्टाएँ प्रयत्न के तारतम्य ही से होती हैं। अतएव वैशेषिक दर्शन में उक्त पाँच भेदों के प्रत्येक के साक्षात् तथा परंपरा में प्रयत्न के संबंध से कोई कर्म प्रयत्नपूर्वक होते हैं, जिन्हें "सत्प्रत्यय-कर्म" कहते हैं, कोई बिना प्रयत्न के होते हैं, जिन्हें "असत्प्रत्यय-कर्म" कहते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे कर्म होते हैं, जैसे पृथ्वी आदि महाभूतों में, जो बिना किसी प्रयत्न के होते हैं, उन्हें "अप्रत्यय-कर्म" कहते हैं।
इन सब बातों को देखकर यह स्पष्ट है कि वैशेषिक मत में तत्वों का बहुत सूक्ष्म विचार है। फिर भी सांसारिक विषयों में न्याय के मत में वैशेषिक बहुत सहमत है। अतएव ये दोनों "समानतंत्र" कहे जाते हैं।
इन दोनों दर्शनों में जिन बातो में "भेद" है, उनमें से कुछ भेदों का पुन: उल्लेख यहाँ किया जाता है।
(1) न्यायदर्शन में प्रमाणों का विशेष विचार है। प्रमाणों ही के द्वारा तत्वज्ञान होने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। साधारण लौकिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर न्यायशास्त्र के द्वारा तत्वों का विचार किया जाता है। न्यायमत में सोलह पदार्थ हैं और नौ प्रमेय हैं।
वैशेषिक दर्शन में प्रमेयों का विशेष विचार है। इस शास्त्र के अनुसार तत्वों का विचार करने में लौकिक दृष्टि से दूर भी शास्त्रकार जाते हैं। इनकी दृष्टि सूक्ष्म जगत् के द्वार तक जाती है इसलिए इस शास्त्र में प्रमाण का विचार गौण समझा जाता है। वैशेषिक मत में सात पदार्थं हैं और नौ द्रव्य हैं।
(2) प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द इन चार प्रमाणों को न्याय दर्शन मानता है, किंतु वैशेषिक केवल प्रत्यक्ष और अनुमान इन्हीं दो प्रमाणों को मानता है। इसके अनुसार शब्दप्रमाण अनुमान में अंतर्भूत है। कुछ विद्वानों ने इसे स्वतंत्र प्रमाण भी माना है।
(3) न्यायदर्शन के अनुसार जितनी इंद्रियाँ हैं उतने प्रकार के प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे - चाक्षुष, श्रावण, रासन, ध्राणज तथा स्पार्शना किंतु वैशेषिक के मत में एकमात्र चाक्षुष प्रत्यक्ष ही माना जाता है।
(4) न्याय दर्शन के मत में समवाय का प्रत्यक्ष होता है, किंतु वैशेषिक के अनुसार इसका ज्ञान अनुमान से होता है।
(5) न्याय दर्शन के अनुसार संसार की सभी कार्यवस्तु स्वभाव ही से छिद्रवाली (घ्दृद्धदृद्वद्म) होती हैं। वस्तु के उत्पन्न होते ही उन्हीं छिद्रों के द्वारा उन समस्त वस्तुओं में भीतर और बाहर आग या तेज प्रवेश करता है तथा परमाणु पर्यंत उन वस्तुओं को पकाता है। जिस समय तेज की कणाएँ उस वस्तु में प्रवेश करती हैं, उस समय उस वस्तु का नाश नहीं होता। यह अंग्रेजी में केमिकल ऐक्शन (ड़ण्ड्ढथ्र्त्ड़ठ्ठथ् ठ्ठड़द्यत्दृद) कहलाता है। जैसे - कुम्हार घड़ा बनाकर आवें में रखकर जब उसमें आग लगाता है, तब घड़े के प्रत्येक छिद्र से आग की कणाएँ उस में प्रवेश करती हैं और घड़े के बाहरी और भीतरी हिस्सों को पकाती हैं। घड़ा वैसे का वैसा ही रहता है, अर्थात् घड़े के नाश हुए बिना ही उसमें पाक हो जाता है। इसे ही न्याय शास्त्र में "पिठरपाक" कहते हैं।
वैशेषिकों का कहना है कि कार्य में जो गुण उत्पन्न होता है, उस पहले उस कार्य के समवायिकारण में उत्पन्न होना चाहिए। इसलिए जब कच्चा घड़ा आग में पकने को दिया जाता है, तब आग सबसे पहले उस घड़े के जितने परमाणु हैं, उन सबको पकाती है और उसमें दूसरा रंग उत्पन्न करती है। फिर क्रमश: वह घड़ा भी पक जाता है और उसका रंग भी बदल जाता है। इस प्रक्रिया के अनुसार जब कुम्हार कच्चे घड़े को आग में पकने के लिए देता है, तब तेज के जोर से उस घड़े का परमाणु पर्यंत नाश हो जाता है और उसके परमाणु अलग अलग हो जाते हैं पश्चात् उनमें रूप बदल जाता है, अर्थात् घड़ा नष्ट हो जाता है और परमाणु के रूप में परिवर्तित हो जाता है तथा रंग बदल जाता है, फिर उस घड़े से लाभ उठानेवालों के अदृष्ट के कारणवश सृष्टि के क्रम से फिर बनकर वह घड़ा तैयार हो जाता है। इस प्रकार उन पक्व परमाणुओं से संसार के समस्त पदार्थ, भौतिक या अभौतिक तेज के कारण पकते रहते हैं। इन वस्तुओं में जितने परिवर्तन होते हैं वे सब इसी पाकज प्रक्रिया (केमिकल ऐक्शन) के कारण होते हैं। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह पाक केवल पृथिवी से बनी हुई वस्तुओं में होता है। इसे वैशेषिक "पीलुवाक" कहते हैं।
(6) नैयायिक असिद्ध, विरुद्ध, अनैकांतिक, प्रकरणसम तथा कालात्ययापदिष्ट ये पाँच हेत्वाभास मानते हैं, किंतु वैशेषिक विरुद्ध, असिद्ध तथा संदिग्ध, ये ही तीन हेत्वाभास मानते हैं।
(7) नैयायिकों के मत में पुण्य से उत्पन्न "स्वप्न" सत्य और पाप से उत्पन्न स्वप्न असत्य होते हैं, किंतु वैशेषिक के मत में सभी स्वप्न असत्य हैं।
(8) नैयायिक लोग शिव के भक्त हैं और वैशेषिक महेश्वर या पशुपति के भक्त हैं। आगम शास्त्र के अनुसार इन देवताओं में परस्पर भेद है।
(9) इनके अतिरिक्त कर्म की स्थिति में, वेगाख्य संस्कार में, सखंडोपाधि में, विभागज विभाग में, द्वित्वसंख्या की उत्पत्ति में, विभुओं के बीच अजसंयोग में, आत्मा के स्वरूप में, अर्थ शब्द के अभिप्राय में, सुकुमारत्व और कर्कशत्व जाति के विचार में, अनुमान संबंधों में, स्मृति के स्वरूप में, आर्ष ज्ञान में तथा पार्थिव शरीर के विभागों में भी परस्पर इन दोनों शास्त्रों में मतभेद हैं।
इस प्रकार के दोनों शास्त्र कतिपय सिद्धांतों में भिन्न-भिन्न मत रखते हुए भी परस्पर संबद्ध हैं। इनके अन्य सिद्धांत परस्पर लागू होते हैं।
महर्षि कणाद ने परमाणु को ही अंतिम तत्व माना। कहते हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु।

Thursday, June 2, 2016

The Saviors of Hindu Dharma in South India – Part 1

It is assumed that south India did not get as much barbaric attacks and conversion by INVADERS ISLAMIC MUSLIMS but on contrary it is half truth. Many Hindu kingdoms were destroyed, many conversion took place. Tipu Sultan sent army to either convert or slaughter in Kerala and all south India. Even Sword of Tipu Sultan say:
Sultan Tipu's favorite sword reads in Arabic "Slaughter Hindu Get Victory With Allah's Help" displayed in his shrine. And Hindus are as stupid as 2000 years before.


Peaceful brave Hindus ruled for several centuries before and had nurtured the flowering of Dharma in various forms such as literature, philosophy, art, and architecture in Southern India.
These kingdoms were among the most prosperous kingdoms in the world, as can be seen in references given to them in numerous chronicles and testimonies. This Article will make all of you to learn from history and wake up before another Bangladesh, Pakistan or Iran or Iraq or middle east created from present India. It is time to get together and help BJP under MODI to grab all India and create old SANATAN DHARMA back in India and forget CASTE and Religion for sake of country.
It is important to bear in mind that the Islamist invading armies were aided via espionage and subversion by several Sufi ‘saints’ who had traveled into the South for preaching. In many cases as with the Yadavas at Deogiri and Pandyas at Madurai, the very Sufi preachers they had patronized acted as spies providing intelligence to the foreign invaders.
It was topography of the South, which would have presented a greater challenge for any invader.
You all must know that your forefathers have shed their blood in the millions to defend the very land we walk upon, several great heroes from the Southern realms of Bharatavarsha have been lost in history by Nehru Gandhivian philosophy and terrorist like Akbar and Tipu Sultan was told that they were freedom fighters. Time is now to re learn truth of false history we were told and bring back our heroes like Pritviraj Chouhan, Rana Sanga, Maharana Pratap, Shivaji , Great Asoka etc.
There was a motivated effort to deliberately erase them from our consciousness to either erase history of Hindus or convert them to either Muslim or Christianity. Thanks to the inscriptions and records they left behind in the ruins of the great empires they raised, or from the accounts of the scribes and historians affiliated to invader hordes. This is a story retold about south Indian kingdoms-
Four Kingdoms


In 11th and 12 centuries AD, the Cholas of Tamil region ruled over a vast  territory  from East Central India to present SriLanka and Malaya and were among the world’s mightiest kingdoms of the time. There was abundance prosperity, good  governance and taxation systems and promotion of trade, culture and stability for  sea trade routes.
They were also master architect who built  temples and monuments that still stand today rank among the greatest examples of Hindu architectural story. Their decline in the latter half of the 13th century lead to the resurrection of the fortunes of the Pandya Dynasty of the same region, who were formerly subordinate to the Cholas.


The Pandyas were among the 4 ruling kingdoms of Peninsular India of that time and ruled in an area encompassing most of modern day TN and Kerala. The Hoysalas ruled over most of what’s now Karnataka, while the Kakatiyas ruled over the lands of Telangana and Andhra. The 4th kingdom of the Yadavas ruled over most of the upper bounds of Peninsular India, in an area from Goa to Maharatta country right up to the Vindhya Mountains.
The last great Pandyan king Maravarman Kulasekhara Pandya I ascended the throne in AD 1268 and ruled for 42 years, ushering in an era of peace and prosperity. After his death, the infighting between his 2 sons, who sought to rule over his kingdom, lead to conditions precipitating the first Muslim invasion of Southern India.

First Blood

Meanwhile, in the year AD 1292, in faraway Karra (now known as Allahabad, UP), the newly appointed governor Ghazi Alauddin Khilji heard an exciting news from his spies. They told him of a rich prosperous Hindu kingdom that lay just over South of the Vindhyas that was ruled by an aging ruler who was busy fighting wars in his Southern frontiers with his son leading bulk of his army.


Alauddin marched across the Vindhya mountains with a force of 8000 cavalry, concealing his actions from the knowledge of his Uncle, the Sultan in Delhi. En route to Deogiri, the capital of the Yadava empire, he circulated the rumor that he’s only the advance guard of a much larger cavalry force before laying siege to the city.
The Yadava King Ram Deo offered ransom while letting Alauddin know his son Shankar Deo was due to return along with the main army anytime. While Shankar Deo did in fact return with his army, Alauddin deployed a clever ruse, to make it appear that the much larger rumored Muslim cavalry force is attacking, causing Shankar’s army to flee in alarm.
Under cover of darkness, Alauddin then pressed on with the siege of Deogiri’s main citadel, slaughtering several hundreds of its inhabitants, including many men of the Brahmana caste. The beleaguered King Ram Deo then offered an enormous ransom of gold, silver, diamonds, and elephants, and yearly tribute to Alauddin Khilji ‘s state. Thus satisfied, Alauddin marched back into Kharra and into history as the first successful Muslim invader of the Deccan, paving way for the invasions of wealthy Southern India.
News of Alauddin’s exploits reached the Sultan’s court in Delhi and the worried Sultan Jalaluddin Feroz visited his nephew in Kharra, where in familiar Sultanate tradition, he was promptly murdered right in front of Alauddin in the middle of dinner service. Jalaluddin’s sons were fighting at distant frontiers while a victorious Alauddin made his way to Delhi to ascend the throne of the Sultan in AD 1296, buying support with the massive wealth he plundered from the Yadavas of Deogiri.


Jihad Further South

The celebrated Sufi Muslim bard Amir Khusrau, who was employed at the court of Alauddin Khilji, records with unconcealed delight in the Tarik i Alai–
The great Ghazi Alauddin Khalji, who had successfully extinguished the depraved Satanic ways of Hindus with his sword from the mountains of Ghazni to mouth of the Ganges, by destroying their temples and putting to death their holy-men (Brahmans), was possessed by a zeal to spread the light of the Mohammedan faith to hitherto untouched regions, namely the Deccan and Southern India.’
Malik Kafur, Alauddin Khilji‘s best general, was originally an attractive slave boy sexually exploited by Alauddin . After successful expeditions in Gujarat and Rajputhana, Malik Kafur in the years AD 1307 and 1309 respectively, conquered and extracted, rich tribute from the Yadava kingdom at Deogiri and Kakatiyas at Warangal.


After a protracted bloody siege of Warangal, under threat of a mass slaughter, Malik Kafur extracted from the Kakatiya King Rudra Deva, almost his entire country’s wealth in diamonds, gold, silver, gems, horses, and elephants. The last was a particular attraction for the Delhi sultans in Southern India, given the importance that the elephant had as a war machine during that time. Malik Kafur then returned to Delhi with the loot of Warangal burdening a ”1000 camels under the weight of treasure”, according to Aamir Khusrau’s excited testimony.
With Deogiri Yadava and Warangal Kakatiyas looted and denuded of their riches and dignity, the Hoysalas of Karnata and Pandyas of Tamil country were the only 2 major Hindu kingdoms in the entire Indian mainland, who remained untouched by the sword of Islam in the year AD 1310.

Next wave of Southern Jihad 

Having brought the Yadava and Kakatiya kingdoms into submission, Alauddin Khilji set his sights further southwards to the regions of Ma’bar (present day Tamil Nadu and Kerala), which as Aamir Khusrau sagely informs us, were so distant they could be reached only after a 12 month march from Delhi and ‘‘never saw the arrow of a Holy warrior”.


The army of Islam, led by Malik Kafur, arrived at the gates of Dwarasamudram (Halebidu), capital of the Hoysalas few months later, leaving behind a trail of destruction and demanded that the ruler convert to Islam or pay an enormous amount as Jaziya or die. The Hoysala ruler was then forced to part with nearly all of his treasure (except his sacred thread as Khusrau gleefully records) and was made to agree to pay an annual tribute to the tyrant in Delhi.
Having humbled the Hoysalas thus, Malik Kafur pressed southwards, setting his sights on Ma’bar, where following the death of the great Pandyan King Maravarman Kulasekhara, his sons Sundara and Vira Pandya were locked in a fratricidal war over their right to rule as successor. Malik Kafur pressed his army to the Pandya capital, leaving behind an enormous trail of massacres and destruction, the likes of which had never been witnessed before in the entire history of Southern India.
The great temple cities of Kanchipuram, Chidambaram, Madurai, Srirangam, and Rameshwaram in the Tamil country were completely devastated by the Mohammedan onslaught. As our genteel Sufi Bard Aamir Khusrau triumphantly records:
”the holy places of the Hindus, which the Malik Kafur dug up from its foundations with the greatest care… and the heads of the Brahmans and other idolaters danced from their necks and fell to the floor with torrents of blood. The stone idols called Ling, which had existed for a long time and until now, the kick of the horse of Islam hadn’t attempted to break… the Mussalmans destroyed all the idols”.
Khusrau also records that Malik Kafur seized over 500 elephants, 5000 horses, and over 500 mounds of gems of every imaginable manifestation (rubies, pearls, diamonds, emeralds etc.).The warring Pandyan brothers, meanwhile, upon hearing the fate that befell the Hoysala King, set their differences aside, went into hiding and continued to wage guerrilla war against the invading Jihadi army.
While Malik Kafur was ultimately unsuccessful in forcing the Pandyas to pay tribute, he did return to Delhi with a loot in the South, in addition to leaving behind a garrison of soldiers in Madurai, the Pandyan capital. This would later lead to the genesis of the first Muslim ruled state in Southern India.

Turmoil in Delhi

While his confidant General Malik Kafur was causing a green Holocaust in the previously un-despoiled Holy land of Dakshina Bharata, the tyrant Sultan Alauddin Khilji, was being consumed by a kind of putrid hate and madness that comes only at the end of a lifetime of violence and rape. Paranoia combined with the Sultan’s zeal for repression was suffocating a large section of the population, especially the Hindus. Even Muslims born into other ethnicities weren’t spread of the mad King’s wrath. Upon Alauddin’s orders, over 30,000 newly converted Mongol origin Muslims, who had settled in Delhi, were massacred on the streets and their women and children sold into slavery. This incident sent shockwaves throughout India. Revolt was brewing and it was into this quagmire that Malik Kafur returned with the colossal wealth he had brutally looted from the Southern realms, vastly increasing the Sultanate’s fortunes.
Alauddin Khilji, died in the month of January in 1316. Malik Kafur, the most powerful figure in Delhi post the Sultan, then wasted no time in decimating the entire Khilji clan. However, in a stunning twist of fate, the assassins he had paid to kill one of Alauddin’s sons, turned against him and dispatched him to hell, bringing an abrupt end to his fantastic career as of one the greatest Ghazis of all time.
Mubarak Shah, Alauddin Khilji’s son succeeded him on the throne in AD 1317. He appears to have inherited his father’s taste in drinks and handsome boys, and thus had taken a Gujarati Hindu sex slave (born into a deprived caste) and christened him Khusrau Khan. Like Malik Kafur before him, Khushrau ascended the ranks quickly and became a Vazir in the service of the Sultan.

Hindu Kingdom fight back

The confusion in Delhi gave the Deccan and Southern Kingdoms a reprieve and they stopped sending tribute of treasure and elephants to Delhi. The distant Hoysala Emperor Raja Veera Ballala III rebuilt his ruined city and consolidated his hold over his empire and parts of Tamil country.  In Devagiri, the Yadava King Harapala Deva ascended the throne and stopped sending tribute over to the Delhi sultanate. The Kakatiya Raja Pratap Rudra did the same and strengthened his hold over the frontiers of the old Kakatiya realm. While further down south the estranged Pandya brothers, Vira and Sundara began their fratricidal war again.
This enraged the new Sultan Mubarak Shah and he descended upon Devagiri with his huge army in AD 1318, while KhusraWarangal, the seat of the Kakatiyas to teach Pratap Rudra a lesson. The brave Harapala Deva put up a spirited defense, but was defeated, captured, and in typical barbarous Sultanate fashion killed, flayed, his skin stuffed with straw and displayed from the gates of Devagiri. Thus passed the end of the last great ruler of the Yadavas, who had ruled for nearly 600 years over the Deccan, claiming descent from Lord Krishna himself.

Mubarak Shah then partitioned the Maratha countryside to various Mohammedan governors, bringing the Deccan under the direct Muslim rule for the first time. The Sultan then ordered the main temples of Devagiri (city of the Gods) demolished and erected a huge Mosque with the pillars of the smashed temples, the first ever masjid in the Deccan. This domed monstrosity was a replica of the Qutub Minar’s masjid, similarly ‘decorated’ with Hindu temple parts. The Sultanate sought to reimagine Delhi in the Deccan.

Meanwhile, Khusrau Khan successfully waged war upon the Kakatiyas in Warangal and forced them to submit and pay tribute. He then turned to meet his Sultan in Devagiri, who by then had grown suspicious of rumors emanating from Delhi and left for it.

Mayhem in Delhi

In typical Sultanate fashion, Khushrau Khan gained power over an increasingly mad Mubarak Shah and finally gets him killed. Remarkably then, Khusrau Khan, to the consternation of the Muslim Ulema and nobility at Delhi, begins a process of Hinduization of the administration, appointing Hindu ministers and generals and banning slavery of Hindus.
The anguished Ulema and the Muslim nobility then select Ghazi Malik, Governor of Deobalpur (in modern day Pakistan Punjab) to intervene on their behalf. The Ghazi Malik raises a huge army and attacks Delhi. Khushrau Khan empties his treasury to pay his Muslim soldiers to defend the city, but they decamp after taking the money from him to join the Ghazi. Khusrau is subsequently captured, tortured and killed and Ghazi Malik ascends the Throne as the first Tughluk emperor, Ghiyasuddin Tughluk in AD 1320.

The renewed Jihad

The Tughluk Sultan then turned Eastwards on a campaign of terror and destruction, launching invasions of Bengal and Odisha, which proved to be partly unsuccessful. Meanwhile, his favorite eldest son and heir apparent, Ulugh Khan, in the year AD 1322, launched an invasion of the Kakatiya empire, laying siege to the Kakatiya King Pratap Rudra‘s fort at Warangal. The Hindus, under Pratap Rudra, offered brave resistance withstanding the siege, in a cat and mouse game.
Some rumors were spread in the Tughluk camp saying that the Sultan in Delhi had died and that Ulugh Khan was planning to execute his generals, plummeting the morale and adding confusion amongst the ranks. The Hindus of the Kakatiya army then took advantage of the chaos and attacked, routing the army of Islam, which was at their gates. Ulugh Khan, then retreated to the Sultanate’s bastion at Devagiri (rechristened Daulatabad), waited for reinforcements to arrive from Delhi and re-launched the attack upon Warangal.


King Pratap Rudra committed the folly of thinking that the Muslim invaders had left and opened his fort granaries in celebration. But, despite this folly, Pratap Rudra and his brave soldiers managed to withstand the siege for another 6 months, when Ulugh Khan arrived with an enormous army.
Ultimately, the starving Kakatiya army was routed, most of Pratap Rudra’s family killed or enslaved, and the Kakatiya Raja himself was bound and taken to Delhi. Pratap Rudra then committed suicide en route in AD 1323, ending the old Kakatiya dynasty forever.
In a curious twist of events, Prince Ulugh Khan contrived to get his father, the Sultan killed in a bizarre accident and then ascended the throne as Muhammad Bin Tughlak in the year AD 1325. He then launched a series of Jihads across the country, which were very successful and placed him at the head of the largest Muslim Empire ever to rule over Bharata, whose frontiers extended from Gujarat to Bengal and from Punjab to Tamil Nadu.
Sultan Muhammad Bin Tughlak sought to rule over such a vast empire through a policy of repression and political intrigue. The follies and horrors he committed would constitute several separate books by itself, such as his ruinous attempt at conquering China or introducing paper money or changing his capital from Delhi to Daulatabad, forcibly moving the entire population southwards, to name a few. But, it is suffice to say that the condition of the lay Hindus became so dire in his rule, that ‘they were forced to flee to the jungles after abandoning their farms, a move done only in times of great distress’, as the Mohammedan chronicler Ziauddin Barani notes.

Southern Hindu struggles

The chaos and mayhem brought about by the Mad Sultan in Delhi did not escape the attention of the Southern Kings. His nephew Bahauddin Garshap, the governor of Gulbarga province (in modern day Karnataka), was apparently a moderate Muslim, who retained cordial relations with his neighboring Hindu rulers. In the year AD 1326, he declared himself as an Independent. He then entered into an alliance with his neighboring Hindu chieftain Kampili Deva, then a vassal of the Hoysala emperor. The enraged Sultan Muhammad sent a huge army under the leadership of Mujir Al Din Abu Rjia, the Mushriff of Deogiri, who then attacked Garshap causing him to flee and take refuge with Kampili Deva.
Rija, then attacked Kampili at Hosadurga, but the latter’s brave resistance and ingenious battlefield tactics caused the former to flee and return with a larger army. In the clash that followed, the Kampili raja enabled Bahauddin to flee to Dwarasamudra, the capital of the Hoysala state and prepared for a siege at his fort in Hosadurga. Facing a huge army with dwindling supplies, the resolute and brave Raja Kampili died fighting the enemy.
The Tughlak armies, then gave chase to Bahaduddin Garshap right up to the gates of Dwarasamudram, the capital of Hoysalas and launched a catastrophic attack, despoiling the numerous temples and palaces of the ancient city, including the grand temple of Shiva (Hoysaleeshwara), the ruins of which can be seen even to this day. Never again would Dwarasamudram regain a shadow of its former glory, as it was abandoned in AD 1327 forever following the attack of the army of Islam under the leadership of Tughluk.

The Hoysala King fled and took refuge at Thiruvannamalai, his outpost deep within Tamil country, avoiding the barbaric fate that befell Bahauddin Garshap. The Sultan’s nephew was tortured, killed, flayed, and stuffed with straw and displayed for all to see. Then, his flesh was cooked with rice and sent over to his wife and children.
In AD 1330, with the ancient Yadavas, Kakatiyas, and Kampilideva dynasties all dead and gone and the Pandyas having degenerated into numerous petty feuding chieftains, the Hoysala Monarch Veera Ballala III was the last remaining major Hindu ruler in the Deccan and Southern India. A calamity had been unleashed upon the South by the invasions of the Muslim Sultanate over the previous 30 years, resulting in the wiping out of several ancient Southern dynasties, demolition of countless ancient temples, and death and displacement of thousands of Hindus.


Madurai Sultanate

Meanwhile, in Madurai, the erstwhile capital of the Tamil Pandya rulers, the local Muslim governor Ahsan Shah after having observed the events in Delhi and around him, decided to throw off Delhi’s yoke and crowned himself the Sultan of Madurai in AD 1335. A force was then promptly dispatched by Sultan Tughlak to teach Ahsan Shah a lesson, but ended in failure. Madurai Sultanate quickly achieved immense notoriety in the 50 years of its brutal existence by the barbaric treatment it meted out to the native Tamil Hindus.
Among the numerous sultans of Madurai, the most notorious Sultan for his cruelty was Ghiyasuddin Al Damaghani, who crowned himself the Madurai Sultan after murdering Ahsan Shah’s son. A particularly blood curdling eye witness account of his cruelty by the famed Mohammedan traveler and chronicler Ibn Batutta (who was touring India then) is as follows,
”…The next morning, the Hindu prisoners were divided into four sections and taken to each of the four gates of the great catcar. There, on the stakes they had carried, the prisoners were impaled. Afterwards, their wives were killed and tied by their hair to these pales. Little children were massacred on the bosoms of their mothers and their corpses left there. Then, the camp was raised…
“This is shameful conduct such as I have not known any other sovereign guilty of. It is for this that God hastened the death of Ghiyath-eddin [Ghiyath-ud-din]. One day whilst the Kadhi (Kazi) and I were having our food with [Ghiyath-ud-din], the Kazi to his right and I to his left, an infidel was brought before him accompanied by his wife and son aged seven years. The Sultan made a sign with his hand to the executioners to cut off the head of this man; then he said to them in Arabic: ‘and the son and the wife.’ They cut off their heads and I turned my eyes away. When I looked again, I saw their heads lying on the ground…
“I was another time with the Sultan Ghiyath-eddin when a Hindu was brought into his presence. He uttered words I did not understand, and immediately several of his followers drew their daggers. I rose hurriedly, and he said to me: ‘Where are you going?” I replied: ‘I am going to say my afternoon (4 o’clock) prayers.’ He understood my reason, smiled, and ordered the hands and feet of the idolater to be cut off. On my return I found the unfortunate swimming in his blood…”
Needless to say, this was the general character of rule of the Madurai Sultanate and Islamist rulers of the South, though Ghiyasuddin Al Damaghani ranks amongst its most depraved. The piteous condition of the Hindus in Tamil country was later immortalized in words of the Goddess of Madurai in the famous poem Maduravijayam composed by a Vijayanagar Princess.

Hindus Fight Back

The aging Hoysala Raja Veera Ballala III was a battle hardened veteran. Having ascended the throne in AD 1292, he had made his mark suppressing numerous revolts in his kingdom and fended off a Yadava invasion in AD 1303. He had also dabbled his hand in siding with one of the warring Pandya brothers of the Tamil country. But it was against the Muslim conquerors starting from Malik Kafur to Khusrau Khan to Muhammad Bin Tughlak, that he proved his real mettle as the sole torchbearer of the Southern Hindu resistance of to the Jihad of the Delhi Sultanate.
Taking advantage of the chaos in Delhi post Alauddin Khilji’s death, he had swiftly re-established his control over the Kingdom and ventured into Tamil country, building outposts setting up a strong chain of defense against invasions from the North. With deft strategic skills, he prevented a Muslim garrison being set up within his territory. He ruled from three capitals, two of them in the present Tamil country after his main capital in Dwarasamudram (Halebidu). He managed to create a strong Hindu resistance to the Islamist depredations that had ravaged the South.
After hearing about the atrocities meted out to Hindus in Madurai by Al Damaghani and troubled by the Madurai Sultanate’s repeated attacks on his territory, in AD 1342 the 80 year old King Veera Ballala III assembled a large army of over 100,000 soldiers to launch an attack on Madurai. He had one of his capitals in Kannur (nearby present day Srirangam, in Tiruchirappalli district, TN), which was strategically located towards the North of Madurai, en route to the core Hoysala territory. This was to prevent reinforcements from reaching the Madurai sultanate from the former Kakatiya regions, which had become part of the Sultanate in Delhi.
In Kannur, the Sultanate army numbered a mere 6000 of which as Ibn Batuta remarks, ‘over half of them were worthless’. This was quickly crushed by the far larger Hoysala force under Veera Ballala III. In an inexplicably stupid move, however, Al Damaghani was allowed to retreat to Madurai as Veera Ballala III made his way to the ancient city, intending to seize it and end the first Muslim state in the South for good.
The old King Veera Ballala III then gave an ultimatum to Sultan Al Damaghani to surrender, which was read out in the prayer congregation of the main mosque in Madurai. The Sultan knowing that his end was near resolved to not surrender and decided to give one last desperate attempt to fight.
Under the cover of darkness, as the Hoysala camps slept around the walls of Madurai, Al Damaghani and a small force of loyal Muslims set out and fell upon the sleeping Hoysala army. In the panic and confusion, the aged Hoysala Monarch Veera Ballala III attempted to mount a horse and flee but was captured by Al Damaghani’s nephew Nasiruddin near the gates of Madurai. This was a turning moment in the history of South India.
The elderly king was then taken to Sultan Al Damaghani. In apparent consideration for his status, the Hoysala Monarch was treated kindly by the Muslim ruler while being asked to give his riches and elephants in return for his safe release. After his wealth was extorted from him, the 80 year old Hoysala Raja Veera Ballala III, the last great Hindu ruler of the South, was murdered, his skin stuffed with straw and displayed on the gates of Madurai for the whole world to see. Thus, passed the last great torchbearer of Hindu resistance to the Islamic Jihad in the entire Indian subcontinent.
When apparently the last hope of Dharma was killed and displayed on the gates of Madurai, a new revolution was brewing on the banks of the Tungabhadra River further up North, deep inside Karnata country, where two brothers Harihara and Bukka would forever change the fate of South India and Dharmic civilization across the subcontinent.
To be continued.

Bibliography

  1. South India and Her Muhammadan Invaders – by S Krishnaswami Aiyangar, published 1921.
  2. The Delhi Sultanate: A Political and Military History – by Peter Jackson, published 1999.
  3. Tarikh i Alai – by Syed Aamir Khusrau, contemporary Moslem historian scholar at Alauddin Khilji’s court in 14th century.
  4. Tarikh-i-Firuz Shahi by Ziauddin Barani, contemporary Moslem historian scholar at Muhammad Bin Tughlak’s court in 14th century Delhi.
  5. Ibn Battuta’s chronicles of travels in Southern India, 14th century.
The article is Originally published in  blog .
Disclaimer: The facts and opinions expressed within this article are the personal opinions of the author. 

Tuesday, May 31, 2016

!! वेदोंमें हिंसा नहीं है !!, Veda prohibits cruelty




!! वेदोंमें हिंसा नहीं है !!
कहा जाता है ,वेदोंमें यज्ञके लिए पशुहिंसाकी विधि है । अतः वेदोंका मान रखनेके लिए कुछ लोग "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति !" वेदविहित हिंसाका नाम हिंसाही नहीं है ,ऐसा कहा करते हैं ! परन्तु हिंसा हिंसा ही है,फिर वह चाहे कैसी ही हो ! वेदोंकी तो यह स्पष्ट आज्ञा है -"मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि !" (किसी भी प्राणीकी हिंसा न करे ) फिर वैदिक हिंसा क्या वस्तु है ?
महाभारत अनुशासनपर्व में कहा गया है कि प्राचीन कालमें मनुष्य यज्ञ-यगादि केवल अन्नसे ही करते थे !मद्य मांस आदिकी प्रथा तो पीछे से धूर्त असुरोंने चला दी । वेदमें इन वस्तुओंका विधान नहीं है !
"श्रूयते हि पुरा कल्पे नृणां व्रीहिमय: पशु: ! येनायजन्त यज्वानः पुण्यलोकपरायणा: (महाभारत०अनु०११५/५६)
"सुरां मत्स्यान् मधु मांसमासवं कृसरौदनम् ! धूर्तै: प्रवर्तितं ह्येतन्नैतद् वेदेषु कल्पितम् !!(महाभारत०शान्ति०२६५/९)
शिक्षा,कल्प,निरुक्ति,छन्द, ज्योतिष और व्याकरण -ये षड्वेदाङ्ग हैं । ये वेदोंके साथ अङ्गाङ्गी -भावसे सम्बद्ध हैं वेदाङ्गोंमें पारंगत हुए बिना श्रुतिके गूढ़ रहस्य और प्रकृत अर्थको हृदयंगम करना सम्भव नहीं है ।
"ध्वर" शब्द का अर्थ हिंसा । जहाँ ध्वर अर्थात् हिंसा न हो ,उसी को "अध्वर " कहते हैं । यह "अध्वर" शब्द यज्ञका ही पर्याय है । अतः हिंसात्मक कृत्य कभी यज्ञ नहीं माना जा सकता ।
वैदिक यज्ञोंमें तो मांसका इतना विरोध है कि मांस जलाने वाली आग को सर्वदा त्याज्य निश्चित कर दिया गया है । प्रायः चिताग्नि ही मांस जलाने वाली होती है । जहाँ अपनी मृत्युसे मरे हुए मनुष्योंके अंत्येष्टि-संस्कारमें उपयोगकी हुई आगका भी बहिष्कार है,वहाँ पावन वेदी पर प्रतिष्ठित विशुद्ध अग्निमें अपने मारे हुए पशुके होमका विधान कैसे हो सकता है ? आज भी जब वेदी पर अग्निकी स्थापना होती है तो उसमें से थोड़ीसी आग निकालकर बाहर कर दी जाती है । इसलिए कि कहीं उसमें क्रव्याद (मांस-भक्षी या मांस जलाने वाली आग) -के परमाणु न मिल गए हों । अतएव 'क्रव्यादांशं त्यक्त्वा' (क्रव्यादका अंश निकालकर ही) होमकी विधि है । ऋग्वेदकी श्रुति प्रमाण है -
"क्रव्यादमग्निं प्रहिणोमि दूरं यज्ञराज्ञो गच्छतु रिप्रवाह: !
इहैवायमितरो जातवेदा देवेभ्यो हव्यं वहतु प्रजानन् !!(ऋक्०७/२१/९)
अर्थात् -मैं मांस खाने या जलाने वाली अग्नि को दूर हटाता हूँ ,यह पापका भार ढोनेवाली है ;अतः यमराजके घरमें जाय । इससे भिन्न जो ये दूसरे पवित्र और सर्वज्ञ अग्निदेव हैं,इनको ही यहां उपस्थित करता हूँ ! ये इस हविष्यको देवताओंके समीप पहुंचाएं ;क्योंकि ये सब देवताओंको जानने वाले हैं ।"
यजुर्वेदके अनेक मन्त्रों में भगवान् से प्रार्थनाकी गयी है कि वे हमारे पुत्रों ,पशुओं -गाय और घोड़ोंको हिंसाजनित मृत्युसे बचावें -
'मा नस्तनये मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषु: !'
'पशून् पाहि,गां मा हिंसी:,अजां मा हिंसी:,अविं मा हिंसी:, !इमं मा हिंसीर्द्विपादं पशुम् ,मा हिंसीरेकशफं पशुम्,मा हिंस्यात् सर्वा भूतानि !
पशुओंकी रक्षाकरो !''गायको न मारो!' 'बकरी को न मारो!' 'भेड़ोंको न मारो!' 'इन दो पैर वाले प्राणियोंको न मारो!' 'एक खुरवाले घोड़े-गधे आदि पशुओंको न मारो ' ' किसी भी प्राणीकी हिंसा न करो ' आदि ।
ऋग्वेद में तो यहाँ तक कहा गया है कि जो राक्षस मनुष्य,घोड़े और गायका मांस खाता हो तथा गायके दूधको चुराता लेता हो,उसका मस्तक काट डालो--
"य: पौरुषेयेण क्रविषा समङ्क्ते यो अश्व्येन पशुना यातुधानः !
यो अघ्न्याया भरति क्षीरमग्ने तेषां शीर्षाणि हरसापि वृश्च !!(ऋक्०८/४/१६)
अब प्रश्न होता है कि वेदमें यदि मांसका वाचक या पशुहिंसाका बोधक कोई शब्द ही प्रयुक्त न हुआ होता तो कोई भी कैसे उस तरहका अर्थ निकाल सकता है ? इसके उत्तरमें हम महाभारतसे एक प्रसङ्ग उद्धृत कर देना चाहते हैं । एक बार ऋषियों तथा दूसरे लोगों में "अज" शब्दके अर्थ पर विवाद हुआ । एक पक्ष कहता था 'अजेन यष्टव्यम् ' का अर्थ है 'अन्नसे यज्ञ करना चाहिए । अजका अर्थ है -उत्पत्तिरहित;अन्नका बीज ही अनादि -परम्परासे चला आ रहा है; अतः वही 'अज' का मुख्य अर्थ है ; इसकी उत्पत्तीका समय किसीको ज्ञात नहीं हैं , अतः वही 'अज' है !' दूसरा पक्ष कहता था 'अज' का अर्थ बकरा है । पहला पक्ष ऋषियोंका था ! दोनों राजा वसुके पास निर्णय कराने के लिए गए ! वसु अनेक यज्ञ कर चुका था । उसके किसी भी यज्ञमें मांस का उपयोग नहीं हुआ था । वह सदा अन्नमय यज्ञ करता था ,परन्तु म्लेच्छोंके संसर्गसे पीछे चलकर वह ऋषियोंका द्वेषी बन गया था । ऋषि उसकी बदली हुई मनोवृत्ति से परिचित न थे । वे विश्वास करते गए । राजा सहसा निर्णय न दे सका । उसने पूछा 'किसका क्या पक्ष है ' ? जब उसे पता चला ऋषि लोग 'अज' का अर्थ अन्न करते हैं ,तो उसने उनके विरोधी पक्षका ही समर्थन करते हुए कहा 'छागेनाजेन यष्टव्यम् !' असुर तो यही चाहते ही थे । वे उसके प्रचारक बन गए ; परन्तु ऋषियोंने उस मत को ग्रहण नहीं किया ; क्योंकि वह पूर्वोक्त चारों हेतुओंसे असङ्गत ठहरता है ! 'अज' शब्द का तीसरा अर्थ परमात्मा भी है तो क्या यज्ञमें परमात्माकी बलि दी जाती है ? या परमात्माको बलि समर्पित की जाती है ?
संस्कृत वाङ्मयमें अनेकार्थक शब्द बहुत हैं । 'शब्दा: कामधेनव: ' यह प्रसिद्ध है । उनसे अनन्त अर्थों का दोहन होता है । कौन सा अर्थ कहाँ लेना ठीक है ;इसका निश्चय विवेकशील विद्वान् ही कर सकते हैं । "सैंधव" शब्द के अनेक अर्थ हैं , नमक,घोडा ,नदी और समुद्र होता है -
कोई यात्रा पर जा रहा हो और उसकी सवारीके लिए 'सैंधव'लाने का आदेश दे तो उस समय नमक देने वाला मनुष्य मुर्ख ही समझा जाता है , वहाँ सिंधु देशीय अश्व ही लाना उचित होगा ! इसी प्रकार भोजन में 'सैंधव ' डालने का आदेश देने पर नमक ही दिया जाएगा न कि अश्व काटके भोजन में डाल दिया जाए !
इसी प्रकार वेदके यज्ञ प्रकरणमें आये हुए शब्दका वहाँके सात्विक वातावरणके अनुरूप ही अर्थ ठीक हो सकता है । जहाँ दवा बनाने के लिए 'प्रस्थं कुमारिकामांसम् 'की आज्ञा है ; वहाँ सेरभर घीकुआँरका गुदा ही डाला जाएगा । कुमारी कन्या का एक सेर मांस डालने की तो कोई पिशाच ही सोच सकता है ।
यज्ञमें पशु बांधनेकी बात आती है । प्रश्न होता है ,वह पशु क्या है ? इसका उत्तर शतपथ-ब्राह्मणके एक प्रश्नोत्तर से स्पष्ट हो जाता है -'कतमः प्रजापति:? प्रजापति अर्थात् प्रजाका पालन करने वाला कौन है ? उत्तर मिलता है -'पशुरिति'-पशु ही प्रजापालक है । तात्पर्य यह कि जो पदार्थ या शक्तियाँ प्रजाका पोषण करने वाली हैं ; उन्हें पशु कहा गया है । इसीलिए भिन्न-भिन्न प्रकारके पशुओंकी यज्ञ में चर्चा की गयी है । 'नृणां व्रीहिमयः पशु:' - मनुष्योंके यज्ञमें अन्नमय पशुका उपयोग होता आया है । 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवा: ' देवताओंने यज्ञसे ही यज्ञ किया था ; उनका यज्ञमय ही पशु था !
बिना वेदाङ्गोंके वेद मन्त्र का सही अर्थ नही किया जा सकता और वेदाङ्ग में
निरुक्तिकार यास्क ने इस मन्त्र का अर्थ करते हुए लिखा है -
'अग्नि: पशुरासीत्तं देवा अलभन्त '
'अग्नि ही पशु था ,उसीको देवता प्राप्त हुए । ' इतना ही नहीं अग्नि,वायु और सूर्य को भी 'पशु 'नाम दिया गया है -
"अग्नि: पशुरासीत्तेनायजन्त ! वायु: पशुरासीत्तेनायजन्त ! सूर्यः पशुरासीत्तेनायजन्त !"
'अबध्नन् पुरुषं पशुम् 'इस मन्त्र में पुरुषको ही पशु कहा गया है । वहाँ सात परिधि और इक्कीस समिधाओंकी चर्चा है -
"सप्तास्यासन् परिधयस्त्रि:सप्त समिधः कृता: ।
उसके दो अर्थ किए जाते हैं - शरीरगत सात धातु ही सात परिध हैं और पाँच ज्ञानेन्द्रिय ,पाँच कर्मेन्द्रिय,दस प्राण और एक मन -ये इक्कीस समिधाएँ हैं ,इनको लेकर 'आत्मा'रूपी पुरुषसे देवताओंने 'शरीर यज्ञ'किया । इन सबके सहयोगसे ही मानव शरीरकी सम्यक् सृष्टि हुई ! दूसरा अर्थ सङ्गीत -यज्ञपरक होता है । इसमें सात स्वर ही सात परिधि और इक्कीस मूर्छनाऐं ही समिधा हैं । नाद ही वहाँ पशु है । इनसे सङ्गीत यज्ञ सम्पन्न होता है ।
इसी प्रकार यदि विवेकको साथ रखते हुए वेदार्थपर विचार किया जायेगा तो वेद भगवान् ही ऐसी सामग्री प्रस्तुत कर देंगेव,जिससे सत्य अर्थका भान हो जाय । जहाँ द्वय अर्थक शब्दोंके कारण भ्रम होनेकी सम्भावना हो सकती है , वहाँ बहुतेरे स्थलोंपर स्वयं वेदने ही अर्थका स्पष्टीकरण कर दिया -
"धाना धेनुरभवद् वत्सोऽस्यास्तिलः !"(अथर्ववेद १८/४/३२)
अर्थात् -'धान ही धेनु (गाय) है और तिल ही उसका बछड़ा हुआ है । '
"अश्वा: कणा गावस्ताण्डुला मशकास्तुषा: । श्याममयोऽस्य मांसानि लोहितमस्य लोहितम् !! (अथर्ववेद ११/३/५-७)
अर्थात् 'चावलके कण ही अश्व हैं । चावल ही गौ हैं । भूसी ही मशक है । चावलोंका जो श्यामभाग है ,वह मांस है और लालभाग ही रुधिर है !'
इन सब प्रमाणोंसे ये सिद्ध है कि हवन-प्रकरणमें जहाँ कहीं भी अश्व ,गौ,अजा ,मांस ,अस्थि और मज्जा आदि शब्द आते हैं ,उनसे अन्नका ही ग्रहण होता है ; पशुओं और उनके अवयवोंका नहीं । 'शतपथ ब्राह्मण'आदि में भी ऐसे स्थलोंका स्पष्टीकरण किया गया है -
" यदा पिष्टान्यथ लोमानि भवन्ति । यदाप आनयत्यथ त्वग् भवति । यदा स यौत्यथ मांसं भवति । संतत इव हि तर्हि भवति । संततमिव हि मांसम् । यदा शृतोऽथास्थि भवति । दारुणमित्यस्थि । अथ यदुद्वायसन्नभिधारयति तं मज्जानं ददाति । एषा सा संपद् यदाहुः पाक्तः पशुरिति !" (शतपथ ब्राह्मण )
- 'केवल पीसा हुआ सुखा आटा 'लोम' है ! पानी मिलानेपर वह 'चर्म' कहलाता है । गूंथने पर उसकी 'मांस' संज्ञा होती है । तपाने पर उसीको 'अस्थि ' कहते हैं । घी डालने पर इसीका 'मज्जा' नाम होता है । इस प्रकार पककर जो पदार्थ बनता है,उसका नाम 'पाक्तःपशु 'होता है ।
ऐतरेय ब्राह्मणमें भी इसी तरहका स्पष्टीकरण देखा जाता है -' स वा एष पशुरेवालभ्यते यतपुरोडाशस्तस्य । यानि किंशारूपाणि तानि रोमाणि । ये तुषा: सा त्वक् । ये फलीकरणास्तद् असृग् यत्पिष्टं त्नमांसम् । एष पशूनां मेधेन यजते ।' इस मन्त्रमें पुरोडाशके अंतर्गत जो अन्नके दाने हैं ,उन्हें अन्नमय पशुका रोम ,भूसीको त्वचा ,टुकड़ोंको सींग और आटेको मांस नाम दिया गया है । '
अथर्ववेदके अनुसार व्रीहि और यव क्रमशः प्राण और अपान हैं ।
"प्राणापानौ व्रीहियवौ अनड्वान् प्राण उच्यते ! (अर्थववेद !११/४/१३)
उपरोक्त मन्त्रोंसे सिद्ध है कि वैदिक यज्ञमें पशुमांस से होम नहीं किया जाता है अपितु अन्नमय पुरोडाश का नाम ही मांस और पशु है ।
मीमांसा सूत्रमें तो पशुहिंसा और मांस-पाकका स्पष्टतः निषेध मिलता है -
"मांसपाकप्रतिषेधश्च तद्वत् (१२/२/२)
: 'यज्ञमें जैसे पशुहिंसाका निषेध है ,उसी प्रकार मांस पाकका भी निषेध है !'
"धेनुवच्च अश्वदक्षिणा"(मीमांसा ०१०/३/६५)
'गौकी भाँती घोडा भी यज्ञमें दक्षिणाके लिए ही उपयोग में लाया जाता है । '
"अपि वा दानमात्रं स्याद् भक्षशब्दानभिसम्बन्धनात् !"(मीमांसा०१०/७/१५)
'अथवा वह केवल दान मात्रके लिए ही है ; क्योंकि गौकी भाँती अश्व के लिए भी कहीं 'भक्षण' शब्द नहीं आया है !' (तात्पर्य यह है कि मनुष्योंके भोजनमें केवल अन्नका ही उपयोग होताहै ,गौ और अश्व आदि का नहीं )
आश्वलायनसूत्रमें स्पष्ट कहा गया है कि हवन सामग्री में मांस वर्जित होती है -'होमियं च मांसवर्जम् !'
कात्यायन का मत है -
'आहवनीये मांसप्रतिषेध: !'
उपर्युक्त प्रमाणोंसे सिद्ध है कि यज्ञमें मांसका उपयोग कभी शिष्टपुरुषों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ ।
कुछ लोगोंने ये भ्रम फैलाया कि वैदिक ऋषि अतिथिको गौ मांस खिलाते थे । 'गोघ्नोऽतिथि: ' मन्त्र का उदाहरण देते हैं ।
इसका अर्थ भ्रमवश ऐसा मानने लगे हैं कि अतिथिके किए गाय मारी जाती थी ;परन्तु ऐसी नहीं है । 'हन्' धातु का प्रयोग हिंसा और गति अर्थ में होता है । गति के भी ज्ञान ,गमन और प्राप्ति आदि अनेक अर्थ हैं । इनमेंसे प्राप्ति अर्थको लेकर ही यहाँ 'गोघ्न' का प्रयोग होता है । वह अतिथि जिसको गौकी प्राप्ति हो-जिसे गाय दी जाय वह 'गोघ्न' कहलाता है । व्याकरणके आदि आचार्य महर्षि पाणिनिने अपने एक सूत्रद्वारा इसी अभिप्रायकी पुष्टिकी है ! वह सूत्र है -'दाशगोघ्नौ सम्प्रदाने' (३/४/७३)
इसके द्वारा सम्प्रदाने अर्थ में 'दाश' और 'गोघ्न' शब्द सिद्ध होते हैं । यदि यहाँ चतुर्थीमात्र ही अभीष्ट होता -अर्थात् अतिथि के उद्देश्यसे गाय को मारना ही सूचित करना होता तो 'सम्प्रदाने ' न कहकर 'तस्मै' इस विभक्तिप्रतिरुपक अव्ययका ही प्रयोग कर देते ; परन्तु ऐसा न करके 'सम्प्रदाने' लिखा है ; इससे यहाँ दानार्थकी अभिव्यक्ति सूचित होती है । अतः जिसे गाय दी जाए ,उस अतिथि को ही 'गोघ्न' कहते हैं । पूर्वकाल में अतिथि को गौ दान करने की परिपाठी थी । आज भी प्राचीन परम्परा के अनुसार विवाहमें घरमें पधारे हुए वर को आतिथ्यके लिए गोदान की जाती है ।
डॉ बी०आर० अम्बेडकर ने अपकी पुस्तक 'अछूत कौन ?और वे अछूत कैसे बने ? में लिखते हैं हिन्दू जिनमें ब्राह्मण और गैरब्रह्मण दोनों ही आते हैं गाय ,बैल ,बछड़े और सांडके मांस को खाते थे । मधुपर्क,गोघ्नोऽतिथि शब्दोंसे यही सिद्ध करते हैं कि अतिथि को गौमांस दिया जाता था ।
ऊपर गोघ्नोऽतिथि का अर्थ कर चुका हूँ -जिस अतिथि को गाय प्रदान की जाय ।
अब मधुपर्क - तीन भाग दही,एक भाग शहद और एक भाग घीको काँसेके पात्रमें रखनेपर उसकी 'मधुपर्क' संज्ञा होती है । मधुपर्क नाम ही मधुर पदार्थोंका सम्पर्क सूचित करता है । इसमें गौमांस की तो गन्ध भी नहीं है ।
डॉ अम्बेडकरने और कम्युनिस्ट इतिहासकारोंने वेदोंमें "औक्ष" और "ऋषभ" शब्द देखकर गौ और सांडके मांसकी वीभत्स कल्पना कर ली । जबकि ऊपर ये बता चुका हूँ कि वेदोंमें किसी भी तरह के मांस खाने का उल्लेख नहीं ।
आयुर्वेदमें जो मांस प्रधान औषधियां हैं ,उन्हें द्विजोंने कभी स्वीकार नहीं किया ; अतएव चरकने लिखा है -द्विजोंकी पुष्टिके लिए तो मिश्रीयुक्त घी और दूध ही औषधि है !
"द्विजानामोषधीसिद्धिं घृतं मांसविवृद्धये । सितायुक्तं प्रदातव्यं गव्येन पयसा भृशम् !! (चरक चि०८/१४९)
मांस तो यक्ष,राक्षस और पिशाचोंका भोजन है । (यक्षरसः पिशाचान्नम् ')
वैदिक ग्रन्थों में बहुत से पशु-पक्षियोंके नाम वाले औषध देखे जाते हैं । उदाहरण के लिए वृषभ( ऋषभकन्द),श्वान (ग्रन्थिपर्ण),मार्जार (चित्ता) ,अश्व (अश्वगन्धा),अज (अजमोदा) ,सर्प (सर्पगन्धा ),मयूरक (अपामार्ग),मयुरी(अजमोदा),कुक्कुटी(शाल्मली),मेष(जीव शाक),नकुल(नाकुली बूटी) ,गौ (गौलोमी),खर (खरपर्णिनी ),काक(काकमाची),वाराह(वाराहीकन्द),महिष (गुग्गुल) आदि शब्द दृष्टव्य हैं ।
वेदोंमें जहाँ कहीं भी 'औक्षण' या 'ऋषभ ' शब्द आया है डॉ अम्बेडकरने सांड या बैल अर्थ किया है जो कि असङ्गत है ।
"औक्ष" और "ऋषभक" नामकी औषधि हैं । जैसे "प्रस्थं कुमारिकामांसम् ' के अनुसार एक सेर कुमारी कन्या के मांस की कल्पना कर ली जाय । उसी प्रकार बैलकी कल्पना कर ली गयी । ये तो अवैदिक असुरोंके दिमागकी ही उपज हो सकती है । "औक्षण" शब्द का दूसरा अर्थ होता है उबला हुआ अन्न !
उदाहरणके लिए बृहदारण्यकोपनिषद्के (६/४/१८)वें मन्त्रपर दृष्टिपात करें । इस मन्त्र में आये 'औक्षण' और 'आर्षभ' शब्द और मांसौदन शब्द का अर्थ गौ-बछड़े का मांस अर्थ किया है जबकि ये दोनों ही औषधियां हैं ।
ओदन कहते हैं खिचड़ीको और इस मन्त्र में 'औक्षण' और 'आर्षभ' औषधि मिलाकर खिचड़ी खाने का उल्लेख है । प्रायः मूँग या उड़दकी दाल मिलाकर ही खिचड़ी बनती है । मूँगकी खिचड़ी को 'मुद्गौड़न' और उड़दमिश्रित खिचड़ीको 'माषौदन' कहते हैं । यहाँ मांसौदन का अर्थ 'औक्षण' और 'आर्षभ' औषधिके गूदेके मिश्रण को कहते हैं ।
"अपक्वे चूतफले स्नाय्वस्थिमज्जान: सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते पक्के त्वाविर्भूता उपलभ्यन्ते "
अर्थात् - 'आमके कच्चे फलमें सूक्ष्म होनेके कारण स्नायु,हड्डी और मज्जा नहीं दिखायी देतीं ; परन्तु पकने पर ये सब प्रकट हो जाती हैं । '
- यह सबको जानना चाहिए फलोंके गूदेको 'मांस' छाल को 'चर्म' गुठली को 'अस्थि' मेदाको 'मेद' और रेशाको 'स्नायु' कहते हैं ।
इसलिए उपरोक्त मन्त्र का अर्थ होगा -
"अथ य इच्छेत् पुत्रो मे पण्डितो विगीत: समतिंगम: शुश्रूषितां वाचं भाषिता जायते सर्वान् वेदाननुब्रवीत सर्वमायुरियादिति मा ँ् सौदनं पाचयित्वा संर्पिष्मन्तमश्नीयातामीश्वरौ जनयित वा औक्षण वार्षभेण वा ।" (बृहदारण्यकोपनिषद् ६/४/१८)
अर्थात् - जो पुरुष यह चाहता हो मेरा पुत्र जगत् में विख्यात पण्डित हो और विद्वानोंकी सभामें निर्भीक होकर प्रगल्भतापूर्वक संस्कृत वाणी बोलने वाला हो,वेद-शास्त्रोंको पढ़ने वाला तथा वेदके रहस्योंको जानने वाला हो, पूर्णायु -सौ वर्ष तक जीनेवाला हो,ऐसी सन्तान चाहने वाले माता-पिताको चाहिए कि 'उक्षा' (सोम औषधि) और 'ऋषभक' औषधि के गूदेको घृतसिक्त करके गौके दुग्धसे खीर पकायें और उसका सेवन करें । ऐसा करने से बलवान् और मेधावी पुत्र उत्पन्न होता है !'
यहाँ गौमांस या बछड़े की मांस की वीभत्स कल्पना करना तो असुरोंकी ही बुद्धिको ग्राह्य होगा ।
जब वेदोंने गौ माता को 'अघ्न्या' (जिसका वध न किया जाए) कहा है फिर वेद भगवान् गौहत्या का आदेश कैसे दे सकते हैं । जिस प्रकार गौ माता 'अघ्न्या' हैं उसी प्रकार वृषभ भी अघ्न्या हैं ।
"गवां यः पतिरघन्य:"(अथर्ववेद ९/४/१७)
'बैल गाय का पति 'अघ्न्या' हैं ।
"अघ्न्यानां नः पोषे कृणोतु "(अथर्व०९/४/२)
"अघ्न्या" की व्याख्या -
जो न तो स्वयं किसीको कष्ट पहुंचाती है और न जो अन्य किसीके द्वारा कभी मारी पीटी या क्लेश पहुंचाई जाने योग्य है अर्थात् पूज्या ,वन्द्या और श्रद्धेया है -इस अर्थ में उज्ज्वलदत्त आदिने 'न हन्यते कैर्वापि','न वा हन्ति दातारम् ','ग्रहितारं वा ' इस व्युत्पत्तिद्वारा 'अघ्न्यादयश्च ' (उणादि ४/११२) सूत्रकी व्याख्या में यक् प्रत्ययसे इस 'अघ्न्या' पदकी साधुता स्वीकार की है ।
-'यक: कित्वात् ','गमहन०इत्युपधालोपे 'हो हन्ते: 'इति कुत्वेन हस्य घ: !
'निरुक्तिमें' भी श्रीयास्कने (११/४३में) स्वयं ही अहन्तव्या भवतीत्यघघ्नीति वा अघ्न्या ' कहकर इसकी व्याख्या लिखी है । निरुक्त निघण्टु २/११/१ की व्यख्यामें देवराज यज्वाने आगे लिखा है -
"अघस्य दुर्भिक्षादेर्हन्त्री वा अहन्तव्या वेति अघ्न्या"
महाभारत शांतिपर्व (२६२/४७)में भीष्मने सुस्पष्ट रूपसे व्युत्प्त्ति करते हुए कहा था -- 'श्रुतियों में गौओंको अघ्न्या (अवध्य) कहा गया है ,फिर कौन उन्हें मारने का विचार कर करेगा ? जो पुरुष गाय और बैलोंको मारता है ,वह महान् पाप करता है -
"अघ्न्या इति गवां नाम क एता हन्तुमर्हति ।
महाच्चकाराकुशलं वृषं गां वाऽऽलभेत् तु यः !!
उपरोक्त विवरण से ज्ञात होता हैं वेदोंमें मांस भक्षण और गौ मांस का मिथ्या अरोप लगाया है जबकि वेद -
"मा हिंस्यात् सर्वाभूतानि " की घोषणा करते हैं ।
डॉ अम्बेडकरने बौध्द ग्रन्थ 'संयुक्त निकाय (१११-१-९)
का प्रमाण देते हुए कहा है
भगवान् बुद्धने कौशल नरेश पसेंडी के यज्ञसे पांच सौ सांड ,पांच सौ बछड़े मुक्त कराये थे इससे उस समय यज्ञमें गौहत्या होती थी ।'
इस प्रश्नका उत्तर है गौतम बुद्धका निर्वाण पांचवी शती ई पू में हुआ था उनके निर्वाणके ५००-६०० वर्ष बाद बौद्ध ग्रन्थ लिखे गए तो उन ग्रन्थोंमें बुद्धकाल की घटनाकी कितनी सत्यता है ? आप स्वयं विचार कीजिए । बौद्ध जो कि हिन्दू धर्म से द्वेष रखते थे । ये प्रयत्न सदैव करते रहे कि हिंदुओंको निकृष्ट और बौद्धोंको श्रेष्ठ सिद्ध किया जा सके । तथाकथिक महान् अशोक को बौद्धोंने महिमामण्डित किया उसी अशोक को बौद्धोंने चण्डाशोक कहा था जब वो वैदिक धर्म का पालन करता था तब वो दुष्ट राजा था ( चण्ड -खूंखार) । और जब अशोक बौद्ध बन गया तो वो चण्डाशोक से धर्माशोक बन गया ( धर्म का स्वरूप ) ! जबकि अशोकवर्धन मौर्य्य और धर्माशोक दोनों ही अलग अलग राजा थे और दोनों समकालीन थे । अशोकवर्धन मगध सम्राट था तो धर्माशोक कश्मीर का गोनन्द वंश का राजा था ।
ये विवरण बौद्धोंका वैदिक धर्मके द्वेषका प्रमाण है ।
अब बात करते हैं यज्ञ की तो सांडों और बैलोंकी बलि उतनी ही सत्य है जितनी सत्य सीता जी दशरथकी पुत्री और रामकी बहन ।
भगवान् बुद्ध कहते थे - वो ही दशरथ पुत्र श्रीराम थे और यशोधरा देवी ही सीता थीं ,दशरथ ही शुद्धोदन थे और माया देवी ही कौसल्या थीं ।
गौतम बुद्धके निर्वाणके सैकड़ों वर्ष बाद ( कम्युनिस्ट इतिहासकार ४८३ ई पू मानते हैं और एथेंसके इतिहाससे ज्ञात होता है १८०७ ई पू में निर्वाण हुआ ) हिंदुओंसे द्वेषके कारण बौद्धोंने "दशरथ जातक" , "अनामकम जातक और "श्यामजातक" ग्रन्थोंकी रचना की ।जो रामायण के विकृत रूप हैं इन बौद्ध ग्रन्थों में जम्बूद्वीप के राजा दशरथ के तीन सन्तान बताईं गयीं हैं राम (लामन पण्डित ) लक्ष्मण (लक्खन पण्डित) और सीता । तीनो बहन भाई थे किन्तु रामने अपनी बहन सीता से विवाह किया । इस तरह के विकृत ग्रन्थ सिद्ध करते हैं कि बौद्ध हिंदुओं से कितना द्वेष इ
रखते थे ।
ये सत्य है बुद्धकाल में हिंसक यज्ञ होते थे ,ये भी सत्य है कि बुद्ध ही श्रीराम थे ।
किन्तु उन यज्ञोंमें सांड और बछड़े की बलि दी जाती थी ये उसी प्रकार झूठ है द्वेष मात्र है जितना झूठ और द्वेष ये कि सीता दशरथकी पुत्री थी और श्रीरामकी बहन थीं ।
वरुण पाण्डेय
कृष्णानुरागी वरुण

Idol worship is always allowed in Vedas.



मूर्ति पूजा का विरोध क्यों ? जिस प्रकार मनुष्य का शरीर पञ्चतत्त्व से निर्मित होता है ऐसे ही दारु-धातुमय विग्रह भगवान् का शरीर होता है । मूर्ति पूजा की निन्दा करने वाले वास्तवमें मूर्तिका अर्थ केवल पाषाण ही समझते हैं , किन्तु मूर्ति का अर्थ है भगवान् का आकार या स्वरूप । रंग रूप आकार रहित भगवान् का अर्चन कैसे करें ? इसीलिए मूर्तिमय भगवान् का अर्चन किया जाता है । जैसे माता-पिता गुरुजनोंकी सेवा करना , यद्यपि माता-पिता अस्थि-चर्मसे निर्मित शरीर नहीं हैं , शरीरके अंदर... रहने वाले भगवदंश आत्मा ही हैं तथापि आत्मा की सेवा नही की जा सकती ,शरीरके द्वारा ही माता पिताकी सेवा की जाती है । अस्थि-चर्म निर्मित शरीरके द्वारा माता-पिताकी सेवाकी जाती है फिर भी ये नहीं कहते कि अस्थि-चर्मकी सेवा कर रहे हैं इसी प्रकार भगवान् का अर्चन श्रीविग्रहके द्वारा किया जाता है क्योंकि देव परोक्षप्रिय होते हैं -- "परोक्षप्रिया इव हि देवा: " !(ऐतरेय० १/३/१४) अब यदि कहो कि हम तो केवल यज्ञ किया करते हैं ,मूर्ति पूजा नहीं करते तब तो अज्ञानता ही है सुनिए - मूर्तिके द्वारा भगवान् का अर्चन कैसे करते हैं ? दारु-धातु-मृण्मय श्रीविग्रहकी षोड्शउपचारों द्वारा (धूप-दीप-नैवेद्य आदि) भगवद् अर्चन किया जाता है जिसे आप मूर्ति पूजा कहते हैं अब यज्ञके द्वारा यजन सुनिए - १०८०० इष्टकाओं,मृण्मयसे निर्मित यज्ञकुण्डमें समिधा द्वारा दूध ,दही ,घी ,सोमलता ,यवागू ,भात ,कच्चे चावल ,फल और जल इत्यादि से किया जाता है । अब दोनों ही पूजाओंमें क्या अंतर रहा ? इष्टकाओं-मृण्मय यज्ञकुण्डसे पूजन करना क्या मूर्ति पूजा नहीं है? भगवान् ने सृष्टिके समय यज्ञके रूप में अपनी मूर्तिकी पूजा की स्थापना की थी -- " अथैनमात्मान: प्रतिमामसृजत यद् यज्ञम् ,तस्मादाहु: प्रजापतिर्यज्ञ इत्यात्मनो ह्येनं प्रतिमासृजत !! (शतपथ ब्राह्मण ११/१/८/३) प्रजापति परमात्माने अपनी प्रतिमा (मूर्ति)के रूपमें सर्वप्रथम यज्ञको उतपन्न किया । अतः यज्ञ साक्षाद् भगवान् का स्वरूप हैं ।। निश्चित ही मूर्तिपूजा है ! हिन्दू यज्ञके द्वारा ,श्रीविग्रह के द्वारा सर्वशक्तिमान ईश्वरकी आराधना करता है न कि यज्ञ-मूर्तिकी ।



अन्धन्तम: प्रवशन्ति येऽसंभूतिमुपासते ! ततो भूय ऽ इव ते तमो यऽउ संभूत्या ँ् रताः !!( शुक्ल यजुर्वेद ४०/९) अर्थात्
 जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति ) की उपासना करते हैं ,वे घोर अंधकारमें प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म) में रत हैं ,वे मानो उनसे भी अधिक अंधकारमें प्रवेश करते हैं ।
।" यहाँ श्रुति भगवती सम्भूतिकी(कार्य ब्रह्म -पृथ्वी-पाषाणादि) उपासना करने का फल अंधकारमय बता रही हैं


अब अगला मन्त्र देखिए -
  "सम्भूतिं च विनाशं च यस्यद्वेदोभय ँ् सह ! विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्यामृतमश्नुते !!( शुक्ल यजुर्वेद ४०/११) अर्थात् -जो असम्भूति और कार्यब्रह्म( पृथ्वी-पाषाणादि) इन दोनोंको साथ साथ अर्थात् अव्यक्त प्रकृति और पृथ्वी-पाषाणादिको ब्रह्मही जानता है,वह कार्यब्रह्म (पृथ्वी-पाषाणादि) की उपासनासे मृत्युको पार करके अर्थात् जन्म-मृत्युके चक्रसे छूटकर असम्भूतिके द्वारा अर्थात् अव्यक्त प्रकृतिकेलय द्वारा अमृत्व प्राप्त कर लेता है ।
अर्थात् जगत् के कारण रूप परब्रह्मको और नाशवान् प्रकृति-शरीर आदि को एक ही जानता है वो मुक्त हो जाता है ।"
      ये श्रुति स्पष्ट कहती है - "ईशा वास्यमिद ँ् सर्वं यत्किन्च जगत्यां जगत् ! (शुक्ल यजुर्वेद ४०/१) अर्थात् - इस सृष्टिमें जो कुछ प्रत्यक्ष है ,जड़ अथवा चेतन है तथा प्राणी ,जीव, पर्वत ,समुद्र ,नदियां और भूमि हैं,वे सब परमात्माके द्वारा ही आच्छादित हैं !" जब सब कुछ परमात्माके द्वारा ही आच्छादित है तब प्रकृति-जड़ पाषाण-शरीरादि की उपासना निषेध क्यों होगी ? उसका फल अंधकारमय क्यों होगा ?
 अब यदि दयानन्द उपरोक्त मन्त्र ४०/९ में पृथ्वी-पाषाणादिकी पूजाको अंधकारमय ही मानते हैं तब ये वेद मन्त्र भी देखिए -
  "परि द्यावापृथिवी सद्यऽइत्वा परि लोकात् परि दिशः परि स्वः ! ऋतस्य तन्तुं विततं विचृत्य तदपश्यवत्तदभत्तदासीत !! (शुक्ल यजुर्वेद ३२/१२)
 अर्थात् - जो द्यावापृथ्वी को समस्त लोकों और दिशाओं को ब्रह्म मानते हुए स्वर्ग की परिक्रमा करते हैं तथा यज्ञ-कर्मको अनुष्ठानादि से संपन्न करके ब्रह्मको साक्षाद् रूप से देखते हैं ,वे अज्ञान से छूटकर उसी ब्रह्ममें एकाकार हो जाते हैं !" इस उपरोक्त यजुर्वेदके मन्त्र में पृथ्वी-स्वर्गादि समस्त चराचर जगत् को ब्रह्म मानकर परिक्रमा आदि उपासना करता है और जगत् को ब्रह्म ही मानता है जड़ नहीं वो ब्रह्ममें लीन हो जाता है ये स्पष्ट हो जाता है .........
मूर्ति पूजा प्रतिपादन - सत्यार्थ प्रकाश में दयानन्द सरस्वतीने शुक्ल यजुर्वेदके निम्न मन्त्रसे मूर्ति पूजा का निषेध किया है किन्तु ये बहुत ही भ्रामक है - दयानन्दका मन्त्र भाष्य - "अन्धतम: प्र विशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते ! ततो भूयऽइव ते तमो यऽउ सम्भूत्या ँ् रताः !! ( शुक्ल यजुर्वेद ४०/९) अर्थात् - जो 'असम्भूति ' अर्थात् अनुत्पन्न प्रकृति कारण की , ब्रह्मके स्थान में उपासना करते हैं ,वे अंधकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागरमें डूबते हैं । और 'सम्भूति' जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथ्वी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्मके स्थान पर करते हैं ,वे अंधकार से भी अधिक अंधकार अर्थात् महामूर्ख चिरकाल घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं !"जबकि इस मन्त्रमें मूर्ति पूजाका कहीं भी विरोध नही है .
 अब सही अर्थ देखिए -"अंध मूर्ति पूजा प्रतिपादन । सत्यार्थ प्रकाश एकादश समुल्लास पृष्ठ ३७७-३७८ में स्वामी दयानन्द ने - "न तस्य प्रतिमाऽअस्ति !!(यजुर्वेद ३२/३ अर्थात् - जो सब जगत् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा ,परिमाण ,सादृश्य वा मूर्ति नही है !" ऐसा अर्थ करके मूर्ति पूजा का निषेध माना है ।
किन्तु इस मन्त्र का अब सम्यक् अर्थ करते हैं - " न तस्य प्रतिमाऽअस्ति यस्य नाम महद्यशः । हिरण्यगर्भऽइत्येष मा मा हि ँ् सादित्येषा यस्मान्न जातऽइत्येष: !! (शुक्ल यजुर्वेद ३२/३) अर्थात् - उस परमात्म स्वरूप पुरुष का कोई आकार नहीं है । उसका यशऔर नाम ही महान् है । "हिरण्यगर्भ" ,"यस्मान्न जातः ", और "मा मा हिंसित् " आदि मन्त्रों में उसकी महिमा का वर्णन हुआ है । " इस मन्त्र में कहा गया है यद्यपि उस परमात्मा का कोई आकार-स्वरूप या मूरत नहीं है तथापि उन महान् परमात्माका हिरण्यगर्भ आदि मन्त्रों में वर्णित है अर्थात् वो परमात्मा सृष्टि के आदि में आकार -स्वरूप रहित रहते हुए भी सर्गके समय स्वयं ही हिरण्यगर्भ ,विराटपुरुष ,प्रजापति और संवत्सर के रूप में मूर्तिमान् होता है । "संवत्सरे हि प्रजापतिरजायत । स इदं हिरण्यमाण्डं व्यसृजत् " ! ये विराट पुरुष या हिरण्यगर्भ ही इस परमात्माकी प्रथम मूर्ति है !
"संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वां रात्र्युपासते । सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्योषेण सं सृज " (अथर्ववेद ३/१०/३) अर्थात् - हे रात्रि ! संवत्सर (प्रजापति -परमात्मा ) की प्रतिमा (मूर्ति) जिस तेरी हम उपासना करते हैं ,वह तू प्रतिमा हमारी प्रजाको धान-पुष्टि आदिसे संयुक्त कर " की उक्ति से परमात्मा के साकार स्वरूप होने ,उनकी मूर्तिकी उपासना का प्रतिपादन किया गया है । भगवद्गीता में भी भगवान् कहते हैं - " मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना "(भगवद्गीता ९/४) । इन सब प्रमाणों से सिद्ध है शुक्ल यजुर्वेद का उपर्युक्त मन्त्र "न तस्य प्रतिमाऽअस्ति०"३२/३ में मूर्ति पूजा का निषेध नहीं है..
साभार-: कृष्णानुरागी वरुण

Sunday, May 29, 2016

A 40,000 YEAR OLD CAVE PAINTING!! PROOF OF A CIVILISATION!

A 40,000 YEAR OLD CAVE PAINTING!!
PROOF OF A CIVILISATION!

This is said to be a 40,000-year-old cave painting seen on a white silica sandstone rock shelter depicting existence of human civilization is seen in Banda district 800 kilometers(500 miles) southeast of New Delhi, India, Sunday, Oct. 27, 2002. The painting shows hunting by cave men in Paleolithic age. These caves were discovered recently. (AP Photo/Shekhar Srivastava) Notice the horse with rider.

Indonesian cave art 'raises questions about early mankind': 40,000-year-old paintings are the oldest ever found in Asia

  • Cave art dating back 40,000 years has been found in Sulawesi, Indonesia
  • It includes animal drawings and hand stencils that were drawn onto limestone cave sites in the south west of the country
  • Artwork is almost as old as those found in Europe
  • This raises questions about early man and spread of art in prehistoric times
  • The Indonesian art - which has been radiocarbon-dated to 40,000 years ago - was discovered by a team of Australian and Indonesian archaeologists
  • World’s oldest cave art is in El Castillo cave, Spain, and is 40,800 years old 

Cave paintings dating back almost 40,000 years have been discovered in Sulawesi, Indonesia.
The artwork includes animal drawings and hand stencils, and each was drawn onto limestone cave sites in the south west of the country.
The artwork is almost as old as those found in Europe, which experts claim raises questions about early mankind and how art developed globally in prehistoric times.


smithsonianmag.com
dailymail
bbc