Tuesday, January 7, 2014

हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

 हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

Photo: ^ हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

पंजाब एवं समस्त उत्तर भारत में सिखों का झंडा गाड़ने वालों और कई अंग्रेज अधिकारियों को दाँतों तले उंगलियां चबाने को मजबूर करने वाले परम-वीर और महान देश भक्त महाराजा रणजीत सिंह जी की १७४वी पुण्य-तिथि पर कृतग्य राष्ट्र को सत्-सत् नमन..

..महा-व्यक्तित्वों के धनी इस देश भारत में इतने वीर-वीरांगनाएं जन्मीं हैं कि गिनती करते-करते कई वर्ष भी बीत जाएँ तो भी कम हैं...

आज इसी कड़ी में एक ऐसी महा-वीर का जीवन आपके सामने प्रस्तुत है जिन्हें पंजाब और उत्तर भारत का 'महाराणा ' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी......आज पढते हैं उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह जी के बारे में जिनकी वीरता के कारण अंग्रेजों को दाँतों तले उंगलियां चबाने मजबूर होना पढ़ा था...

...निवेदन है कि अगर आपको उनका जीवन और उनके देशभक्ति के कार्य पसंद आये तो अपने घर के किसी छोटे बच्चे को भी उनकी यह जीवनी बताएं...जिससे कि आपके बच्चों का जीवन शाहरुख-सलमान-धोनी-सचिन नाम के राक्षसों के साये में सदा के लिए देशद्रोह के कार्य में लग जाने न पाए...

महाराणा रणजीत सिंह को एक उपनाम 'शेरे पंजाब' के नाम से भी जाना जाता था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, 'बदरूख़ाँ' या 'गुजरांवाला', भारत में हुआ था। रणजीत सिंह पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे। रणजीत सिंह सिक्खों के बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में रावी नदी एवं चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था।

रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रिया-कलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की।

1798 - 1799 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक 'जमानशाह' ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक फ्राँस का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव भारत पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, ईरान व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। 25 अप्रैल, 1809 को 'चार्ल्स मैटकॉफ़' और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य 'अमृतसर की सन्धि' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी के पूर्वी तट के क्षेत्र अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गये। 

चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और ईरान के इंग्लैण्ड से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।

1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखा से सहायता मांगी और 'अमर सिंह थापा' के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। दीवान मोहकम चन्द के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को काबुल से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उसे कोहिनूर हीरा भेंट किया। रणजीत सिंह ने सिन्ध के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में पेशावर जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में मुल्तान एवं 1819 ई. में कश्मीर पर अधिकार कर चुके थे।

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी 'खालसा' के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था। उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। फ़कीर 'अजीजुद्दीन' उनका विदेशमंत्री तथा दीवान 'दीनानाथ' उनका वितमंत्री था।

रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।

रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों 'अलार्ड' एवं 'वन्तूरा' के अधीन रखा। वन्तूरा 'फौज-ए-ख़ास' की पदाति तथा अर्लाड 'घुड़सवार' पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक 'इलाही बख़्श' था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें - वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने लाहौर और अमृतसर में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे 'महादारी' कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

59 वर्ष की आयु में 7 जून, 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

एक फ़्राँसीसी पर्यटक 'विक्टर जैकोमाण्ट' ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों 'खड़क सिंह', 'नौनिहाल सिंह' व 'शेर सिंह' में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि अंग्रेज़ पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध था।

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पंजाब एवं समस्त उत्तर भारत में सिखों का झंडा गाड़ने वालों और कई अंग्रेज अधिकारियों को दाँतों तले उंगलियां चबाने को मजबूर करने वाले परम-वीर और महान देश भक्त महाराजा रणजीत सिंह जी की १७४वी पुण्य-तिथि प...र कृतग्य राष्ट्र को सत्-सत् नमन..

..महा-व्यक्तित्वों के धनी इस देश भारत में इतने वीर-वीरांगनाएं जन्मीं हैं कि गिनती करते-करते कई वर्ष भी बीत जाएँ तो भी कम हैं...

आज इसी कड़ी में एक ऐसी महा-वीर का जीवन आपके सामने प्रस्तुत है जिन्हें पंजाब और उत्तर भारत का 'महाराणा ' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी......आज पढते हैं उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह जी के बारे में जिनकी वीरता के कारण अंग्रेजों को दाँतों तले उंगलियां चबाने मजबूर होना पढ़ा था...

...निवेदन है कि अगर आपको उनका जीवन और उनके देशभक्ति के कार्य पसंद आये तो अपने घर के किसी छोटे बच्चे को भी उनकी यह जीवनी बताएं...जिससे कि आपके बच्चों का जीवन शाहरुख-सलमान-धोनी-सचिन नाम के राक्षसों के साये में सदा के लिए देशद्रोह के कार्य में लग जाने न पाए...

महाराणा रणजीत सिंह को एक उपनाम 'शेरे पंजाब' के नाम से भी जाना जाता था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, 'बदरूख़ाँ' या 'गुजरांवाला', भारत में हुआ था। रणजीत सिंह पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे। रणजीत सिंह सिक्खों के बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में रावी नदी एवं चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था।

रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रिया-कलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की।

1798 - 1799 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक 'जमानशाह' ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक फ्राँस का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव भारत पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, ईरान व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। 25 अप्रैल, 1809 को 'चार्ल्स मैटकॉफ़' और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य 'अमृतसर की सन्धि' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी के पूर्वी तट के क्षेत्र अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गये।

चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और ईरान के इंग्लैण्ड से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।

1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखा से सहायता मांगी और 'अमर सिंह थापा' के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। दीवान मोहकम चन्द के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को काबुल से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उसे कोहिनूर हीरा भेंट किया। रणजीत सिंह ने सिन्ध के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में पेशावर जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में मुल्तान एवं 1819 ई. में कश्मीर पर अधिकार कर चुके थे।

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी 'खालसा' के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था। उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। फ़कीर 'अजीजुद्दीन' उनका विदेशमंत्री तथा दीवान 'दीनानाथ' उनका वितमंत्री था।

रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।

रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों 'अलार्ड' एवं 'वन्तूरा' के अधीन रखा। वन्तूरा 'फौज-ए-ख़ास' की पदाति तथा अर्लाड 'घुड़सवार' पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक 'इलाही बख़्श' था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें - वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने लाहौर और अमृतसर में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे 'महादारी' कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

59 वर्ष की आयु में 7 जून, 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

एक फ़्राँसीसी पर्यटक 'विक्टर जैकोमाण्ट' ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों 'खड़क सिंह', 'नौनिहाल सिंह' व 'शेर सिंह' में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि अंग्रेज़ पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध था।

Nambi_Narayanan


Photo: ^ कहानी #CIA  के शिकार एक महान वैज्ञानिक की 

ये है #ISRO वैज्ञानिक #Nambi_Narayanan साहब ,,,,, ये भारत की रॉकेट तकनीक में तरल ईंधन तकनीक को बढ़ावा देने तथा #Cryogenic_Engine का भारतीयकरण करने वाले अग्रणी वैज्ञानिक हैं.

इसरो वैज्ञानिक नम्बी नारायण ने केरल हाईकोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल करके कहा है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने उन्हें जासूसी और सैक्स स्कैंडल के झूठे आरोपों में फंसाया, वास्तव में ये पुलिस अधिकारी किसी विदेशी शक्ति के हाथ में खिलौने हैं और देश में उपस्थिति बड़े षड्यंत्रकारियों के हाथ की कठपुतली हैं. इन पुलिस अधिकारियों ने मुझे इसलिए बदनाम किया ताकि इसरो में #क्रायोजेनिक इंजन तकनीक पर जो काम चल रहा था, उसे हतोत्साहित किया जा सके, भारत को इस विशिष्ट तकनीक के विकास से रोका जा सके.

नम्बी नारायण ने आगे लिखा है कि यदि डीजीपी सीबी मैथ्यू द्वारा उस समय मेरी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी नहीं हुई होती, तो सन 2000 में ही भारत क्रायोजेनिक इंजन का विकास कर लेता. श्री नारायण ने कहा, “तथ्य यह है कि आज तेरह साल बाद भी भारत क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण नहीं कर पाया है. केरल पुलिस की केस डायरी से स्पष्ट है कि “संयोगवश” जो भारतीय और रशियन वैज्ञानिक इस महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट से जुड़े थे उन सभी को पुलिस ने आरोपी बनाया”. 30 नवम्बर 1994 को बिना किसी सबूत अथवा सर्च वारंट के श्री नम्बी नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया. नम्बी नारायण ने कहा कि पहले उन्हें सिर्फ शक था कि इसके पीछे #अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसी #CIA है, लेकिन उन्होंने यह आरोप नहीं लगाया था. लेकिन जब #आईबी के अतिरिक्त महानिदेशक रतन सहगल को #IB के ही अरुण भगत ने #सीआईए के लिए काम करते रंगे हाथों पकड लिया और सरकार ने उन्हें नवम्बर 1996 में सेवा से निकाल दिया, तब उन्होंने अपने शपथ-पत्र में इसका स्पष्ट आरोप लगाया कि देश के उच्च संस्थानों में विदेशी ताकतों की तगड़ी घुसपैठ बन चुकी है, जो न सिर्फ नीतियों को प्रभावित करते हैं, बल्कि वैज्ञानिक व रक्षा शोधों में अड़ंगे लगाने के षडयंत्र रचते हैं. इतने गंभीर आरोपों के बावजूद देश की मीडिया और सत्ता गलियारों में सन्नाटा है, हैरतनाक नहीं लगता ये सब?

,,,,,,,,,,,क्रायोजेनिक इंजन का यह प्रोजेक्ट कभी शुरू न हो सका, क्योंकि “अचानक” महान वैज्ञानिक नंबी नारायण को जासूसी और सैक्स स्कैंडल के आरोपों में फँसा दिया गया. नम्बी नारायणन की दो दशक की मेहनत बाद में रंग लाई, जब उनकी ही टीम ने “विकास” नाम का रॉकेट इंजन निर्मित किया, जिसका उपयोग इसरो ने PSLV को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए किया. इसी “विकास” इंजन का उपयोग भारत के चन्द्र मिशन में GSLV के दुसरे चरण में भी किया गया, जो बेहद सफल रहा.

पूरा लेख Suresh Chiplunkar जी द्वारा लिखित इस ब्लॉग में पढ़े ,,,,
http://blog.sureshchiplunkar.com/2013/12/indian-space-programme-under-threat.html
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ISRO वैज्ञानिक  NAMBI NARAYAN  साहब ,,,,, ये भारत की रॉकेट तकनीक में तरल ईंधन तकनीक को बढ़ावा देने तथा   CRYOGENIC ENGINE  का भारतीयकरण करने वाले अग्रणी वैज्ञानिक हैं.

इसरो वैज्ञानिक नम्बी... नारायण ने केरल हाईकोर्ट में शपथ-पत्र दाखिल करके कहा है कि जिन पुलिस अधिकारियों ने उन्हें जासूसी और सैक्स स्कैंडल के झूठे आरोपों में फंसाया, वास्तव में ये पुलिस अधिकारी किसी विदेशी शक्ति के हाथ में खिलौने हैं और देश में उपस्थिति बड़े षड्यंत्रकारियों के हाथ की कठपुतली हैं. इन पुलिस अधिकारियों ने मुझे इसलिए बदनाम किया ताकि इसरो में  CRYOGENIC इंजन तकनीक पर जो काम चल रहा था, उसे हतोत्साहित किया जा सके, भारत को इस विशिष्ट तकनीक के विकास से रोका जा सके.

नम्बी नारायण ने आगे लिखा है कि यदि डीजीपी सीबी मैथ्यू द्वारा उस समय मेरी अन्यायपूर्ण गिरफ्तारी नहीं हुई होती, तो सन 2000 में ही भारत क्रायोजेनिक इंजन का विकास कर लेता. श्री नारायण ने कहा, “तथ्य यह है कि आज तेरह साल बाद भी भारत क्रायोजेनिक इंजन का सफल परीक्षण नहीं कर पाया है. केरल पुलिस की केस डायरी से स्पष्ट है कि “संयोगवश” जो भारतीय और रशियन वैज्ञानिक इस महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट से जुड़े थे उन सभी को पुलिस ने आरोपी बनाया”. 30 नवम्बर 1994 को बिना किसी सबूत अथवा सर्च वारंट के श्री नम्बी नारायण को गिरफ्तार कर लिया गया. नम्बी नारायण ने कहा कि पहले उन्हें सिर्फ शक था कि इसके पीछे   CIA है, लेकिन उन्होंने यह आरोप नहीं लगाया था. लेकिन जब   IB  के अतिरिक्त महानिदेशक रतन सहगल को   IB  के ही अरुण भगत ने CIA के लिए काम करते रंगे हाथों पकड लिया और सरकार ने उन्हें नवम्बर 1996 में सेवा से निकाल दिया, तब उन्होंने अपने शपथ-पत्र में इसका स्पष्ट आरोप लगाया कि देश के उच्च संस्थानों में विदेशी ताकतों की तगड़ी घुसपैठ बन चुकी है, जो न सिर्फ नीतियों को प्रभावित करते हैं, बल्कि वैज्ञानिक व रक्षा शोधों में अड़ंगे लगाने के षडयंत्र रचते हैं. इतने गंभीर आरोपों के बावजूद देश की मीडिया और सत्ता गलियारों में सन्नाटा है, हैरतनाक नहीं लगता ये सब?
 क्रायोजेनिक इंजन का यह प्रोजेक्ट कभी शुरू न हो सका, क्योंकि “अचानक” महान वैज्ञानिक नंबी नारायण को जासूसी और सैक्स स्कैंडल के आरोपों में फँसा दिया गया. नम्बी नारायणन की दो दशक की मेहनत बाद में रंग लाई, जब उनकी ही टीम ने “विकास” नाम का रॉकेट इंजन निर्मित किया, जिसका उपयोग इसरो ने PSLV को अंतरिक्ष में पहुंचाने के लिए किया. इसी “विकास” इंजन का उपयोग भारत के चन्द्र मिशन में GSLV के दुसरे चरण में भी किया गया, जो बेहद सफल रहा.
 

भारतवर्ष में गुरुकुल कैसे खत्म हो गये? कॉन्वेंट स्कूलों ने किया बर्बाद

Photo: ^ भारतवर्ष में गुरुकुल कैसे खत्म हो गये? कॉन्वेंट स्कूलों ने किया बर्बाद

1858 में Indian Education Act बनाया गया।
इसकी ड्राफ्टिंग ‘लोर्ड मैकोले’ ने की थी। लेकिन
उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के
शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके
पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के
बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक
अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas
Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग
समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है
ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था,
उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और
Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था,
उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और
उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले
का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के
लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी “देशी और
सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था” को पूरी तरह से
ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह
“अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था” लानी होगी और
तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग
से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश
की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम
करेंगे और मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है:
“कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले
पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे
जोतना होगा और
अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।”
इसलिए उसने सबसे पहले
गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल
गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने
वाली सहायता जो समाज के तरफ से
होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत
को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के
गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग
लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-
पीटा, जेल में डाला।
1850 तक इस देश में ’7 लाख 32 हजार’ गुरुकुल हुआ
करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे ’7 लाख 50
हजार’, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये
जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में
‘Higher Learning Institute’ हुआ करते थे उन सबमे 18
विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के
लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और
इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी।
इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और
फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित
किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल
खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’
कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में
कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई
यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई
गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के
यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने
पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर
चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि:
“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में
तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और
इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने
परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे
होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से
अंग्रेजियत नहीं जाएगी।”
उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब
साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट
की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में
शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब
पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे
अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब
क्या पड़ेगा।
लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय
भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11
देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये
कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में
भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन
अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में
नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे।
ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल
की भाषा अरमेक थी। अरमेक
भाषा की लिपि जो थी वो हमारे
बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के
कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त
राष्ट संघ जो अमेरिका में है
वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है,
वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है।
जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है
उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले
की रणनीति थी।
- स्व॰ श्री राजीव भाई

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1858 में Indian Education Act बनाया गया।
इसकी ड्राफ्टिंग ‘लोर्ड मैकोले’ ने की थी। लेकिन
उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के
शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके...
पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के
बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक
अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas
Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग
समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है
ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था,
उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और
Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था,
उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और
उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले
का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के
लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी “देशी और
सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था” को पूरी तरह से
ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह
“अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था” लानी होगी और
तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग
से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश
की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम
करेंगे और मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है:
“कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले
पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे
जोतना होगा और
अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।”
इसलिए उसने सबसे पहले
गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल
गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने
वाली सहायता जो समाज के तरफ से
होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत
को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के
गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग
लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-
पीटा, जेल में डाला।
1850 तक इस देश में ’7 लाख 32 हजार’ गुरुकुल हुआ
करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे ’7 लाख 50
हजार’, मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये
जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में
‘Higher Learning Institute’ हुआ करते थे उन सबमे 18
विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के
लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और
इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी।
इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और
फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित
किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल
खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’
कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में
कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई
यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई
गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के
यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने
पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर
चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि:
“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में
तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और
इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने
परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा,
इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे
होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से
अंग्रेजियत नहीं जाएगी।”
उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब
साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट
की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में
शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब
पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे
अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब
क्या पड़ेगा।
लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय
भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11
देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये
कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में
भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन
अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में
नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे।
ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल
की भाषा अरमेक थी। अरमेक
भाषा की लिपि जो थी वो हमारे
बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के
कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त
राष्ट संघ जो अमेरिका में है
वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है,
वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है।
जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है
उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले
की रणनीति थी।
- स्व॰ श्री राजीव भाई
 

मूर्तिभंजक महमूद गजनी कैसे भागा था कश्मीर से-

मूर्तिभंजक महमूद गजनी कैसे भागा था कश्मीर से-
कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर 'कक्रोटा वंश' का 245 वर्ष का राज्य स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है। इस वंश के राजाओं ने अरब हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रो...के रखा था। कक्रोटा की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं।


अपराजेय राज्य कश्मीर इसी कक्रोटा वंश में चन्द्रापीड़ नामक राजा ने सन् 711 से 719 ई.तक कश्मीर में एक आदर्श एवं शक्तिशाली राज्य की स्थापना की। यह राजा इतना शक्तिशाली था कि चीन का राजा भी इसकी महत्ता को स्वीकार करता था। इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। अरब देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। अरबों के आक्रमणों को रोकने के लिए चीन के सम्राट के साथ सैनिक संधि के परिणामस्वरूप, चीन से सैनिक टुकड़ियां कश्मीर के राजा चन्द्रापीड़ की सहायतार्थ पहुंची थीं। इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश 'ता-आंग' के सरकारी उल्लेखों में मिलता है।

साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका सैंतीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसकी सर्वधर्मसमभाव पर आधारित जीवन प्रणाली, उसके अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।

कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। इसी प्रकार उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी।

शौर्य का इतिहास ईरान, तुर्किस्तान तथा भारत के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला सुल्तान महमूद गजनवी भी दो बार कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीरी सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामराज के शासनकाल में। इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 1003 ई.से लेकर 1028 ई.तक राज्य किया। महमूद गजनवी का अंतिम आक्रमण भारत पर 1030 ई. में हुआ था।

संग्रामराज महमूद की आक्रमण शैली को समझता था। धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले महमूद गजनवी के आक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए। सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें।

प्रसिद्ध इतिहासकार अल्बरूनी ने कश्मीर की सीमाओं की सुरक्षा व्यवस्था में लोगों के योगदान की चर्चा की है, 'कश्मीर के लोग अपने राज्य की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप, उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना, बहुत कठिन है।...इस समय तो वे किसी अनजाने हिन्दू को भी प्रवेश नहीं करने देते, दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।'

भाग खड़ा हुआ महमूद भारत की सीमाओं पर महमूद गजनवी ने कई आक्रमण किए उसने भारत के अनेक नगर रौंदे। कांगड़ा के नगरकोट किले को फतह करने के बाद उसकी गिद्ध दृष्टि पास लगते स्वतंत्र कश्मीर राज्य पर पड़ी। उसने इस राज्य को भी फतह करने के इरादे से सन् 1015 ई.में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सीमा पर स्थित लोहकोट नामक किले के पास तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं। इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा।

महमूद के आक्रमण की सूचना सीमा क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति तुंग के नेतृत्व में कूच कर दिया। कश्मीर प्रदेश के साथ लगे काबुल राज्य पर त्रिलोचनपाल का राज्य था। राजा त्रिलोचनपाल स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा। गजनवी की सेना को चारों ओर से घेर लिया गया। महमूद की सेना को मैदानी युद्धों का अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी।

महमूद की षड्यंत्र-युक्त युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई। तौसी का युद्ध स्थल महमूद के सैनिकों के शवों से भर गया। प्रारंभिक अवस्था में लोहकोट के किले पर महमूद का कब्जा था। कश्मीर से संग्रामराज के द्वारा भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो महमूद, जो किले के भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ भागने में सफल हो गया।



मिट्टी में मिला गुरूरभारत में महमूद की यह पहली बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात् महमूद की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में गजनवी तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद महमूद ने संग्रामराज की सैनिक क्षमता का लोहा तो माना परंतु उसके मन में कश्मीर विजय का स्वप्न पलता रहा। वह अपनी पाशविक आकांक्षा पर नियंत्रण न कर सका।

अत: महमूद 1021 ई.में पुन: कश्मीर पर आक्रमण करने आ पहुंचा। इस बार भी उसने लोहकोट किले पर ही पड़ाव डाला। काबुल के हिन्दू राजा त्रिलोचनपाल ने फिर उसे खदेड़ना शुरू किया। परंतु इस बार महमूद अधिक शक्ति के साथ आक्रमण की तैयारी करके आया था। पिछले घावों का दर्द अभी बाकी था। नई मार से वह पागल जानवर की तरह हताश हो गया। त्रिलोचनपाल की सहायता के लिए कश्मीर के राजा संग्रामराज ने भी तुरंत सेना भेज दी। महमूद की सेना चारों खाने चित पिटने लगी। महमूद गजनवी की पुन: पराजय हुई और वह दूसरी बार कश्मीरियों के हाथों पिट कर गजनी भाग गया। इसके बाद उसकी मरते दम तक न केवल कश्मीर अपितु पूरे भारत की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई।

पुनर्जीवित हो राष्ट्रनिष्ठा महमूद की इस दूसरी अपमानजनक पराजय के संबंध में एक मुस्लिम इतिहासकार मजीम के अनुसार 'महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का बदला लेने और अपनी इज्जत पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने रास्ते से ही आक्रमण किया परंतु फिर लोहकोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किले बंदी के बाद, बर्बादी की संभावना से डरकर महमूद ने दुम दबाकर भाग जाने की सोची और बचे हुए चंद सैनिकों के साथ भाग गया। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का इरादा उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।'

उपरोक्त वर्णन के मद्देनजर वर्तमान संदर्भ में ये समझना जरूरी है कि हमलावर विदेशी लुटेरों की आक्रामक तहजीब को आधार बनाकर कश्मीर घाटी में भारत विरोधी हिंसक जिहाद का संचालन कर रहे इन्हीं कश्मीरी नेताओं के हिन्दू पूर्वजों ने अनेक शताब्दियों तक विदेशी आक्रमणकारियों को धूल चटाई है। परंतु लम्बे समय तक बलात् मतान्तरण के परिणामस्वरूप इनकी राष्ट्रनिष्ठा लुप्त हो गई। अत: इस समाप्त हो चुकी राष्ट्रनिष्ठा को पुनर्जीवित किए बिना कश्मीर की वर्तमान समस्या नहीं सुलझाई जा सकती।

साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य

भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के विषय मे कुछ महत्वपूर्ण बाते



भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के विषय मे कुछ महत्वपूर्ण बाते -------अवश्य पढे।

(1) विविध रासायनिक प्रक्रिया एवं रासायनिक अणुसूत्र का उपयोग भारत मे 5 वे शतक मे हुआ था

(2) विश्व का सर्वप्रथम औषधविज्ञान भारतीयो ने ‘आयुर्वेद ग्रंथ ‘ के स्वरूप मे... संकलित किया था

(3) ई,पू, 400 मे सुश्रुत भारतीय चिकित्सक ने प्लास्टिक सर्जरी का प्रयोग किया था

(4) विश्व का सर्वप्रथम लेखन कार्य 5500 वर्ष पूर्व हड़प्पा संस्कृति मे मिलते है

(5) संस्कृत भाषा विश्व की सर्वश्रेष्ठ भाषा है जो वर्तमान सॉफ्टवेर मे अति उपयुक्त भाषा सिद्ध हुई है

(6) विश्व की सर्वप्रथम विश्वविद्यालय तक्षशिला ई,पू, 700 मे भारत मे स्थापित हुई थी वहा 10.000 छात्र 80 विषय पर अध्ययन कर रहे थे
 

मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा मंदिरों का विध्वंश. #DECODING #HINDUISM

मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा मंदिरों का विध्वंश.
Photo: ^ मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा मंदिरों का विध्वंश.

अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है, जिससे वे हमारे ही देश में बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकंप की तरह सिद्ध हुआ था।

सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिद्ध पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।

सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कुव्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

“तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236) ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।

हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।

आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।

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अत्यंत संक्षेप में, सन् 632 में भारत में इस्लाम के आगमन के बाद से किस तरह हजारों मंदिरों का ध्वंस हुआ इसको आज के मीडिया को साक्ष्यों से परिचित कराना जरूरी है, जिससे वे हमारे ही देश में ...बहुसंख्यकों को बरगलान सकें। फ्रेंच इतिहासकार एलेन डेनिलू ने लिखा है कि प्रारम्भ से ही इस्लाम का इतिहास भारत के लिए विनाश, रक्तपात, लूट और मंदिरों के विध्वंस के लिए एक भूकंप की तरह सिद्ध हुआ था।

सन 1018 से लेकर सन 1024 तक मथुरा, कन्नौज, कालिंजर और बनारस के साथ-साथ सोमनाथ के मंदिर क्रूरता से नष्ट किए गए। प्रसिद्ध पत्रकार एम. वी. कामथ ने कुछ दिनों पहले 18वीं शताब्दी के एक ब्रिटिश यात्री को उद्धृत करते हुए लिखा कि सूरत से दिल्ली तक के बीच उसने एक भी हिंदू मंदिर नहीं देखा क्योंकि वे सब नष्ट किए जा चुके थे। इस्लामी इतिहासकारों ने सैकड़ों साल पहले गर्व से लिखा है कि सल्लतनत और मुगल शासकों के समय उनकी सरकार का ‘मंदिर तोड़ने का विभाग” कितना कुशलता और दक्षता से यह काम करता था।

सोमनाथ का मंदिर पहली बार महमूद गजनवी द्वारा 1024 में लूटा गया था और शिवलिंग तोड़ डाला गया था। मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार इस विशाल देवालय को नष्ट करने के बाद सोमनाथ के शिवलिंग के टुकड़े गजनी की जुम्मा मस्जिद की सॣढ़ियों में जड़े गए थे जिससे इस्लाम के अनुयाई उन्हें पैरों से रौंदें। वह सन् 1191 का समय था जब मुस्लिम आक्रांता मोहम्मद गोरी मध्य एशिया से अपने तुर्की घुड़सवारों की सेना के साथ भारत आया था। पहले पृथ्वीराज चौहान ने उसे तराईन के पहले युद्ध में मात दी और उसे क्षमादान भी दिया। पर 1192 में उसने पृथ्वीराज को पराजित करने के बाद विशाल लालकोट को कब्जा करने के बाद जलाकर धरती में मिला दिया। आज भी कुव्वतुल इस्लाम भारत की पहली मस्जिद के रूप में खड़ी है जिसे उस समय के 67 हिंदू मंदिरों के पत्थरों और मलवे को प्रयुक्त कर बनाया गया था। इस तरह पहली बार यह आस्था ध्वंस के प्रतीक के रूप में दिल्ली पहुची थी। स्वयं अनेक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसका विस्तृत रूप से वर्णन किया है।

“तारीखे-फीरोजशाही” के इतिहासकार के अनुसार सुल्तान अल्तुतमिस (1210-1236) ने अपने मारवाड़ के आक्रमण के दौरान अनेक बड़े मंदिरों की मूर्तियों को लाकर दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में चुनवाया था। इसी तरह जलालुद्दीन खिलजी (1290-1296) ने रणथंभौर के आक्रमण के बाद किया था। दो अन्य मुस्लिम इतिहासकारों ने स्वतंत्र रूप से पुष्टि की है कि अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) हर अभियान के बाद मूर्तियों को दिल्ली लाकर सीढ़ियों पर चुनवाने का एक धार्मिक कृत्य मानता था। बाद तक दर्जनों शासकों ने यह चाहे दिल्ली में हो या बहमनी, मालवा, बरार या दक्षिण के राज्य हों, यही दोहराया। इन अभिलेखित साक्ष्यों के बाद भी यदि आज के कुछ सेकुलर कहलाने वाले दुराग्रही और हठधर्मी इतिहासकार अथवा पत्रकार रट लगाते रहें कि मंदिर कभी ध्वस्त नहीं किए गए, कभी बलात धर्मांतरण नहीं हुआ तो यह मात्र कुटिल मानसिकता ही मानी जा सकती है।

हमारे देश में अपने अतीत के प्रति अधिकांश शिक्षित वर्ग इतना उदासीन है कि विद्रूषीकरण के साथ-साथ घोर सतही और असत्य वक्तव्य भी बिना किसी प्रतिरोध के छापे जा सकते हैं। कदाचित इसीलिए नोबेल पुरस्कार विजेता वी.एस. नागपाल ने कुछ दिनों पहले एक साक्षात्कार में रोमिला थापर को ‘फ्रॉड’ तक कह डाला था।

आज हिंदू हीनताग्रंथिवश अपनी सभ्यता की प्रमुखता को भी अभिव्यक्त करने की स्थिति में नहीं हैं और कदाचित इतिहास की बाध्यताओं व उसके सही अनुशासन को नहीं समझ पाते हैं। उसके मन में कूट-कूटकर भर दिया गया है कि उनका अपना अतीत, आज की नजरों में, सांप्रदायिक इतिहास है।

पृथ्वी का भोगोलिक मानचित्र: वेद व्यास द्वारा #DECODING #HINDUISM

पृथ्वी का भोगोलिक मानचित्र: वेद व्यास द्वारा
Photo: ^ पृथ्वी का भोगोलिक मानचित्र: वेद व्यास द्वारा


महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था। महाभारत में कहा गया है कि यह पृथ्वी चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल (पत्तों) के रुप में दिखायी देती है-

                                               उपरोक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था-

“ सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
 ”
—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

अर्थात

        हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है।

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महाभारत में पृथ्वी का पूरा मानचित्र हजारों वर्ष पूर्व ही दे दिया गया था। महाभारत में कहा गया है कि यह पृथ्वी चन्द्रमंडल में देखने पर दो अंशों मे खरगोश तथा अन्य दो अंशों में पिप्पल (पत्तों) के... रुप में दिखायी देती है-
उपरोक्त मानचित्र ११वीं शताब्दी में रामानुजचार्य द्वारा महाभारत के निम्नलिखित श्लोक को पढ्ने के बाद बनाया गया था-
“ सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन। परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः॥
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः। एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले॥ द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।”
—वेद व्यास, भीष्म पर्व, महाभारत

अर्थात
हे कुरुनन्दन ! सुदर्शन नामक यह द्वीप चक्र की भाँति गोलाकार स्थित है, जैसे पुरुष दर्पण में अपना मुख देखता है, उसी प्रकार यह द्वीप चन्द्रमण्डल में दिखायी देता है। इसके दो अंशो मे पिप्पल और दो अंशो मे महान शश(खरगोश) दिखायी देता है। अब यदि उपरोक्त संरचना को कागज पर बनाकर व्यवस्थित करे तो हमारी पृथ्वी का मानचित्र बन जाता है, जो हमारी पृथ्वी के वास्तविक मानचित्र से बहुत समानता दिखाता है।
 

गणित क्षेत्र में हमारे ऋषियों का योगदान


Photo: ^ गणित क्षेत्र में हमारे ऋषियों का  योगदान

गणित वेदांग साहित्य का मुख्य क्षेत्र था और इस में अंक गणित, बीज गणित, रेखागणित, तथा खगोल शास्त्र शामिल थे। वैदिक काल से ही भारत गणित तथा खगोल क्षेत्र में विश्व के अन्य देशों से बहुत आगे था। भारतीयों के लिये गौरव की बात है कि भारत की ऐक महिला शकुन्तला देवी मौखिक ही जटिल गणनाओं को क्मप्यूटरों से भी तीव्र गति से हल कर के वैदिक गणित का कमाल विश्व भर के गणितज्ञ्यों के सामने आज भी प्रत्यक्ष कर दिखाती हैं।

समझने की दृष्टि से गणित ने भौतिक यथार्थ तथा अध्यात्मिक ज्ञान के मध्य में सेतु का कार्य किया है। वैदिक गणित पद्य में संकलित है जो कि पाश्चात्य गणित से भिन्न रूप में है। यह सूक्षम तथा सक्षम है। यूनानी गणित की अपेक्षा वैदिक गणित के सूत्र सरल और स्पष्ट हैं। आर्य प्रारम्भ से ही प्रत्येक कार्य करने से पूर्व उचित समय निर्धारित करने के लिये नक्षत्रों की चाल तथा दशा के प्रति सजग रहे हैं। आर्य 1012 तक गिन सकते थे जब कि यूनानी केवल 104 तक और रोमन 108 तक ही गिन सकते थे। 

प्राचीन गणित साहित्य

भारत के गणितिज्ञ्यों ने अपनी पद्धति पद्य में अपनायी थी तथा उसे कलात्मिक छवि प्रदान की थी जो उन की विश्षेता थी। गणित सम्बन्धित सब से प्राचीन साहित्य ‘बकशाली हस्त-लेख’ है जो 1881 ईसवी में तक्षशिला के समीप बकशाली नामक गाँव में पाये गये थे। अन्य प्राचीन कृति आचार्य महावीर लिखित गणितसार संगृहम है जिन का जीवन काल लग भग ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के मध्य का है। अक्षर-लक्षण-गणित-शास्त्र में गणित, 84 प्रमेयों (थियोरम्स) तथा पद्धतियों का उल्लेख है।

अंकों का मूल्यांकन

एक से ले कर 9 तक के अंक तथा – शून्य का अंक – भारत की ओर से गणित और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान है।भारतीय गणितिज्ञ्यों ने अंकों को केवल गिनती करने के लिये उन के आकार को ही नहीं समझा, अपितु उन्हें गुणवाचक और भाव-वाचक संज्ञा के रूप में भी जोडा। रोमन अंकों की तुलना में भारतीयों ने अंकों को चिन्ह के साथ साथ ‘स्थान’ को भी महत्व प्रदान किया। पहले, दूसरे, तीसरे और इसी तरह आगे सभी स्थानों पर लिखे गये अंकों का अपना अपना महत्व है।

अगर रोमन पद्धति के अनुसार किसी को तीन हज़ार तीन सौ तैंतीस लिखना हो तो वह लिखें गे – MMMCCCXXXIII जबकि भारतीय पद्धति के अनुसार सरलता से आप 3333 लिख सकते हैं। समस्या और भी जटिल बन जाये गी यदि रोमन पद्धति के अंकों को जमा, घटाना, गुणा या भाग देना पड जाये तो। यदि 3333 को दस से गुणा करना है तो दाहिनी ओर केवल ऐक शून्य लगा कर 33330 कर के ही उत्तर मिल जाये गा, लेकिन रोमन पद्धति में इस आसान काम को करवाना भी कठिन है।

विश्व भर में बुद्धिजीवी चिन्हों के माध्यम से गिनती करने में जूझते रहे परन्तु सफलता तभी हाथ लगी जब भारतीयों दूारा अकों के अविष्कार करने के बाद उन को  स्थान के मुताबिक प्रयोगात्मिक कर के साकार किया गया। यदि यह घटना घटित नहीं होती तो गणित और कम्पयूटर के साथ जुडी हुई कोई भी प्रगति नहीं होनी थी। भारत के गणितिज्ञों नें अंकों के ‘स्थान’ अनुसार मूल्याँकन कर के समस्या का समाघान किया। संख्या में दाहिनी ओर का प्रथम अंक 1 के गुणनफल को, दूसरा अंक 10 के गुणनफल को, और तीसरा अंक 100 के गुणनफल को व्यक्त करता है। इसी क्रम से भारतीय गणितिज्ञ्यों ने असंख्य अंकों तक का गुणनफल निकालना सरल कर दिया। प्रत्येक अंक को ऐक क्रम बाँये खिसका कर दस गुणा मूल्य प्रदान कर दिखाया। इसी पद्धति को जब कम्पयूटरों में इस्तेमाल किया गया तो बाईनेरी के दो अंको को आधार माना गया जिन को ऐक स्थान बाँये खिसकाने से अंकों का योगफल दोगुणा हो जाता है। प्रसिद्ध मोरोकन-फराँसिसी गणितिज्ञ्य जार्ज इफरा के कथनानुसार समस्त विश्व में भारतीय अंक गुणवत्ता में अति सक्षम हैं।

शून्य की उपलब्द्धि

भारतीय गणितिज्ञ्यों की अति महत्वशाली उपलब्द्धि ‘शून्य’ का अविष्कार थी जिस के सहारे आज का विज्ञान आकाश की ऊचाईयों को छूने को तत्पर है। सर्व प्रथम शून्य अंक के प्रयोग का उल्लेख ईसा से 200 वर्ष पूर्व के धार्मिक ग्रँथों सें मिलता है। शून्य का अर्थ है – ‘कुछ नहीं’। पहले शून्य अंक ऐक बिन्दी के चिन्ह से दर्शाया जाता था। तदन्तर उस का आकार ऐक छोटे वृत की शक्ल का हो गया। इसी रूप में शून्य को अन्य अंकों की तरह से ऐक ‘अंक के तौर पर’ स्वीकार कर लिया गया।

ईशवासोपनिष्द उपनिष्द में शून्य की सुन्दर परिभाषा इस प्रकार की गयी हैः-

           ॐपूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

            पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

मंत्र कहता है, यह भी पूर्ण है, वह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है, तो भी वह पूर्ण है और अंत में पूर्ण में लीन होने पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है। जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनन्त की भी है कि “पूर्ण (अनादि ब्रह्म) से यदि पूर्ण को निकाल लिया जाये तो भी पूर्ण ही शेष बचे गा ”। यह परिभाषा पाश्चात्य जगत के गणितिज्ञ्य केन्टर के इनफिनिटी सिद्धान्त की परिभाषा की अग्रज है।

भारतीयों ने शून्य अंक का केवल अविष्कार ही नहीं किया अपितु उस के आधार पर पूर्ण पद्धति का निर्माण किया। शून्य के क्रियात्मिक प्रयोग को ब्रह्मगुप्त नें आज से 1500 वर्ष पूर्व साकार किया था। शून्य का ऐक अंक के तोर पर इस्तेमाल, शून्य का नकारात्मिक अस्तित्व, तथा अन्य अंकों की पंक्ति में स्थान और उस का मूल्यांकन – यह तीनों अवस्थायें शून्य के अविष्कार तथा प्रयोग की महत्ता को दर्शाती हैं। ‘दशमल्व पद्धति’ भी उसी श्रंखला की ऐक कडी थी।

दशमलव पद्धति

पाश्चात्य देशों को भारत की दशामलव उपलब्धी का आभारी होना पडे गा जो वास्तव में किसी ‘अनामिक भारतीय’ की खोज है। यह उपलब्धी नौ अंकों के पश्चात शून्य तथा दशामलव की है। दशमलव के बिना आधुनिक युग की सभी प्रगतियाँ निर्रथक हो जातीं जिन में कम्पयूटर्स भी शामिल हैं।

    पाँचवी शताब्दी में आर्य भट्ट ने दशमल्व पद्धति का प्रयोग किया था।
    उस के पश्चात ब्रह्मगुप्त ने दशमलव के प्रयोग सम्बन्धी नियम बनाये जो आज भी मान्य हैं।

गणित क्षेत्र का विस्तार विकास

अरब वासियों ने भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे ’ (भारत से) कह कर अपनाया और इस ज्ञान को अफरीका तथा योरूप में ले कर गये। किन्तु योरूप वासियों ने इन अंकों को भ्रम के आधार पर अरेबिक संज्ञा दी जो अशोक स्तम्भों पर लिखित थे। भारतीय पद्धति की तुलना में रोमन अंक पद्धति जटिल और सीमित होने के कारण विज्ञान की जरूरतों में असफल रही है।

खगोल जानकारी के लिये भारतीयों ने गणित के क्षेत्र में विस्तार तथा विकास कर के त्रिकोणमिति (ट्रिगनोमेट्री) तथा केलकुलस आदि को भी जन्म दिया। ‘असंख्य’ के जिस चिन्ह (लेमीस्केटस) का प्रयोग अंग्रेज गणितिज्ञ्य जोन वालिस ने 1655 ईस्वी में किया था उसी प्रकार का चिन्ह भारत के पौराणिक साहित्य में ‘अन्नत’ तथा ‘आदिशेष’ के लिये प्रयोग किया जाता है और उस का अर्थ असंख्य तथा अन्नत है । यह चिन्ह धरातल पर ‘8’ के अंक के समान होता है और लेमीस्केटस की तरह है। 

अंक गणित

आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य नें अंकों के नकारात्मिक स्थान की पद्धति का प्रचलन किया। उन्हों ने आठवीं शताब्दी में 2 का वर्गमूल निकाला और उस का समाधान किया। उन्हों  ने माध्यमिक समीकरणों (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) को भी दूसरे दर्जे तक सुलझाया जो कि योरूप के तत्कालिक गणितिज्ञ्य नहीं जानते थे। उन को यह भेद एक हजार वर्ष पश्चात इयूलर के समय ज्ञात हुआ था। भास्कर ने रेडिकल चिन्ह का प्रयोग भी किया तथा अंक गणित के और  कई चिन्ह बनाये। बौद्धयान कृत सुल्भसूत्र में पायथागोरस की थियोरम का पूर्वाभास मिलता है। उन्हों ‘ल2’ का वर्गमूल भी निकाला था।

भारतीय गणितिज्ञ्य

आर्य भट्ट का जीवन काल 475 – 550 ईस्वी का है तथा वह केरल निवासी थे। उन्हों ने नालन्दा में शिक्षा पाई थी। गणना (केलकूलेशन) विभाग में उन्हों ने खगोल शास्त्र खण्ड में मौलिक खोज की। जीवा (का्र्डस) की लम्बाई निकालने के लिये अर्ध-जीवा का प्रयोग किया जब कि यूनानी गणितिज्ञ्य पूर्ण-जीवा का ही प्रयोग करते थे। आर्य भट्ट ने ‘पाई ’ की माप 3.1416 तक निकाली। वर्गमूल निकालने के मौलिक सिद्धान्त बनाये तथा मध्यवर्ती समीकरण (अर्थमेटिक सीरीज इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अ ज – ब व बराबर ख’ और साईन तालिकाओं (साईन टेबलस) का निर्माण भी किया।

ब्रह्मगुप्त का जीवन काल 598 – 665 ईस्वी का है। उन्हों ने नकारात्मक अंकों तथा शून्य का प्रयोग गणित में किया। उन की कृति ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त है जो कि अन्य प्राचीन कृति ब्रह्मसिद्धान्त का शोधन है। इस ग्रन्थ को कालान्तर अरबी भाषा में ‘सिन्द-हिन्द’ के नाम से ख्याति मिली। ब्रह्मगुप्त ने तीन का सिद्धानत और चतुर्भुजी ऐकालिक समीकरण (क्वार्डिक एण्ड साईमल्टेनियस ईक्वेशनस) को सुलझाने सम्बन्धी नियम बनाये। वह प्रथम गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने गणित तथा अंक गणित का विभागी करण किया तथा दोनो को प्रथक अंग माना। उन्हों ने मध्यवर्ती समीकरण (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अxब=ब2’ को सुलझाया। वह अंक विशलेशण ज्ञान के भी अग्रज थे।

महावीराचार्य ने 850 ईस्वी में गणित-सार सँग्रह लिखा जो विश्व में गणित विषय की प्रथम उपलब्ध पुस्तक है। वह ऐकमात्र भारतीय गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने ग्रहण का प्रथम बार उल्लेख किया है जिसे आयतवृत कहा गया है।

भास्कराचार्य भारत के सर्वाधिक मशहूर गणितिज्ञ्य थे। वह 1114 ईस्वी में बिजडाबिदा (आधुनिक बीजापुर, कर्नाटक) में पैदा हुये थे। उन्हों ने सर्वप्रथम कहा कि “यदि किसी अंक को शून्य से विभाजित किया जाय तो विभाज्य भी शून्य होगा” तथा “असंख्य बार शून्य को जोडने का योगफल शुन्य ही होगा ”। भास्कराचार्य को डिफरेंशियल केलकूलस का जनक कहा जा सकता है तथा रौल्स प्रमेय (थि्योरम) का अग्रज। यह दुर्भाग्य था कि अन्य भारतीय गणितिज्ञ्यों ने इस उपलब्धी के महत्व को नहीं समझा और उस का कोई लाभ नहीं उठाया। पाँच शताब्दी पश्चात न्यूटन तथा लेबनिज ने उन के विचार को विकसित किया।भास्कराचार्य ने 1150 ईसवी में सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की जिस के चार भाग इस प्रकार हैं-

    लीलावती – गणित की लोकप्रिय पुस्तक।
    बीजगणित – इस खण्ड में चक्रावल पद्धति से अंकगणित के समीकरणों (इक्वेशनस) को सुलझाया। छः शताब्दी पश्चात योरूप के गलोईस, इयुलर, लगारंगे इत्यादि पाश्चात्य गणितिज्ञ्यों ने भास्कराचार्य की पद्धति का पुनार्वलोकन कर के विपरीत चक्रवाल (इनवर्स साइकलिक) पद्धति का निर्माण किया।
    गोलाध्याय – खगौलिक गोलाकार (स्फीयर सलेस्चियल गलोब) का वर्णन किया है।
    ग्रह गणित – खगोल शास्त्र के ग्रहों का ब्योरा।

अंक गणित

भारतीय आधुनिक गणित, अंक गणित और रेखा गणित के जनक थे। योरूपवासियों को अंकगणित अरब वासियों की मार्फत मिला जिसे वह ‘अलजबर’ (अडजस्टमेन्ट) कहते थे। यूनानी गणितिज्ञ्य  106 तक के अंकों को गिन सकते थे और रोमन 108 तक जब कि ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भारत के गणितिज्ञ्य  53 की दसगुणा शक्ति तक का गणन कर सकते थे। वर्णाक्षरों, चिन्हों का प्रयोग कर के गणितिज्ञ्य असंख्य गणनाओं को दर्शा सकते थे जो कि आज गणित तथा अंक गणित की आधारशिला हैं। हिन्दू गणितिज्ञ्य असंख्यों को चिन्हों के माध्यम से स्पष्ट करने में अग्रज तथा सक्षम थे।

कल्प-ज्योत्मिती – रेखा गणित

वैदिक काल में पूजा के लिये वेदियाँ तथा बलि स्थल ज्योत्मिती (रेखागणित – ज्योमैट्री) के रेखा चित्रों के आकार के ही बनाये जाते थे। वेदियों की आकर्तियाँ रेखा गणित की गणना के अनुकूल बनतीं थीं तथा उन की दिशायें माप दँण्ड के अनुसार ही निर्माण की जाती थीं। ईंट पत्थर के आकार, माप दण्ड तथा संख्या पूर्व निर्धारित होती थी। आकर्तियों का धरातल इस प्रकार निर्मित किया जाता थी कि उन का आकार बदले बिना उन के क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता था जिस के लिये रेखा गणित के विस्तरित ज्ञान की आवश्यक्ता पडती थी। ऱेखा गणित को ‘कल्प’ कहा जाता था।    

आर्य भट्ट ने त्रिभुज का तथा आयाताकार का क्षेत्रफल निकालने की विधि का अविष्कार किया। उन्हों ने ऐक सूत्र में वृत की परिधि (त्याज्ञ्य) मापने की विधि भी दर्शायी जो चार दशामलव अंकों तक सही है। सुलभ सूत्र में रेखा गणितानुसार वेदियां बनाने का विस्तरित वर्णन है जो आयत, वर्ग, चतुर्भुज, वृत, अण्डाकार (ओवल) आकार की बनायी जा सकतीं थी तथा उन का क्षेत्रफल और आकार वाँच्छित तरीके से अदला बदला जा सकता था।

लगे हाथों महाभारत में दु्र्योद्धन की रेखा गणित सूक्षमता की तारीफ भी करनी चाहिये जब उस नें पाण्डवों को ‘सूई की नोक तले आने वाली भूमि’ देने से भी इनकार कर दिया था। उस का वक्तव्य सूक्षम्ता और स्पष्टता के माप दण्ड को दर्शाता है।

भारतीय गणित के बिना आज की वैज्ञिानिक प्रगति असम्भव थी।

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गणित वेदांग साहित्य का मुख्य क्षेत्र था और इस में अंक गणित, बीज गणित, रेखागणित, तथा खगोल शास्त्र शामिल थे। वैदिक काल से ही भारत गणित तथा खगोल क्षेत्र में विश्व के अन्य देशों से बहुत आगे था। भारतीय...ों के लिये गौरव की बात है कि भारत की ऐक महिला शकुन्तला देवी मौखिक ही जटिल गणनाओं को क्मप्यूटरों से भी तीव्र गति से हल कर के वैदिक गणित का कमाल विश्व भर के गणितज्ञ्यों के सामने आज भी प्रत्यक्ष कर दिखाती हैं।

समझने की दृष्टि से गणित ने भौतिक यथार्थ तथा अध्यात्मिक ज्ञान के मध्य में सेतु का कार्य किया है। वैदिक गणित पद्य में संकलित है जो कि पाश्चात्य गणित से भिन्न रूप में है। यह सूक्षम तथा सक्षम है। यूनानी गणित की अपेक्षा वैदिक गणित के सूत्र सरल और स्पष्ट हैं। आर्य प्रारम्भ से ही प्रत्येक कार्य करने से पूर्व उचित समय निर्धारित करने के लिये नक्षत्रों की चाल तथा दशा के प्रति सजग रहे हैं। आर्य 1012 तक गिन सकते थे जब कि यूनानी केवल 104 तक और रोमन 108 तक ही गिन सकते थे।

प्राचीन गणित साहित्य

भारत के गणितिज्ञ्यों ने अपनी पद्धति पद्य में अपनायी थी तथा उसे कलात्मिक छवि प्रदान की थी जो उन की विश्षेता थी। गणित सम्बन्धित सब से प्राचीन साहित्य ‘बकशाली हस्त-लेख’ है जो 1881 ईसवी में तक्षशिला के समीप बकशाली नामक गाँव में पाये गये थे। अन्य प्राचीन कृति आचार्य महावीर लिखित गणितसार संगृहम है जिन का जीवन काल लग भग ब्रह्मगुप्त और भास्कराचार्य के मध्य का है। अक्षर-लक्षण-गणित-शास्त्र में गणित, 84 प्रमेयों (थियोरम्स) तथा पद्धतियों का उल्लेख है।

अंकों का मूल्यांकन

एक से ले कर 9 तक के अंक तथा – शून्य का अंक – भारत की ओर से गणित और विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोपरि योगदान है।भारतीय गणितिज्ञ्यों ने अंकों को केवल गिनती करने के लिये उन के आकार को ही नहीं समझा, अपितु उन्हें गुणवाचक और भाव-वाचक संज्ञा के रूप में भी जोडा। रोमन अंकों की तुलना में भारतीयों ने अंकों को चिन्ह के साथ साथ ‘स्थान’ को भी महत्व प्रदान किया। पहले, दूसरे, तीसरे और इसी तरह आगे सभी स्थानों पर लिखे गये अंकों का अपना अपना महत्व है।

अगर रोमन पद्धति के अनुसार किसी को तीन हज़ार तीन सौ तैंतीस लिखना हो तो वह लिखें गे – MMMCCCXXXIII जबकि भारतीय पद्धति के अनुसार सरलता से आप 3333 लिख सकते हैं। समस्या और भी जटिल बन जाये गी यदि रोमन पद्धति के अंकों को जमा, घटाना, गुणा या भाग देना पड जाये तो। यदि 3333 को दस से गुणा करना है तो दाहिनी ओर केवल ऐक शून्य लगा कर 33330 कर के ही उत्तर मिल जाये गा, लेकिन रोमन पद्धति में इस आसान काम को करवाना भी कठिन है।

विश्व भर में बुद्धिजीवी चिन्हों के माध्यम से गिनती करने में जूझते रहे परन्तु सफलता तभी हाथ लगी जब भारतीयों दूारा अकों के अविष्कार करने के बाद उन को स्थान के मुताबिक प्रयोगात्मिक कर के साकार किया गया। यदि यह घटना घटित नहीं होती तो गणित और कम्पयूटर के साथ जुडी हुई कोई भी प्रगति नहीं होनी थी। भारत के गणितिज्ञों नें अंकों के ‘स्थान’ अनुसार मूल्याँकन कर के समस्या का समाघान किया। संख्या में दाहिनी ओर का प्रथम अंक 1 के गुणनफल को, दूसरा अंक 10 के गुणनफल को, और तीसरा अंक 100 के गुणनफल को व्यक्त करता है। इसी क्रम से भारतीय गणितिज्ञ्यों ने असंख्य अंकों तक का गुणनफल निकालना सरल कर दिया। प्रत्येक अंक को ऐक क्रम बाँये खिसका कर दस गुणा मूल्य प्रदान कर दिखाया। इसी पद्धति को जब कम्पयूटरों में इस्तेमाल किया गया तो बाईनेरी के दो अंको को आधार माना गया जिन को ऐक स्थान बाँये खिसकाने से अंकों का योगफल दोगुणा हो जाता है। प्रसिद्ध मोरोकन-फराँसिसी गणितिज्ञ्य जार्ज इफरा के कथनानुसार समस्त विश्व में भारतीय अंक गुणवत्ता में अति सक्षम हैं।

शून्य की उपलब्द्धि

भारतीय गणितिज्ञ्यों की अति महत्वशाली उपलब्द्धि ‘शून्य’ का अविष्कार थी जिस के सहारे आज का विज्ञान आकाश की ऊचाईयों को छूने को तत्पर है। सर्व प्रथम शून्य अंक के प्रयोग का उल्लेख ईसा से 200 वर्ष पूर्व के धार्मिक ग्रँथों सें मिलता है। शून्य का अर्थ है – ‘कुछ नहीं’। पहले शून्य अंक ऐक बिन्दी के चिन्ह से दर्शाया जाता था। तदन्तर उस का आकार ऐक छोटे वृत की शक्ल का हो गया। इसी रूप में शून्य को अन्य अंकों की तरह से ऐक ‘अंक के तौर पर’ स्वीकार कर लिया गया।

ईशवासोपनिष्द उपनिष्द में शून्य की सुन्दर परिभाषा इस प्रकार की गयी हैः-

ॐपूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।

पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।

मंत्र कहता है, यह भी पूर्ण है, वह भी पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है, तो भी वह पूर्ण है और अंत में पूर्ण में लीन होने पर भी अवशिष्ट पूर्ण ही रहता है। जो वैशिष्ट्य पूर्ण के वर्णन में है वही वैशिष्ट्य शून्य व अनंत में है। शून्य में शून्य जोड़ने या घटाने पर शून्य ही रहता है। यही बात अनन्त की भी है कि “पूर्ण (अनादि ब्रह्म) से यदि पूर्ण को निकाल लिया जाये तो भी पूर्ण ही शेष बचे गा ”। यह परिभाषा पाश्चात्य जगत के गणितिज्ञ्य केन्टर के इनफिनिटी सिद्धान्त की परिभाषा की अग्रज है।

भारतीयों ने शून्य अंक का केवल अविष्कार ही नहीं किया अपितु उस के आधार पर पूर्ण पद्धति का निर्माण किया। शून्य के क्रियात्मिक प्रयोग को ब्रह्मगुप्त नें आज से 1500 वर्ष पूर्व साकार किया था। शून्य का ऐक अंक के तोर पर इस्तेमाल, शून्य का नकारात्मिक अस्तित्व, तथा अन्य अंकों की पंक्ति में स्थान और उस का मूल्यांकन – यह तीनों अवस्थायें शून्य के अविष्कार तथा प्रयोग की महत्ता को दर्शाती हैं। ‘दशमल्व पद्धति’ भी उसी श्रंखला की ऐक कडी थी।

दशमलव पद्धति

पाश्चात्य देशों को भारत की दशामलव उपलब्धी का आभारी होना पडे गा जो वास्तव में किसी ‘अनामिक भारतीय’ की खोज है। यह उपलब्धी नौ अंकों के पश्चात शून्य तथा दशामलव की है। दशमलव के बिना आधुनिक युग की सभी प्रगतियाँ निर्रथक हो जातीं जिन में कम्पयूटर्स भी शामिल हैं।

पाँचवी शताब्दी में आर्य भट्ट ने दशमल्व पद्धति का प्रयोग किया था।
उस के पश्चात ब्रह्मगुप्त ने दशमलव के प्रयोग सम्बन्धी नियम बनाये जो आज भी मान्य हैं।

गणित क्षेत्र का विस्तार विकास

अरब वासियों ने भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे ’ (भारत से) कह कर अपनाया और इस ज्ञान को अफरीका तथा योरूप में ले कर गये। किन्तु योरूप वासियों ने इन अंकों को भ्रम के आधार पर अरेबिक संज्ञा दी जो अशोक स्तम्भों पर लिखित थे। भारतीय पद्धति की तुलना में रोमन अंक पद्धति जटिल और सीमित होने के कारण विज्ञान की जरूरतों में असफल रही है।

खगोल जानकारी के लिये भारतीयों ने गणित के क्षेत्र में विस्तार तथा विकास कर के त्रिकोणमिति (ट्रिगनोमेट्री) तथा केलकुलस आदि को भी जन्म दिया। ‘असंख्य’ के जिस चिन्ह (लेमीस्केटस) का प्रयोग अंग्रेज गणितिज्ञ्य जोन वालिस ने 1655 ईस्वी में किया था उसी प्रकार का चिन्ह भारत के पौराणिक साहित्य में ‘अन्नत’ तथा ‘आदिशेष’ के लिये प्रयोग किया जाता है और उस का अर्थ असंख्य तथा अन्नत है । यह चिन्ह धरातल पर ‘8’ के अंक के समान होता है और लेमीस्केटस की तरह है।

अंक गणित

आर्य भट्ट, ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य नें अंकों के नकारात्मिक स्थान की पद्धति का प्रचलन किया। उन्हों ने आठवीं शताब्दी में 2 का वर्गमूल निकाला और उस का समाधान किया। उन्हों ने माध्यमिक समीकरणों (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) को भी दूसरे दर्जे तक सुलझाया जो कि योरूप के तत्कालिक गणितिज्ञ्य नहीं जानते थे। उन को यह भेद एक हजार वर्ष पश्चात इयूलर के समय ज्ञात हुआ था। भास्कर ने रेडिकल चिन्ह का प्रयोग भी किया तथा अंक गणित के और कई चिन्ह बनाये। बौद्धयान कृत सुल्भसूत्र में पायथागोरस की थियोरम का पूर्वाभास मिलता है। उन्हों ‘ल2’ का वर्गमूल भी निकाला था।

भारतीय गणितिज्ञ्य

आर्य भट्ट का जीवन काल 475 – 550 ईस्वी का है तथा वह केरल निवासी थे। उन्हों ने नालन्दा में शिक्षा पाई थी। गणना (केलकूलेशन) विभाग में उन्हों ने खगोल शास्त्र खण्ड में मौलिक खोज की। जीवा (का्र्डस) की लम्बाई निकालने के लिये अर्ध-जीवा का प्रयोग किया जब कि यूनानी गणितिज्ञ्य पूर्ण-जीवा का ही प्रयोग करते थे। आर्य भट्ट ने ‘पाई ’ की माप 3.1416 तक निकाली। वर्गमूल निकालने के मौलिक सिद्धान्त बनाये तथा मध्यवर्ती समीकरण (अर्थमेटिक सीरीज इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अ ज – ब व बराबर ख’ और साईन तालिकाओं (साईन टेबलस) का निर्माण भी किया।

ब्रह्मगुप्त का जीवन काल 598 – 665 ईस्वी का है। उन्हों ने नकारात्मक अंकों तथा शून्य का प्रयोग गणित में किया। उन की कृति ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त है जो कि अन्य प्राचीन कृति ब्रह्मसिद्धान्त का शोधन है। इस ग्रन्थ को कालान्तर अरबी भाषा में ‘सिन्द-हिन्द’ के नाम से ख्याति मिली। ब्रह्मगुप्त ने तीन का सिद्धानत और चतुर्भुजी ऐकालिक समीकरण (क्वार्डिक एण्ड साईमल्टेनियस ईक्वेशनस) को सुलझाने सम्बन्धी नियम बनाये। वह प्रथम गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने गणित तथा अंक गणित का विभागी करण किया तथा दोनो को प्रथक अंग माना। उन्हों ने मध्यवर्ती समीकरण (इन्टरमीडियेट ईक्येशनस) ‘अxब=ब2’ को सुलझाया। वह अंक विशलेशण ज्ञान के भी अग्रज थे।

महावीराचार्य ने 850 ईस्वी में गणित-सार सँग्रह लिखा जो विश्व में गणित विषय की प्रथम उपलब्ध पुस्तक है। वह ऐकमात्र भारतीय गणितिज्ञ्य थे जिन्हों ने ग्रहण का प्रथम बार उल्लेख किया है जिसे आयतवृत कहा गया है।

भास्कराचार्य भारत के सर्वाधिक मशहूर गणितिज्ञ्य थे। वह 1114 ईस्वी में बिजडाबिदा (आधुनिक बीजापुर, कर्नाटक) में पैदा हुये थे। उन्हों ने सर्वप्रथम कहा कि “यदि किसी अंक को शून्य से विभाजित किया जाय तो विभाज्य भी शून्य होगा” तथा “असंख्य बार शून्य को जोडने का योगफल शुन्य ही होगा ”। भास्कराचार्य को डिफरेंशियल केलकूलस का जनक कहा जा सकता है तथा रौल्स प्रमेय (थि्योरम) का अग्रज। यह दुर्भाग्य था कि अन्य भारतीय गणितिज्ञ्यों ने इस उपलब्धी के महत्व को नहीं समझा और उस का कोई लाभ नहीं उठाया। पाँच शताब्दी पश्चात न्यूटन तथा लेबनिज ने उन के विचार को विकसित किया।भास्कराचार्य ने 1150 ईसवी में सिद्धान्त-शिरोमणि ग्रन्थ की रचना की जिस के चार भाग इस प्रकार हैं-

लीलावती – गणित की लोकप्रिय पुस्तक।
बीजगणित – इस खण्ड में चक्रावल पद्धति से अंकगणित के समीकरणों (इक्वेशनस) को सुलझाया। छः शताब्दी पश्चात योरूप के गलोईस, इयुलर, लगारंगे इत्यादि पाश्चात्य गणितिज्ञ्यों ने भास्कराचार्य की पद्धति का पुनार्वलोकन कर के विपरीत चक्रवाल (इनवर्स साइकलिक) पद्धति का निर्माण किया।
गोलाध्याय – खगौलिक गोलाकार (स्फीयर सलेस्चियल गलोब) का वर्णन किया है।
ग्रह गणित – खगोल शास्त्र के ग्रहों का ब्योरा।

अंक गणित

भारतीय आधुनिक गणित, अंक गणित और रेखा गणित के जनक थे। योरूपवासियों को अंकगणित अरब वासियों की मार्फत मिला जिसे वह ‘अलजबर’ (अडजस्टमेन्ट) कहते थे। यूनानी गणितिज्ञ्य 106 तक के अंकों को गिन सकते थे और रोमन 108 तक जब कि ईसा से 5 हजार वर्ष पूर्व भारत के गणितिज्ञ्य 53 की दसगुणा शक्ति तक का गणन कर सकते थे। वर्णाक्षरों, चिन्हों का प्रयोग कर के गणितिज्ञ्य असंख्य गणनाओं को दर्शा सकते थे जो कि आज गणित तथा अंक गणित की आधारशिला हैं। हिन्दू गणितिज्ञ्य असंख्यों को चिन्हों के माध्यम से स्पष्ट करने में अग्रज तथा सक्षम थे।

कल्प-ज्योत्मिती – रेखा गणित

वैदिक काल में पूजा के लिये वेदियाँ तथा बलि स्थल ज्योत्मिती (रेखागणित – ज्योमैट्री) के रेखा चित्रों के आकार के ही बनाये जाते थे। वेदियों की आकर्तियाँ रेखा गणित की गणना के अनुकूल बनतीं थीं तथा उन की दिशायें माप दँण्ड के अनुसार ही निर्माण की जाती थीं। ईंट पत्थर के आकार, माप दण्ड तथा संख्या पूर्व निर्धारित होती थी। आकर्तियों का धरातल इस प्रकार निर्मित किया जाता थी कि उन का आकार बदले बिना उन के क्षेत्र का विस्तार किया जा सकता था जिस के लिये रेखा गणित के विस्तरित ज्ञान की आवश्यक्ता पडती थी। ऱेखा गणित को ‘कल्प’ कहा जाता था।

आर्य भट्ट ने त्रिभुज का तथा आयाताकार का क्षेत्रफल निकालने की विधि का अविष्कार किया। उन्हों ने ऐक सूत्र में वृत की परिधि (त्याज्ञ्य) मापने की विधि भी दर्शायी जो चार दशामलव अंकों तक सही है। सुलभ सूत्र में रेखा गणितानुसार वेदियां बनाने का विस्तरित वर्णन है जो आयत, वर्ग, चतुर्भुज, वृत, अण्डाकार (ओवल) आकार की बनायी जा सकतीं थी तथा उन का क्षेत्रफल और आकार वाँच्छित तरीके से अदला बदला जा सकता था।

लगे हाथों महाभारत में दु्र्योद्धन की रेखा गणित सूक्षमता की तारीफ भी करनी चाहिये जब उस नें पाण्डवों को ‘सूई की नोक तले आने वाली भूमि’ देने से भी इनकार कर दिया था। उस का वक्तव्य सूक्षम्ता और स्पष्टता के माप दण्ड को दर्शाता है।

भारतीय गणित के बिना आज की वैज्ञिानिक प्रगति असम्भव थी।


 

DEMOLISHED INDIAN TEMPLES BY MUSLIMS, MANY LIKE BABRI MASJID

There are many mosques all over India which are known to local tradition and the Archaeological Survey of India as built on the site of and, quite frequently, from the materials of, demolished Hindu temples. Most of them carry inscriptions invoking Allah and the Prophet, quoting the Quran and giving details of when, how and by whom they were constructed. The inscriptions have been deciphered and connected to their historical context by learned Muslim epigraphists. They have been published by the, Archaeological Survey of India in its Epigraphia Indica-Arabic and Persian Supplement, an annual which appeared first in 1907-08 as Epigraphia Indo-Moslemica.
 

^ हिन्दू मंदिरों के विध्वंस के शिलालेखी प्रमाण . Epigraphic Evidence on Demolished Hindu Temples - 

केशव राय का महान मंदिर, मथुरा में बीर सिंह देव बुंदेला द्वारा जहांगीर के समय से पहले बनवाया गया था, उस समय इसकी लागत ३३ लाख रूपए आयी थी, ये उस समय देश क सबसे शानदार मंदिरों में से एक था तथा स्थापत्य कला में भी ये मंदिर बहुत महत्वपूर्ण था (चित्र में बायीं तरफ) इसे भगवांन कृष्ण कि जन्मभूमि पर बनाया गया था, इसके दर्शन हेतु विदेशो से भी लोग आया करते थे, बहुत कम लोगों को पता है, शाहजहां का बेटा दारा शिकोह, औरंगजेब के बिलकुल उलट था, उसकी दिलचस्पी हिन्दू धर्म में थी, उसने उपनिषदों का अनुवाद भी करवाया था, उसने मूर्ति के सामने नक्काशीदार पत्थरों की रेलिंग लगवायी थी, जिसके उस पार खड़े होकर भक्त दर्शन करते थे! जिसे औरंगजेब ने अक्टूबर १६६६ को हटा दिया था!

दारा शिकोह की हत्या करने के बाद औरंगजेब ने ये पूरा मंदिर रमजान के महीने में ११ फ़रवरी सन १६७० को रमजान के महीने में तोड़ दिया था, इसकी स्थापत्य कला और विशालता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की इसे पूरी तरह से तोड़ने में ३ दिन लगे थे! (११ फ़रवरी सन १६७० तक) 

अभी जो वर्तमान केशव देव मंदिर आप देखते है, उसे महामना मदन मोहन मालवीय ने अथक प्रयासों से पुनः बनवाया था, ये मंदिर १९६५ में बनकर पूरा हुआ!

ये तो सिर्फ एक छोटा सा उदाहरण था, मुगलों द्वारा मंदिरों के विध्वंस और उनके मलबों के नीचे दफन निर्दोषों की चीख-पुकारों की लिस्ट काफी लम्बी है, शर्मनिरपेक्षों के बहरे कान ना सुन पाएंगे इन्हे

---Ancient Indian UFO

AIUFO_Exclusive Inscriptions on Demolished Hindu Temples: Epigraphic Evidence. [Share Maximum]

There are many mosques all over India which are known to local tradition and the Archaeological Survey of India as built on the site of and, quite frequently, from the materials of, demolished Hindu temples. Most of them carry inscriptions invoking Allah and the Prophet, quoting the Quran and giving details of when, how and by whom they were constructed. The inscriptions have been deciphered and connected to their historical context by learned Muslim epigraphists. They have been published by the, Archaeological Survey of India in its Epigraphia Indica-Arabic and Persian Supplement, an annual which appeared first in 1907-08 as Epigraphia Indo-Moslemica.

#The_following_few_inscriptions_have_been_selected_in_order_to_show_that:-

(1) destruction of Hindu temples continued throughout the period of Muslim domination;

(2) it covered all parts of India-east, west, north and south; and

(3) all Muslim dynasties, imperial and provincial, participated in the “pious performance.”

1. Quwwat al-Islam Masjid, Qutb Minar, Delhi: “This fort was conquered and the Jami Masjid built in the year 587 by the Amir… the slave of the Sultan, may Allalh strengthen his helpers. The materials of 27 idol temples, on each of which 2,000,000 Delhiwals had been spent were used in the (construction of) the mosque…” (1909-10, Pp 3-4). The Amir was Qutbud-Din Aibak, slave of Muizzud-Din Muhammad Ghori. The year 587 H. corresponds to 1192 A.D. “Delhiwal” was a high-denomination coin current at that time in Delhi.

2. Masjid at Manvi in the Raichur District of Karnataka: “Praise be to Allah that by the decree of the Parvardigar, a mosque has been converted out of a temple as a sign of religion in the reign of… the Sultan who is the asylum of Faith … Firuz Shah Bahmani who is the cause of exuberant spring in the garden of religion” (1962, Pp. 56-57). The inscription mentions the year 1406-07 A.D. as the time of construction.

3. Jami Masjid at Malan, Palanpur Taluka, Banaskantha District of Gujarat: “The Jami Masjid was built… by Khan-I-Azam Ulugh Khan… who suppressed the wretched infidels. He eradicated the idolatrous houses and mine of infidelity, along with the idols… with the edge of the sword, and made ready this edifice… He made its walls and doors out of the idols; the back of every stone became the place for prostration of the believer” (1963, Pp. 26-29). The date of construction is mentioned as 1462 A.D. in the reign of Mahmud Shah I (Begada) of Gujarat.

4. Hammam Darwaza Masjid at Jaunpur in Uttar Pradesh: “Thanks that by the guidance of the Everlasting and the Living (Allah), this house of infidelity became the niche of prayer. As a reward for that, the Generous Lord constructed an abode for the builder in paradise” (1969, p. 375). Its chronogram yields the year 1567 A.D. in the reign of Akbar, the Great Mughal. A local historian, Fasihud-Din, tells us that the temple had been built earlier by Diwan Lachhman Das, an official of the Mughal government.

5. Jami Masjid at Ghoda in the Poona District of Maharashtra: “O Allah! 0 Muhammad! O Ali! When Mir Muhammad Zaman made up his mind, he opened the door of prosperity on himself by his own hand. He demolished thirty-three idol temples (and) by divine grace laid the foundation of a building in this abode of perdition” (1933-34, p.24). The inscription is dated 1586 A.D. when the Poona region was ruled by the Nizam Shahi sultans of Ahmadnagar.

6. Gachinala Masjid at Cumbum in the Kurnool District of Andhra Pradesh: “He is Allah, may he be glorified… During the august rule of… Muhammad Shah, there was a well-established idol-house in Kuhmum… Muhammad Salih who prospers in the rectitude of the affairs of Faith… razed to the ground, the edifice of the idol-house and broke the idols in a manly fashion. He constructed on its site a suitable mosque, towering above the buildings of all” (1959-60, Pp. 64-66). The date of construction is mentioned as 1729-30 A.D. in the reign of the Mughal Emperor Muhammad Shah.

Though sites of demolished Hindu temples were mostly used for building mosques and idgahs, temple materials were often used in other Muslim monuments as well. Archaeologists have discovered such materials, architectural as well as sculptural, in quite a few forts, palaces, maqbaras, sufi khanqahs, madrasas, etc. In Srinagar, Kashmir, temple materials can be seen in long stretches of the stone embankments on both sides of the Jhelum. Two inscriptions on the walls of the Gopi Talav, a stepped well at Surat, tell us that the well was constructed by Haidar Quli, the Mughal governor of Gujarat, in 1718 A.D. in the reign of Farrukh Siyar. One of them says, “its bricks were taken from an idol temple.” The other informs us that “Haider Quli Khan, during whose period tyranny has become extinct, laid waste several idol temples in order to make this strong building firm…” (1933-34, Pp. 37-44).

#Literary_Evidence

Literary evidence of Islamic iconoclasm vis-a-vis Hindu places of worship is far more extensive. It covers a longer span of time, from the fifth decade of the 7th century to the closing years of the eighteenth. It also embraces a larger space, from Transoxiana in the north to Tamil Nadu in the south, and from Afghanistan in the west to Assam in the east. Marxist “historians” and Muslim apologists would have us believe that medieval Muslim annalists were indulging in poetic exaggerations in order to please their pious patrons. Archaeological explorations in modern times have, however, provided physical proofs of literary descriptions. The vast cradle of Hindu culture is literally littered with ruins of temples and monasteries belonging to all sects of Sanatana Dharma – Buddhist, Jain, Saiva, Shakta, Vaishnava and the rest.

Almost all medieval Muslim historians credit their heroes with desecration of Hindu idols and/or destruction of Hindu temples. The picture that emerges has the following components, depending upon whether the iconoclast was in a hurry on account of Hindu resistance or did his work at leisure after a decisive victory:

1. The idols were mutilated or smashed or burnt or melted down if they were made of precious metals.

2. Sculptures in relief on walls and pillars were disfigured or scraped away or torn down.

3. Idols of stone and inferior metals or their pieces were taken away, sometimes by cartloads, to be thrown down before the main mosque in (a) the metropolis of the ruling Muslim sultan and (b) the holy cities of Islam, particularly Mecca, Medina and Baghdad.

4. There were instances of idols being turned into lavatory seats or handed over to butchers to be used as weights while selling meat.

5. Brahmin priests and other holy men in and around the temple were molested or murdered.

6. Sacred vessels and scriptures used in worship were defiled and scattered or burnt.

7. Temples were damaged or despoiled or demolished or burnt down or converted into mosques with some structural alterations or entire mosques were raised on the same sites mostly with temple materials.

8. Cows were slaughtered on the temple sites so that Hindus could not use them again.

The literary sources, like epigraphic, provide evidence of the elation which Muslims felt while witnessing or narrating these “pious deeds.” A few citations from Amir Khusru will illustrate the point. The instances cited relate to the doings of Jalalud-Din Firuz Khalji, Alaud-Din Khalji and the letter’s military commanders. Khusru served as a court-poet of sex successive sultans at Delhi and wrote amasnavi in praise of each. He was the dearest disciple of Shaikh Nizamud-Din Awliya and has come to be honoured as some sort of a sufi himself. In our own times, he is being hailed is the father of a composite Hindu-Muslim culture and the pioneer of secularism. Dr. R. C. Majumdar, whom the Marxists malign as a “communalist historian” names him as a “liberal Muslim”.

1. Jhain: “Next morning he (Jalalud-Din) went again to the temples and ordered their destruction… While the soldiers sought every opportunity of plundering, the Shah was engaged in burning the temples and destroying the idols. There were two bronze idols of Brahma, each of which weighed more than a thousand mans. These were broken into pieces and the fragments were distributed among the officers, with orders to throw them down at the gates of the Masjid on their return (to Delhi)” (Miftah-ul-Futuh).

2. Devagiri: “He (Alaud-Din) destroyed the temples of the idolaters and erected pulpits and arches for mosques” (Ibid.).

3. Somanath: “They made the temple prostrate itself towards the Kaaba. You may say that the temple first offered its prayers and then had a bath (i.e. the temple was made to topple and fall into the sea)… He (Ulugh Khan) destroyed all the idols and temples, but sent one idol, the biggest of all idols, to the court of his Godlike Majesty and on that account in that ancient stronghold of idolatry, the summons to prayers was proclaimed so loudly that they heard it in Misr (Egypt) and Madain (Iraq)” (Tarikh-i-Alai).

4. Delhi: “He (Alaud-Din) ordered the circumference of the new minar to be made double of the old one (Qutb Minar)… The stones were dug out from the hills and the temples of the infidels were demolished to furnish a supply” (Ibid.).

5. Ranthambhor: “This strong fort was taken by the slaughter of the stinking Rai. Jhain was also captured, an iron fort, an ancient abode of idolatry, and a new city of the people of the faith arose. The temple of Bahir (Bhairava) Deo and temples of other gods, were all razed to the ground” (Ibid.).

6. Brahmastpuri (Chidambaram): “Here he (Malik Kafur) heard that in Bramastpuri there was a golden idol… He then determined on razing the temple to the ground… It was the holy place of the Hindus which the Malik dug up from its foundations with the greatest care, and the heads of brahmans and idolaters danced from their necks and fell to the ground at their feet, and blood flowed in torrents. The stone idols called Ling Mahadeo, which had been established a long time at the place and on which the women of the infidels rubbed their vaginas for (sexual) satisfaction, these, up to this time, the kick of the horse of Islam had not attempted to break. The Musulmans destroyed in the lings and Deo Narain fell down, and other gods who had fixed their seats there raised feet and jumped so high that at one leap they reached the fort of Lanka, and in that affright the lings themselves would have fled had they had any legs to stand on” (Ibid).

7. Madura: “They found the city empty for the Rai had fled with the Ranis, but had left two or three hundred elephants in the temple of Jagnar (Jagannatha). The elephants were captured and the temple burnt” (Ibid.).

8. Fatan: (Pattan): “There was another rai in these parts …a Brahmin named Pandya Guru… his capital was Fatan, where there was a temple with an idol in it laden with jewels. The rai fled when the army of the Sultan arrived at Fatan… They then struck the idol with an iron hatchet, and opened its head. Although it was the very Qibla of the accursed infidels, it kissed the earth and filled the holy treasury” (Ashiqa).

9. Ma’bar: (Parts of South India): “On the right hand and on the left hand the army has conquered from sea to sea, and several capitals of the gods of the Hindus, in which Satanism has prevailed since the time of the Jinns, have been demolished. All these impurities of infidelity have been cleansed by the Sultan’s destruction of idol-temples, beginning with his first holy expedition to Deogir, so that the flames of the light of the Law (of Islam) illumine all these unholy countries, and places for the criers of prayers are exalted on high, and prayers are read in mosques. Allah be praised!” (Tarikh-i-Alai).

The story of how Islamic invaders sought to destroy the very foundations of Hindu society and culture is long and extremely painful. It would certainly be better for everybody to forget the past, but for the prescriptions of Islamic theology which remain intact and make it obligatory for believers to destroy idols and idol temples.

Courtesy - Indian Express, February 19, 1989

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1) destruction of Hindu temples continued throughout the period of Muslim domination;

(2) it covered all parts of India-east, west, north and south; and

(3) all Muslim dynasties, imperial and provincial, participated in the “pious performance.”

1. Quwwat al-Islam Masjid, Qutb Minar, Delhi: “This fort was conquered and the Jami Masjid built in the year 587 by the Amir… the slave of the Sultan, may Allalh strengthen his helpers. The materials of 27 idol temples, on each of which 2,000,000 Delhiwals had been spent were used in the (construction of) the mosque…” (1909-10, Pp 3-4). The Amir was Qutbud-Din Aibak, slave of Muizzud-Din Muhammad Ghori. The year 587 H. corresponds to 1192 A.D. “Delhiwal” was a high-denomination coin current at that time in Delhi.

2. Masjid at Manvi in the Raichur District of Karnataka: “Praise be to Allah that by the decree of the Parvardigar, a mosque has been converted out of a temple as a sign of religion in the reign of… the Sultan who is the asylum of Faith … Firuz Shah Bahmani who is the cause of exuberant spring in the garden of religion” (1962, Pp. 56-57). The inscription mentions the year 1406-07 A.D. as the time of construction.

3. Jami Masjid at Malan, Palanpur Taluka, Banaskantha District of Gujarat: “The Jami Masjid was built… by Khan-I-Azam Ulugh Khan… who suppressed the wretched infidels. He eradicated the idolatrous houses and mine of infidelity, along with the idols… with the edge of the sword, and made ready this edifice… He made its walls and doors out of the idols; the back of every stone became the place for prostration of the believer” (1963, Pp. 26-29). The date of construction is mentioned as 1462 A.D. in the reign of Mahmud Shah I (Begada) of Gujarat.

4. Hammam Darwaza Masjid at Jaunpur in Uttar Pradesh: “Thanks that by the guidance of the Everlasting and the Living (Allah), this house of infidelity became the niche of prayer. As a reward for that, the Generous Lord constructed an abode for the builder in paradise” (1969, p. 375). Its chronogram yields the year 1567 A.D. in the reign of Akbar, the Great Mughal. A local historian, Fasihud-Din, tells us that the temple had been built earlier by Diwan Lachhman Das, an official of the Mughal government.

5. Jami Masjid at Ghoda in the Poona District of Maharashtra: “O Allah! 0 Muhammad! O Ali! When Mir Muhammad Zaman made up his mind, he opened the door of prosperity on himself by his own hand. He demolished thirty-three idol temples (and) by divine grace laid the foundation of a building in this abode of perdition” (1933-34, p.24). The inscription is dated 1586 A.D. when the Poona region was ruled by the Nizam Shahi sultans of Ahmadnagar.

6. Gachinala Masjid at Cumbum in the Kurnool District of Andhra Pradesh: “He is Allah, may he be glorified… During the august rule of… Muhammad Shah, there was a well-established idol-house in Kuhmum… Muhammad Salih who prospers in the rectitude of the affairs of Faith… razed to the ground, the edifice of the idol-house and broke the idols in a manly fashion. He constructed on its site a suitable mosque, towering above the buildings of all” (1959-60, Pp. 64-66). The date of construction is mentioned as 1729-30 A.D. in the reign of the Mughal Emperor Muhammad Shah.

Though sites of demolished Hindu temples were mostly used for building mosques and idgahs, temple materials were often used in other Muslim monuments as well. Archaeologists have discovered such materials, architectural as well as sculptural, in quite a few forts, palaces, maqbaras, sufi khanqahs, madrasas, etc. In Srinagar, Kashmir, temple materials can be seen in long stretches of the stone embankments on both sides of the Jhelum. Two inscriptions on the walls of the Gopi Talav, a stepped well at Surat, tell us that the well was constructed by Haidar Quli, the Mughal governor of Gujarat, in 1718 A.D. in the reign of Farrukh Siyar. One of them says, “its bricks were taken from an idol temple.” The other informs us that “Haider Quli Khan, during whose period tyranny has become extinct, laid waste several idol temples in order to make this strong building firm…” (1933-34, Pp. 37-44).
Literary evidence of Islamic iconoclasm vis-a-vis Hindu places of worship is far more extensive. It covers a longer span of time, from the fifth decade of the 7th century to the closing years of the eighteenth. It also embraces a larger space, from Transoxiana in the north to Tamil Nadu in the south, and from Afghanistan in the west to Assam in the east. Marxist “historians” and Muslim apologists would have us believe that medieval Muslim annalists were indulging in poetic exaggerations in order to please their pious patrons. Archaeological explorations in modern times have, however, provided physical proofs of literary descriptions. The vast cradle of Hindu culture is literally littered with ruins of temples and monasteries belonging to all sects of Sanatana Dharma – Buddhist, Jain, Saiva, Shakta, Vaishnava and the rest.

Almost all medieval Muslim historians credit their heroes with desecration of Hindu idols and/or destruction of Hindu temples. The picture that emerges has the following components, depending upon whether the iconoclast was in a hurry on account of Hindu resistance or did his work at leisure after a decisive victory:

1. The idols were mutilated or smashed or burnt or melted down if they were made of precious metals.

2. Sculptures in relief on walls and pillars were disfigured or scraped away or torn down.

3. Idols of stone and inferior metals or their pieces were taken away, sometimes by cartloads, to be thrown down before the main mosque in (a) the metropolis of the ruling Muslim sultan and (b) the holy cities of Islam, particularly Mecca, Medina and Baghdad.

4. There were instances of idols being turned into lavatory seats or handed over to butchers to be used as weights while selling meat.

5. Brahmin priests and other holy men in and around the temple were molested or murdered.

6. Sacred vessels and scriptures used in worship were defiled and scattered or burnt.

7. Temples were damaged or despoiled or demolished or burnt down or converted into mosques with some structural alterations or entire mosques were raised on the same sites mostly with temple materials.

8. Cows were slaughtered on the temple sites so that Hindus could not use them again.

The literary sources, like epigraphic, provide evidence of the elation which Muslims felt while witnessing or narrating these “pious deeds.” A few citations from Amir Khusru will illustrate the point. The instances cited relate to the doings of Jalalud-Din Firuz Khalji, Alaud-Din Khalji and the letter’s military commanders. Khusru served as a court-poet of sex successive sultans at Delhi and wrote amasnavi in praise of each. He was the dearest disciple of Shaikh Nizamud-Din Awliya and has come to be honoured as some sort of a sufi himself. In our own times, he is being hailed is the father of a composite Hindu-Muslim culture and the pioneer of secularism. Dr. R. C. Majumdar, whom the Marxists malign as a “communalist historian” names him as a “liberal Muslim”.

1. Jhain: “Next morning he (Jalalud-Din) went again to the temples and ordered their destruction… While the soldiers sought every opportunity of plundering, the Shah was engaged in burning the temples and destroying the idols. There were two bronze idols of Brahma, each of which weighed more than a thousand mans. These were broken into pieces and the fragments were distributed among the officers, with orders to throw them down at the gates of the Masjid on their return (to Delhi)” (Miftah-ul-Futuh).

2. Devagiri: “He (Alaud-Din) destroyed the temples of the idolaters and erected pulpits and arches for mosques” (Ibid.).

3. Somanath: “They made the temple prostrate itself towards the Kaaba. You may say that the temple first offered its prayers and then had a bath (i.e. the temple was made to topple and fall into the sea)… He (Ulugh Khan) destroyed all the idols and temples, but sent one idol, the biggest of all idols, to the court of his Godlike Majesty and on that account in that ancient stronghold of idolatry, the summons to prayers was proclaimed so loudly that they heard it in Misr (Egypt) and Madain (Iraq)” (Tarikh-i-Alai).

4. Delhi: “He (Alaud-Din) ordered the circumference of the new minar to be made double of the old one (Qutb Minar)… The stones were dug out from the hills and the temples of the infidels were demolished to furnish a supply” (Ibid.).

5. Ranthambhor: “This strong fort was taken by the slaughter of the stinking Rai. Jhain was also captured, an iron fort, an ancient abode of idolatry, and a new city of the people of the faith arose. The temple of Bahir (Bhairava) Deo and temples of other gods, were all razed to the ground” (Ibid.).

6. Brahmastpuri (Chidambaram): “Here he (Malik Kafur) heard that in Bramastpuri there was a golden idol… He then determined on razing the temple to the ground… It was the holy place of the Hindus which the Malik dug up from its foundations with the greatest care, and the heads of brahmans and idolaters danced from their necks and fell to the ground at their feet, and blood flowed in torrents. The stone idols called Ling Mahadeo, which had been established a long time at the place and on which the women of the infidels rubbed their vaginas for (sexual) satisfaction, these, up to this time, the kick of the horse of Islam had not attempted to break. The Musulmans destroyed in the lings and Deo Narain fell down, and other gods who had fixed their seats there raised feet and jumped so high that at one leap they reached the fort of Lanka, and in that affright the lings themselves would have fled had they had any legs to stand on” (Ibid).

7. Madura: “They found the city empty for the Rai had fled with the Ranis, but had left two or three hundred elephants in the temple of Jagnar (Jagannatha). The elephants were captured and the temple burnt” (Ibid.).

8. Fatan: (Pattan): “There was another rai in these parts …a Brahmin named Pandya Guru… his capital was Fatan, where there was a temple with an idol in it laden with jewels. The rai fled when the army of the Sultan arrived at Fatan… They then struck the idol with an iron hatchet, and opened its head. Although it was the very Qibla of the accursed infidels, it kissed the earth and filled the holy treasury” (Ashiqa).

9. Ma’bar: (Parts of South India): “On the right hand and on the left hand the army has conquered from sea to sea, and several capitals of the gods of the Hindus, in which Satanism has prevailed since the time of the Jinns, have been demolished. All these impurities of infidelity have been cleansed by the Sultan’s destruction of idol-temples, beginning with his first holy expedition to Deogir, so that the flames of the light of the Law (of Islam) illumine all these unholy countries, and places for the criers of prayers are exalted on high, and prayers are read in mosques. Allah be praised!” (Tarikh-i-Alai).

The story of how Islamic invaders sought to destroy the very foundations of Hindu society and culture is long and extremely painful. It would certainly be better for everybody to forget the past, but for the prescriptions of Islamic theology which remain intact and make it obligatory for believers to destroy idols and idol temples.

Courtesy - Indian Express, February 19, 1989



Ancient Hindus ~ Inventor of Binary Numbers in 2nd Century BCE.






Pingala (in Chandaḥśāstra 8.23) has assigned the following combinations of zero and one to represent various numbers, much in the same way as the present day computer programming procedures.

0 0 0 0 numerical value = 1
1 0 0 0 numerical value = 2
0 1 0 0 numerical value = 3
1 1 0 0 numerical value = 4
0 0 1 0 numerical value = 5
1 0 1 0 numerical value = 6
0 1 1 0 numerical value = 7
1 1 1 0 numerical value = 8
0 0 0 1 numerical value = 9
1 0 0 1 numerical value = 10
0 1 0 1 numerical value = 11
1 1 0 1 numerical value = 12
0 0 1 1 numerical value = 13
1 0 1 1 numerical value = 14
0 1 1 1 numerical value = 15
1 1 1 1 numerical value = 16

Other numbers have also been assigned zero and one combinations likewise.
Pingala’s system of binary numbers starts with number one (and not zero). The numerical value is obtained by adding one to the sum of place values. In this system, the place value increases to the right, as against the modern notation in which it increases towards the left.

The procedure of Pingala system is as follows:

Divide the number by 2. If divisible write 1, otherwise write 0.
If first division yields 1 as remainder, add 1 and divide again by 2. If fully divisible, write 1, otherwise write 0 to the right of first 1.
If first division yields 0 as remainder that is, it is fully divisible, add 1 to the remaining number and divide by 2. If divisible, write 1, otherwise write 0 to the right of first 0.
This procedure is continued until 0 as final remainder is obtained.
Example to understand Pingala System of Binary Numbers :

Find Binary equivalent of 122 in Pingala System :

Divide 122 by 2. Divisible, so write 1 and remainder is 61. 1
Divide 61 by 2. Not Divisible and remainder is 30. So write 0 right to 1. 10
Add 1 to 61 and divide by 2 = 31.
Divide 31 by 2. Not Divisible and remainder is 16. So write 0 to the right. 100
Divide 16 by 2. Divisible and remainder is 8. So write 1 to right. 1001
Divide 8 by 2. Divisible and remainder is 4. So write 1 to right. 10011
Divide 4 by 2. Divisible and remainder is 2. So write 1 to right. 100111
Divide 2 by 2. Divisible. So place 1 to right. 1001111
Now we have 122 equivalent to 1001111.

Verify this by place value system : 1×1 + 0×2 + 0×4 + 1×8 + 1×16 + 1×32 + 1×64 = 64+32+16+8+1 = 121
By adding 1(which we added while dividing 61) to 121 = 122, which is our desired number.
In Pingala system, 122 can be written as 1001111.

Though this system is not exact equivalent of today’s binary system used, it is very much similar with its place value system having 20, 20, 21, 22, 22, 23, 24, 25, 26 etc used to multiple binary numbers sequence and obtain equivalent decimal number.

Reference : Chandaḥśāstra (8.24-25) describes above method of obtaining binary equivalent of any decimal number in detail.
These were used 1600 years before westeners invented binary system.

We now use zero and one (0 and 1) in representing binary numbers, but it is not known if the concept of zero was known to Pingala— as a number without value and as a positional location.
Pingala’s work also contains the Fibonacci number, called mātrāmeru, and now known as the Gopala–Hemachandra number. Pingala also knew the special case of the binomial theorem for the index 2, i.e. for (a + b) 2, as did his Greek contemporary Euclid.

Halayudha (10th century AD) who wrote a commentary on Pingala’s work understood and used zero in the modern sense but by then it was commonplace in India and had also begun to make its way to West Asia as well to countries like Indonesia, Cambodia and others in East and Southeast Asia. It took several centuries more before being accepted in Europe. It was Leonardo of Pisa, better known as Fibonacci who seems to have introduced it in Europe in the 13th century. (He learnt it from the Arabs but noted that it came from India. His successors were not so careful, and for centuries they were known as Arabic numerals.)

Halayudha was himself a mathematician no mean order. His discussion of combinatorics of poetic meters led him to a general version of the binomial theorem centuries before Newton. (This was the integer version only and not the full general version with arbitrary index given by Newton.) This too traveled east and west with the Persian mathematician and poet using the results in the 13th century.
Halāyudha’s commentary includes a presentation of the Pascal’s triangle for binomial coefficients (called meruprastāra).

Chandaḥśāstra presents the first known description of a binary numeral system in connection with the systematic enumeration of meters with fixed patterns of short and long syllables (Short = 0, Long = 1).

Use of zero is sometimes mistakenly ascribed to Pingala due to his discussion of binary numbers, usually represented using 0 and 1 in modern discussion, while Pingala used short and long syllables.
As Pingala’s system ranks binary patterns starting at one (four short syllables—binary “0000″—is the first pattern), the nth pattern corresponds to the binary representation of n-1, written backwards. Positional use of zero dates from later centuries and would have been known to Halāyudha but not to Pingala.

BIOLOGICAL ACHIEVEMENT OF ANCIENT INDIA

Biological Achievements of Ancient India-VERIFIED-
srimadbhagavatam
Medical science was far advanced during ancient times of the Vedas, the Mahabharata and the Puranas. It is proved with evidence that Cloning, which is supposed to be the highest achievement of the modern world, was done in Vedic era to produce a horse ‘Hari’ and a cow ‘Wishwaroopa’. The cow was cloned from the skin of a cow, similar to the modern cloning of a lamb ‘Dolly’, from an udder of a sheep. Human clones were developed, even fr...om a dead man. Cloning from layers of skin and from drops of blood was done. Test tube babies were prepared. Parthenogenesis was performed producing six male children. From an aborted embryo 101 full grown children were produced. Chamasa was divided to make four animals from a single fertilized ovum. In vitro development of foetuses was carried out.

Life science was fully studied, so the sages knew about the chromosomes which were termed as ‘Gunawidhi’.(Mahabharata Shanti 308) This is a perfectly scientific term; because these principles control the characters i.e. ‘Guna’ and also ‘Widhi’, the functions, of a person. Even the chromosome number 23, specific for human beings is recorded, in the Mahabharata and the Bhagawata. It is also stated that these principles give rise to genetic diseases. A list of genetic diseases is given in the Mahabharata, which is similar to the list in the modern science. Bhagawata (3/6/1-7) has recorded that these 23 Gunavidhi of a male gamete enter the female gamete and unite with her 23 Gunavidhi to stimulate them so that a zygote is formed. Then the zygote, which is termed as ‘Kalala’, goes on dividing once, ten times, three times. It means that the cell divides once to give rise to two cells. This happens ten times so that two raised to the power of ten cells form. This happens thrice, at three layers namely Endoderm, Mesoderm and Ectoderm. This multiplication produces two raised to the power of thirty cells, which are really present in a newborn baby, according to the modern science.

How could the sages achieve such a vast and microscopic knowledge? All the stages of growth of an embryo are given in the Bhagawata commencing from the first day up to the full term. These stages concur with those proved by modern science, and some times supercede the modern science. Bhagawata records that heart of a foetus begins its work in the second month of pregnancy. This fact was unknown to the modern science till December 1972. Medical science presumed till then, that the foetal heart began in the fifth month of pregnancy, but then with the use of Disonar apparatus it was confirmed that the foetal heart begins in the second month of pregnancy. This is now well known due to ultrasonography. Aitareya Upanishad, which is composed in about 6000 B.C., much earlier than the Bhagawata [of 1652 B.C.] also states the same fact.

The Bhagawata (2/1022, 3/26/55) states that ears are responsible for recognizing the directions. This is proved by the modern science after 1935, when the Labyrinth or the Vestibular apparatus was discovered in the internal ear.

During Vedic era, Rubhus had divided one ‘Chamas’ (pel), which was prepared by the God Twashta, into four parts.(RV.1-20-6, 1-110-5, 4-33-5, 4-35-3,4, 4-36-4) that ‘Chamas’ means an urn containing life. The word ‘Chamas’ is formed of two components Cham + Asa. The verb ‘Cham’ pe~ means to drink, to eat. The verb ‘Asa’ vl~ means to live, to exist. Therefore, Chamas means a thing, which eats and drinks to live. It means in the modern language a primary cell, full of life or a fertilized ovum.

Other achievements like Parthenogesis, Test-tube-baby etc are also reported in ancient literature of India. The technique of division of Chamasa might have been used by Great Sage Vedayasa.

EQUATION CALCULUS IN INDIAN CULTURE/SCRIPTURES.

The use of symbols-letters of the alphabet to denote unknowns, and equations are the foundations of the science of algebra. The Hindus were the first to make systematic use of the letters of the alphabet to denote unknowns. They were also the first to classify and make a detailed study of equations. Thus they may be said to have given birth to the modern science of algebra.

The great Indian mathematician Bhaskaracharya (1150 C.E.)... produced extensive treatises on both plane and spherical trigonometry and algebra, and his works contain remarkable solutions of problems which were not discovered in Europe until the seventeenth and eighteenth centuries. He preceded Newton by over 500 years in the discovery of the principles of differential calculus. click here ORIGIN OF CALCULUS

A.L. Basham writes further, “The mathematical implications of zero (sunya) and infinity, never more than vaguely realized by classical authorities, were fully understood in medieval India”.

Earlier mathematicians had taught that X/0 = X, but Bhaskara proved the contrary. He also established mathematically what had been recognized in Indian theology at least a millennium earlier: that infinity, however divided, remains infinite, represented by the equation oo /X = oo.” In the 14th century, Madhava, isolated in South India, developed a power series for the arc tangent function, apparently without the use of calculus, allowing the calculation of pi to any number of decimal places (since arctan 1 = pi/4). Whether he accomplished this by inventing a system as good as calculus or without the aid of calculus; either way it is astonishing.

Spiritually advanced cultures were not ignorant of the principles of mathematics, but they saw no necessity to explore those principles beyond that which was helpful in the advancement of God realization.

By the fifteenth century C.E. use of the new mathematical concepts from India had spread all over Europe to Britain, France, Germany, and Italy, among others.

A.L. Basham states also that: ”The debt of the Western world to India in this respect (the field of mathematics) cannot be overestimated. Most of the great discoveries and inventions of which Europe is so proud would have been impossible without a developed system of mathematics, and this in turn would have been impossible if Europe had been shackled by the unwieldy system of Roman numerals. The unknown man who devised the new system was, from the world’s point of view, after the Buddha, the most important son of India. His achievement, though easily taken for granted, was the work of an analytical mind of the first order, and he deserves much more honor than he has so far received”.

Unfortunately, Eurocentrism has effectively concealed from the common man the fact that we owe much in the way of mathematics to ancient India. Reflection on this may cause modern man to consider more seriously the spiritual preoccupation of ancient India. The rishis (seers) were not men lacking in practical knowledge of the world, dwelling only in the realm of imagination. They were well developed in secular knowledge, yet only insofar as they felt it was necessary within a world view in which consciousness was held as primary.

In ancient India, mathematics served as a bridge between understanding material reality and the spiritual conception. Vedic mathematics differs profoundly from Greek mathematics in that knowledge for its own sake (for its aesthetic satisfaction) did not appeal to the Indian mind. The mathematics of the Vedas lacks the cold, clear, geometric precision of the West; rather, it is cloaked in the poetic language which so distinguishes the East.

Vedic mathematicians strongly felt that every discipline must have a purpose, and believed that the ultimate goal of life was to achieve self-realization and love of God and thereby be released from the cycle of birth and death. Those practices which furthered this end either directly or indirectly were practiced most rigorously. Outside of the religio-astronomical sphere, only the problems of day to day life (such as purchasing and bartering) interested the Indian mathematicians.