Tuesday, January 7, 2014

हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

 हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

Photo: ^ हिन्दुओ के रक्षक - महाराजा रंजीत सिंह

पंजाब एवं समस्त उत्तर भारत में सिखों का झंडा गाड़ने वालों और कई अंग्रेज अधिकारियों को दाँतों तले उंगलियां चबाने को मजबूर करने वाले परम-वीर और महान देश भक्त महाराजा रणजीत सिंह जी की १७४वी पुण्य-तिथि पर कृतग्य राष्ट्र को सत्-सत् नमन..

..महा-व्यक्तित्वों के धनी इस देश भारत में इतने वीर-वीरांगनाएं जन्मीं हैं कि गिनती करते-करते कई वर्ष भी बीत जाएँ तो भी कम हैं...

आज इसी कड़ी में एक ऐसी महा-वीर का जीवन आपके सामने प्रस्तुत है जिन्हें पंजाब और उत्तर भारत का 'महाराणा ' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी......आज पढते हैं उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह जी के बारे में जिनकी वीरता के कारण अंग्रेजों को दाँतों तले उंगलियां चबाने मजबूर होना पढ़ा था...

...निवेदन है कि अगर आपको उनका जीवन और उनके देशभक्ति के कार्य पसंद आये तो अपने घर के किसी छोटे बच्चे को भी उनकी यह जीवनी बताएं...जिससे कि आपके बच्चों का जीवन शाहरुख-सलमान-धोनी-सचिन नाम के राक्षसों के साये में सदा के लिए देशद्रोह के कार्य में लग जाने न पाए...

महाराणा रणजीत सिंह को एक उपनाम 'शेरे पंजाब' के नाम से भी जाना जाता था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, 'बदरूख़ाँ' या 'गुजरांवाला', भारत में हुआ था। रणजीत सिंह पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे। रणजीत सिंह सिक्खों के बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में रावी नदी एवं चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था।

रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रिया-कलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की।

1798 - 1799 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक 'जमानशाह' ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक फ्राँस का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव भारत पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, ईरान व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। 25 अप्रैल, 1809 को 'चार्ल्स मैटकॉफ़' और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य 'अमृतसर की सन्धि' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी के पूर्वी तट के क्षेत्र अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गये। 

चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और ईरान के इंग्लैण्ड से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।

1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखा से सहायता मांगी और 'अमर सिंह थापा' के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। दीवान मोहकम चन्द के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को काबुल से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उसे कोहिनूर हीरा भेंट किया। रणजीत सिंह ने सिन्ध के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में पेशावर जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में मुल्तान एवं 1819 ई. में कश्मीर पर अधिकार कर चुके थे।

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी 'खालसा' के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था। उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। फ़कीर 'अजीजुद्दीन' उनका विदेशमंत्री तथा दीवान 'दीनानाथ' उनका वितमंत्री था।

रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।

रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों 'अलार्ड' एवं 'वन्तूरा' के अधीन रखा। वन्तूरा 'फौज-ए-ख़ास' की पदाति तथा अर्लाड 'घुड़सवार' पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक 'इलाही बख़्श' था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें - वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने लाहौर और अमृतसर में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे 'महादारी' कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

59 वर्ष की आयु में 7 जून, 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

एक फ़्राँसीसी पर्यटक 'विक्टर जैकोमाण्ट' ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों 'खड़क सिंह', 'नौनिहाल सिंह' व 'शेर सिंह' में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि अंग्रेज़ पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध था।

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पंजाब एवं समस्त उत्तर भारत में सिखों का झंडा गाड़ने वालों और कई अंग्रेज अधिकारियों को दाँतों तले उंगलियां चबाने को मजबूर करने वाले परम-वीर और महान देश भक्त महाराजा रणजीत सिंह जी की १७४वी पुण्य-तिथि प...र कृतग्य राष्ट्र को सत्-सत् नमन..

..महा-व्यक्तित्वों के धनी इस देश भारत में इतने वीर-वीरांगनाएं जन्मीं हैं कि गिनती करते-करते कई वर्ष भी बीत जाएँ तो भी कम हैं...

आज इसी कड़ी में एक ऐसी महा-वीर का जीवन आपके सामने प्रस्तुत है जिन्हें पंजाब और उत्तर भारत का 'महाराणा ' कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी......आज पढते हैं उन्हीं महाराजा रणजीत सिंह जी के बारे में जिनकी वीरता के कारण अंग्रेजों को दाँतों तले उंगलियां चबाने मजबूर होना पढ़ा था...

...निवेदन है कि अगर आपको उनका जीवन और उनके देशभक्ति के कार्य पसंद आये तो अपने घर के किसी छोटे बच्चे को भी उनकी यह जीवनी बताएं...जिससे कि आपके बच्चों का जीवन शाहरुख-सलमान-धोनी-सचिन नाम के राक्षसों के साये में सदा के लिए देशद्रोह के कार्य में लग जाने न पाए...

महाराणा रणजीत सिंह को एक उपनाम 'शेरे पंजाब' के नाम से भी जाना जाता था। इनका जन्म 13 नवम्बर, 1780 में, 'बदरूख़ाँ' या 'गुजरांवाला', भारत में हुआ था। रणजीत सिंह पंजाब के सिक्ख राज्य के संस्थापक और महाराज (1801-1839) थे। रणजीत सिंह सिक्खों के बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में रावी नदी एवं चिनाब नदी के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था।

रणजीत सिंह के पिता महासिंह सुकरचकिया मिसल के मुखिया थे। जिस समय रणजीत सिंह की आयु केवल 12 वर्ष की थी, उसी समय उनके पिता का देहान्त हो गया और बाल्यावस्था में ही वह सिक्ख मिसलों के एक छोटे से समूह के सरदार बना दिये गए। 15 वर्ष की आयु में 'कन्हया मिसल' के सरदार की बेटी से उनका विवाह हुआ और कई वर्ष तक उनके क्रिया-कलाप उनकी महत्त्वाकांक्षी विधवा सास सदाकौर द्वारा ही निर्देशित होते रहे। नक्कइयों की बेटी के साथ दूसरे विवाह ने रणजीत सिंह को सिक्ख रजवाड़ों (सामन्तों) के बीच महत्त्वपूर्ण बना दिया। ज़िन्दाँ रानी रणजीत सिंह की पाँचवी रानी तथा उनके सबसे छोटे बेटे दलीप सिंह की माँ थीं। आरम्भ में उनका शासन केवल एक छोटे-से भूखण्ड पर था और सैन्यबल भी सीमित था। 1793 ई. से 1798 ई. के बीच अफ़ग़ान शासक जमानशाह के निरन्तर आक्रमणों के फलस्वरूप पंजाब में इतनी अराजकता फैल गई कि उन्नीस वर्षीय रणजीत सिंह ने 1799 ई. के जुलाई मास में लाहौर पर अधिकार कर लिया और जमानशाह ने परिस्थितिवश उनको वहाँ का उपशासक स्वीकार करते हुए राजा की उपाधि प्रदान की।

1798 - 1799 ई. में अफ़ग़ानिस्तान के शासक 'जमानशाह' ने पंजाब पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को लाहौर का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने अमृतसर एवं जम्मू पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनीतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक फ्राँस का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव भारत पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, ईरान व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। 25 अप्रैल, 1809 को 'चार्ल्स मैटकॉफ़' और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य 'अमृतसर की सन्धि' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार सतलुज नदी के पूर्वी तट के क्षेत्र अंग्रेज़ों के अधिकार में आ गये।

चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और ईरान के इंग्लैण्ड से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।

1804 ई. में कांगड़ा के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने होशियारपुर पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने नेपाल के गोरखा से सहायता मांगी और 'अमर सिंह थापा' के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। दीवान मोहकम चन्द के अधीन एक सिक्ख सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात अफ़ग़ानिस्तान की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को काबुल से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उसे कोहिनूर हीरा भेंट किया। रणजीत सिंह ने सिन्ध के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में पेशावर जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में मुल्तान एवं 1819 ई. में कश्मीर पर अधिकार कर चुके थे।

1805 ई. में जब लॉर्ड लेक यशवन्तराव होल्कर का पीछा कर रहा था, होल्कर भागकर पंजाब में घुस गया। किन्तु रणजीत सिंह ने इस ख़तरे का निवारण बड़ी दूरदर्शिता और राजनीतिज्ञता से किया। उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ सन्धि कर ली, जिसके अनुसार पंजाब होल्कर के प्रभाव क्षेत्र से मुक्त माना गया और अंग्रेज़ों ने सतलुज नदी के उत्तर पंजाब के समस्त भू-भाग पर रणजीत सिंह की प्रभुसत्ता स्वीकार कर ली।

उन दिनों सतलुज के इस पार की छोटी-छोटी सिक्ख रियासतों में परस्पर झगड़े होते रहते थे और उनमें से कुछ ने रणजीत सिंह से सहायता की याचना भी की। रणजीत सिंह भी इन समस्त सिक्ख रियासतों को अपने नेतृत्व में संघबद्ध करना चाहते थे। इस कारण से उन्होंने इन क्षेत्रों में कई सैनिक अभियान किये और 1807 ई. में लुधियाना पर अधिकार कर लिया। उनका इस रीति से सतलुज के इस पार की कुछ छोटी-छोटी रियासतों पर सत्ताविस्तार अंग्रेज़ों को रुचिकर न हुआ।

उस समय अंग्रेज़ों का राज्य विस्तार दिल्ली तक हो चुका था। उन्होंने चार्ल्स मेटकॉफ़ के नेतृत्व में एक दूतमण्डल और उसके पीछे-पीछे डेविड आक्टरलोनी के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना रणजीत सिंह के राज्य में भेजी। इस बार भी रणजीत सिंह ने राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया और अंग्रेज़ों से 1809 ई. में चिरस्थायी मैत्री सन्धि कर ली, जो अमृतसर की सन्धि के नाम से विख्यात है। इसके अनुसार उन्होंने लुधियाना पर से अधिकार हटा लिया और अपने राज्यक्षेत्र को सतलुज नदी के उत्तर और पश्चिम तक ही सीमित रखना स्वीकार किया। साथ ही उन्होंने सतलुज को दक्षिणवर्ती रियासतों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया। परिणामस्वरूप ये सभी रियासतें अंग्रेज़ों के संरक्षण में आ गईं।

रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्त्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी 'खालसा' के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था। उन्होंने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं मुसलमानों को उच्च पद प्रदान किये। फ़कीर 'अजीजुद्दीन' उनका विदेशमंत्री तथा दीवान 'दीनानाथ' उनका वितमंत्री था।

रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।

रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को फ़्राँसीसी सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों 'अलार्ड' एवं 'वन्तूरा' के अधीन रखा। वन्तूरा 'फौज-ए-ख़ास' की पदाति तथा अर्लाड 'घुड़सवार' पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक 'इलाही बख़्श' था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, यूनानी, रूसी, अंग्रेज़, एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को पंजाब में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें - वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने लाहौर और अमृतसर में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे 'महादारी' कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।

रणजीत सिंह यथार्थवादी राजनीतिज्ञ थे, जिन्हें सम्भव और असम्भव की भली परख थी। इसी कारण उन्होंने 1831 ई. में अंग्रेज़ों से पुन: सन्धि की, जिसमें चिरस्थायी मैत्री सन्धि की शर्तों को दुहराया गया। इस प्रकार रणजीत सिंह ने न तो अंग्रेज़ों से कोई युद्ध किया और न ही उनकी सेना को किसी भी बहाने से अपने राज्य में अन्दर घुसने दिया। 1838 में उन्होंने काबुल की अफ़ग़ान गद्दी पर शाहशुजा को फिर से बैठाने के लिए अंग्रेज़ वाइसराय लॉर्ड ऑकलैण्ड से एक सन्धि की। इस समझौते के तहत सिन्धु स्थित ब्रिटिश फ़ौजों ने दक्षिण दिशा से और रणजीत सिंह की सेना ने ख़ैबर दर्रे से अफ़ग़ानिस्तान में प्रवेश करके काबुल के विजय प्रदर्शन में हिस्सा लिया।

59 वर्ष की आयु में 7 जून, 1839 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक उन्होंने एक ऐसे संगठित सिक्ख राज्य का निर्माण कर दिया था, जो पेशावर से सतलुज तक और कश्मीर से सिन्ध तक विस्तृत था। किन्तु इस विस्तृत साम्राज्यों में वह कोई मज़बूत शासन व्यवस्था प्रचलित नहीं कर सके और न ही सिक्खों में वैसी राष्ट्रीय भावना का संचार कर सके, जैसी शिवाजी ने महाराष्ट्र में उत्पन्न कर दी थी। फलत: उनकी मृत्यु के केवल 10 वर्ष के उपरान्त ही यह साम्राज्य नष्ट हो गया। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि अफ़ग़ानों, अंग्रेज़ों तथा अपने कुछ सहधर्मी सिक्ख सरदारों के विरोध के बावजूद रणजीत सिंह ने जो महान सफलताएँ प्राप्त कीं, उनके आधार पर उनकी गणना उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय इतिहास की महान विभूतियों में की जानी चाहिए।

एक फ़्राँसीसी पर्यटक 'विक्टर जैकोमाण्ट' ने रणजीत सिंह की तुलना नेपोलियन बोनापार्ट से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्त्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों 'खड़क सिंह', 'नौनिहाल सिंह' व 'शेर सिंह' में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि अंग्रेज़ पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही आंग्ल-सिक्ख युद्ध था।

1 comment:

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    3D simulator technological teaching
    Experienced and Expert Doctors as faculty
    More than 40% of the US returned Doctors
    SWU training Hospital within the campus
    More than 6000 bedded capacity for Internship
    Final year (4th year of MD) compulsory Internship approved by MCI (No need to do an internship in India)
    Vital service centers and commercial spaces
    Own Hostel accommodations for local and foreign students
    Safe, Secure, and lavish environment for vibrant student experience
    All sports grounds including Cricket, Volleyball, and others available for students

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