Thursday, February 6, 2014

पुनर्जन्म का रहस्य(REBIRTH)

Photo: पुनर्जन्म का रहस्य...

जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती है? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है? 

यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?

ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।

यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं। 

कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20) 

भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो। 

उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'

अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15) 

पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं। 

श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)

पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58) 

जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया। 

श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)

ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है। 

वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।

मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'

ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1) 

उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती। 

कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही,  यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है। 

पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था। 
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।' 

हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।

बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2) 

बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है। 

बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।

सुप्रभात मित्रों |

साभार : - ह्रदय नारायण दीक्षित (भाजपा सांसद)

पुनर्जन्म का रहस्य...

जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती ह...ै? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है?

यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?

ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।

यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं।

कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20)

भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो।

उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'

अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15)

पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं।

श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)

पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58)

जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया।

श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)

ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है।

वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।

मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'

ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1)

उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती।

कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही, यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है।

पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था।
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।'

हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।

बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2)

बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है।

बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।

विवेक चूडामणि

Photo: ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः |
विज्ञातव्यमत: सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मन: ||

आदि शंकराचार्य कृत विवेक चूडामणि

अर्थ : ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान पुनः जन्म-मरण रूपी संसारचक्रमें नहीं पडता; इसलिए आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भली प्रकार जान लेना चाहिए |

भावार्थ : जिस ब्रह्मसे हमारी निर्मिति हुई, उसी ब्रह्मसे जब तक हमारा साक्षात्कार नहीं हो जाता तब जन्म-मरणका क्रम चलता रहता है | हम ब्रह्मसे भिन्न है यह हमारी अज्ञानता है |
ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः |
विज्ञातव्यमत: सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मन: ||

आदि शंकराचार्य कृत विवेक चूडामणि

अर्थ : ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान पुनः जन्म-मरण रूपी संसारचक्रमें नहीं पडता; इसलिए आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भ...ली प्रकार जान लेना चाहिए |

भावार्थ : जिस ब्रह्मसे हमारी निर्मिति हुई, उसी ब्रह्मसे जब तक हमारा साक्षात्कार नहीं हो जाता तब जन्म-मरणका क्रम चलता रहता है | हम ब्रह्मसे भिन्न है यह हमारी अज्ञानता है

वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण

Photo: वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण...

"श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम्‌, वाराणसी"... के अध्यक्ष परमहंस परिव्रजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज जी... ने वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामकेर्ति (सर्ग 7), रामकियेन (अ.26) जैसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रंथों का तीन महीने तक गहराई से अध्ययन और अनुसंधान करने के बाद प्रयाग में अपना शोध पत्र जारी किया... इसमें रामसेतु को लेकर वैदिक ग्रंथों में दी गई गणनाओं के अनुसार सही तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं...

शोध पत्र में स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती जी ने बताया है कि भगवान श्रीराम ने 41 वर्ष की आयु में... 1 करोड़ 81 लाख 58 हजार 117 विक्रम संवत पूर्व (18158060 ईसा पूर्व) पौष कृष्ण दशमी तिथि... को सेतु का निर्माण शुरू किया था। इस संबंध में अग्निवेश रामायण में कहा गया है 'सेतोर्दशम्यामारम्भः'।

इसका दूसरा प्रमाण मिलता है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा... ढाई हजार साल पहले रचित... द्वादश ज्योतिर्लिंगम्‌ स्तोत्र में। इसमें कहे गए 'सुताम्रपर्णी जलराशियोगे निबध्यसेतुत' से श्रीराम द्वारा सेतु बनाने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग साक्षात प्रमाण...

शोध में कहा गया है कि श्रीराम सेतु भगवान श्रीराम द्वारा ही निर्मित होने का ज्वलंत और साक्षात प्रमाण स्वयं रामेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यही कारण है कि यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वरम कहा जाता है। इस शास्त्रीय मीमांसा के अनुसार श्री रामसेतु निर्विवाद सत्य है और साथ ही हिन्दू आस्था का केंद्र है।

काल गणना के अनुसार...

भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार ब्रह्म संवत सबसे प्राचीन काल गणना है, जो ब्रह्मा की उत्पत्ति अर्थात सृष्टि के आरंभ से ब्रह्मा की समाप्ति अर्थात सृष्टि प्रलय तक होती है। यह 1 करोड़ 24 लाख मानव वर्ष यानी ब्रह्मा का एक पल होता है। इसी तरह घटी, दिन, रात्रि, पक्ष, मास तथा वर्ष के अनुसार ब्रह्मा की द्विपरार्ध आयु होती है।

एक, दश, शत, सहस्र, अयुत लक्ष्य, प्रयुत, कोटि, अर्वुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापदम, शंकु, समुद्र अल्पपरार्ध, द्विपरार्ध संख्या होती है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। ब्रह्मा का एक दिन 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्षों के बराबर होता है। उसमें संधि सहित चौदह मनवन्तर होते हैं। एक मनुवन्तर में 71 महायुग (चतुर्युग) होते हैं।

वर्तमान में इस सृष्टि के छः मनवन्तर बीत चुके हैं और सातवें मनवन्तर वैवस्वत का 28वें चतुर्युगीय वर्ष में कलियुग का 5109वाँ वर्ष चल रहा है...

श्रीराम का प्राकट्य इसी वैवस्वत मन्वन्तर के 24वें त्रेता में, सृष्टि वर्ष के 1 अरब 94 करोड़ 26 लाख, 93 हजार वर्ष व्यतीत होने पर रावण के वध के लिए दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ था।

चतुर्विशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥
(वायु पुराण 18/72)

रामसेतु की लंबाई-चौड़ाई को लेकर भारतीय धर्मशास्त्रों में दिए गए तथ्य इस प्रकार हैं-

दस योजनम विस्तीर्णम्‌ शतयोजनमायतम्‌
(वा.रा. 22/76)

अर्थात श्रीराम सेतु 100 योजन (1200 किलोमीटर) लंबा और 10 योजन (120 किलोमीटर) चौड़ा था।

अन्य साक्ष्य...

* शास्त्रीय साक्ष्यों के अनुसार इस विस्तृत सेतु का निर्माण शिल्प कला विशेषज्ञ विश्वकर्मा के पुत्र नल ने पौष कृष्ण दशमी से चतुर्दशी तिथि तक मात्र पाँच दिन में किया था।

* सेतु समुद्र का भौगोलिक विस्तार भारत स्थित धनुष कोटि से लंका स्थित सुवेल पर्वत तक है।

* महाबलशाली सेतु निर्माताओं द्वारा विशाल शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यांत्रिक वाहनों द्वारा समुद्र तट तक ले जाने का शास्त्रीण प्रमाण उपलब्ध है।

* भगवान श्रीराम ने प्रवर्षण गिरि (किष्किन्धा) से मार्गशीर्ष अष्टमी तिथि को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था।
 
वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण
 
"श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम्‌, वाराणसी"... के अध्यक्ष परमहंस परिव्रजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज जी... ने वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामकेर्ति (सर्ग... 7), रामकियेन (अ.26) जैसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रंथों का तीन महीने तक गहराई से अध्ययन और अनुसंधान करने के बाद प्रयाग में अपना शोध पत्र जारी किया... इसमें रामसेतु को लेकर वैदिक ग्रंथों में दी गई गणनाओं के अनुसार सही तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं...

शोध पत्र में स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती जी ने बताया है कि भगवान श्रीराम ने 41 वर्ष की आयु में... 1 करोड़ 81 लाख 58 हजार 117 विक्रम संवत पूर्व (18158060 ईसा पूर्व) पौष कृष्ण दशमी तिथि... को सेतु का निर्माण शुरू किया था। इस संबंध में अग्निवेश रामायण में कहा गया है 'सेतोर्दशम्यामारम्भः'।

इसका दूसरा प्रमाण मिलता है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा... ढाई हजार साल पहले रचित... द्वादश ज्योतिर्लिंगम्‌ स्तोत्र में। इसमें कहे गए 'सुताम्रपर्णी जलराशियोगे निबध्यसेतुत' से श्रीराम द्वारा सेतु बनाने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग साक्षात प्रमाण...

शोध में कहा गया है कि श्रीराम सेतु भगवान श्रीराम द्वारा ही निर्मित होने का ज्वलंत और साक्षात प्रमाण स्वयं रामेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यही कारण है कि यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वरम कहा जाता है। इस शास्त्रीय मीमांसा के अनुसार श्री रामसेतु निर्विवाद सत्य है और साथ ही हिन्दू आस्था का केंद्र है।

काल गणना के अनुसार...

भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार ब्रह्म संवत सबसे प्राचीन काल गणना है, जो ब्रह्मा की उत्पत्ति अर्थात सृष्टि के आरंभ से ब्रह्मा की समाप्ति अर्थात सृष्टि प्रलय तक होती है। यह 1 करोड़ 24 लाख मानव वर्ष यानी ब्रह्मा का एक पल होता है। इसी तरह घटी, दिन, रात्रि, पक्ष, मास तथा वर्ष के अनुसार ब्रह्मा की द्विपरार्ध आयु होती है।

एक, दश, शत, सहस्र, अयुत लक्ष्य, प्रयुत, कोटि, अर्वुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापदम, शंकु, समुद्र अल्पपरार्ध, द्विपरार्ध संख्या होती है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। ब्रह्मा का एक दिन 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्षों के बराबर होता है। उसमें संधि सहित चौदह मनवन्तर होते हैं। एक मनुवन्तर में 71 महायुग (चतुर्युग) होते हैं।

वर्तमान में इस सृष्टि के छः मनवन्तर बीत चुके हैं और सातवें मनवन्तर वैवस्वत का 28वें चतुर्युगीय वर्ष में कलियुग का 5109वाँ वर्ष चल रहा है...

श्रीराम का प्राकट्य इसी वैवस्वत मन्वन्तर के 24वें त्रेता में, सृष्टि वर्ष के 1 अरब 94 करोड़ 26 लाख, 93 हजार वर्ष व्यतीत होने पर रावण के वध के लिए दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ था।

चतुर्विशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥
(वायु पुराण 18/72)

रामसेतु की लंबाई-चौड़ाई को लेकर भारतीय धर्मशास्त्रों में दिए गए तथ्य इस प्रकार हैं-

दस योजनम विस्तीर्णम्‌ शतयोजनमायतम्‌
(वा.रा. 22/76)

अर्थात श्रीराम सेतु 100 योजन (1200 किलोमीटर) लंबा और 10 योजन (120 किलोमीटर) चौड़ा था।

अन्य साक्ष्य...

* शास्त्रीय साक्ष्यों के अनुसार इस विस्तृत सेतु का निर्माण शिल्प कला विशेषज्ञ विश्वकर्मा के पुत्र नल ने पौष कृष्ण दशमी से चतुर्दशी तिथि तक मात्र पाँच दिन में किया था।

* सेतु समुद्र का भौगोलिक विस्तार भारत स्थित धनुष कोटि से लंका स्थित सुवेल पर्वत तक है।

* महाबलशाली सेतु निर्माताओं द्वारा विशाल शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यांत्रिक वाहनों द्वारा समुद्र तट तक ले जाने का शास्त्रीण प्रमाण उपलब्ध है।

* भगवान श्रीराम ने प्रवर्षण गिरि ( किष्किन्धा) से मार्गशीर्ष अष्टमी तिथि को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था।

हे श्रीकृष्‍ण

Photo: इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।



Photo: मोक्ष...

आनीता नटवन्‍मया तब पुर; श्रीकृष्‍ण! या भूमिका ।
व्‍योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्‍त्‍वत्‍प्रीतयेऽद्यावधि ।।
प्रीतस्‍त्‍वं यदि चेन्निरीक्ष्‍य भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे ।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्‍त्‍वेतादृशीं भूमिकाम् ||

हे श्रीकृष्‍ण! आपके प्रीत्‍यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्‍वर! यदि आप इसे (दृश्‍य) देख कर प्रसन्‍न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्‍न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्‍वाँग धारण कर इस पृथ्‍वी पर न लाया जाऊँ।

शुभ रात्रि मित्रों...
मोक्ष...

आनीता नटवन्‍मया तब पुर; श्रीकृष्‍ण! या भूमिका ।
व्‍योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्‍त्‍वत्‍प्रीतयेऽद्यावधि ।।
प्रीतस्‍त्‍वं यदि चेन्निरीक्ष्‍य भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे ।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्‍त्‍वेतादृशीं भूमिकाम् ||...

हे श्रीकृष्‍ण! आपके प्रीत्‍यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्‍वर! यदि आप इसे (दृश्‍य) देख कर प्रसन्‍न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्‍न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्‍वाँग धारण कर इस पृथ्‍वी पर न लाया जाऊँ।

Photo: ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

(इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऐसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव [मोह] उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति [स्मृति] में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से ज्ञानशक्ति अर्थात बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।)
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

(इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में ...आसक्ति हो जाती है, ऐसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव [मोह] उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति [स्मृति] में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से ज्ञानशक्ति अर्थात बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।
 
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऐसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है।
 
 

 

भगवान श्रीकृष्ण लीला

Photo: सुप्रभात मित्रों...

कुछ "विधर्मी" और "वामपंथी" रासलीला को लेकर भगवान् श्री कृष्ण पर चरित्रहीनता का आरोप लगाते हैं और उसको सच मानकर कुछ हिन्दू भाई बहन भी बिना कृष्ण को जाने उनकी बातों में आकर अपने महान धर्म पर ही उंगली उठाते हैं,ये पोस्ट ऐसे ही मूर्ख लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिये मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है। 

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं। 

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है - 

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक की बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था। 

एक अति महत्वपूर्ण बात और भी है जिससे बहुत कम ही लोग परिचित हैं। वह यह है कि जब कृष्ण ने हमेशा-हमेशा के लिये गोकुल-वृंदावन छोड़ा तब उनकी उम्र मात्र नौ वर्ष की थी। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि कृष्ण जब गोप-गोपिकाओं के साथ गौकुल-वृंदावन में थे तब नौ वर्ष से भी छोटे रहे होगें। 

अति मनोहर रूप, बांसुरी बजाने में अत्यंत निपुण,अवतारी आत्मा होने के कारण जन्मजात प्रतिभाशाली आदि तमाम बातों के कारण वे आसपास के पूरे क्षेत्र में अत्यंत् लोकप्रिय थे। नौ वर्ष के बालक का गोपियों के साथ नृत्य करना एक विशुद्ध प्रेम और आनंद का ही विषय हो सकता है। 

अत: कृष्ण रास को शारीरिक धरातल पर लाकर उसमें मोजमस्ती या भोग विलास जेसा कुछ ढूंढना इंसान की स्यवं की फितरत पर निर्भर करता है। कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है। 

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

जय श्री कृष्ण |

{ Manu }
भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है।

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं।

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है -

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक की बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था।

एक अति महत्वपूर्ण बात और भी है जिससे बहुत कम ही लोग परिचित हैं। वह यह है कि जब कृष्ण ने हमेशा-हमेशा के लिये गोकुल-वृंदावन छोड़ा तब उनकी उम्र मात्र नौ वर्ष की थी। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि कृष्ण जब गोप-गोपिकाओं के साथ गौकुल-वृंदावन में थे तब नौ वर्ष से भी छोटे रहे होगें।

अति मनोहर रूप, बांसुरी बजाने में अत्यंत निपुण,अवतारी आत्मा होने के कारण जन्मजात प्रतिभाशाली आदि तमाम बातों के कारण वे आसपास के पूरे क्षेत्र में अत्यंत् लोकप्रिय थे। नौ वर्ष के बालक का गोपियों के साथ नृत्य करना एक विशुद्ध प्रेम और आनंद का ही विषय हो सकता है।

अत: कृष्ण रास को शारीरिक धरातल पर लाकर उसमें मोजमस्ती या भोग विलास जेसा कुछ ढूंढना इंसान की स्यवं की फितरत पर निर्भर करता है। कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है।

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

जय श्री कृष्ण |

Animal senses death/sickness better than human being. BETTER SENSE.

DEATH IS NO DEATH

मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े निम्नलिखित संकेत व्यक्ति को अपना अंत समय नजदीक होने का आभास करवाते हैं।
1. समय बीतने के साथ अगर कोई व्यक्ति अपनी नाक की नोक देखने में असमर्थ हो जाता है तो इसका अर्थ यही है कि जल्द ही उसकी मृत्यु होने वाली है. क्योंकि उसकी आंखें धीरे-धीरे ऊपर की ओर मुड़ने लगती हैं और मृत्यु के समय आंखें पूरी तरह ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं।

2. मृत्यु से कुछ समय पहले व्यक्ति को आसमान में मौजूद आकाशीय पिँड खंडित लगने लगते हैँ। व्यक्ति को लगता है कि सब कुछ बीच में से दो भागों में बंटा हुआ है, जबकि ऐसा कुछ नहीं होता।

3. व्यक्ति को कान बंद करने के बाद सुनाई देने वाला अनाहत नाद सुनाई देना बंद हो जाता है,
4. व्यक्ति को हर समय ऐसा लगता है कि उसके सामने कोई अनजाना धुंधला सा चेहरा बैठा है।

5. अगर मृत्यु हस्त नक्षत्र मेँ होने वाली हो तो अंत समय नजदीक आने पर एक पल के लिए व्यक्ति की परछाई उसका साथ छोड़ जाती है।

6. जीवन का सफर पूरा होने पर व्यक्ति को अपने मृत पूर्वजों के साथ रहने का अहसास होता है। किसी साये का हर समय साथ रहने जैसा आभास व्यक्ति को अपनी मृत्यु के दो-तीन पहले ही होने लगता है।

7. मृत्यु से पहले मानव शरीर में से अजीब सी गंध आने लगती है, जिसे मृत्यु गंध का नाम दिया जाता है।

यहाँ क्लिक करेँ  Cat predicts 50 deaths In nursing home

8. दर्पण में व्यक्ति को अपना चेहरा ना दिख कर किसी और का चेहरा दिखाई देने लगे तो स्पष्ट तौर पर मृत्यु 24 घंटे के भीतर हो जाती है।

9. अगर आपके दोनोँ स्वर चलने लगेँ तो आपका अंत समय नजदीक है ये मानकर चलना चाहिए, व्यक्ति का हमेशा एक ही स्वर चलता है, अपनी नासिका के नीचे अपनी तर्जनी अंगुली पानी से भिगोकर रखेँ, आपको केवल एक ही नासिका छिद्र से ही वायु प्रवाह अनुभव होगा, इसे ही स्वर चलना कहते हैं। परन्तु मृत्यु के समय दोनोँ स्वर चलने लगते हैँ। नासिका के स्वर अव्यस्थित हो जाने का लक्षण अमूमन मृत्यु के 2-3 दिनों पूर्व प्रकट होता है।
शास्त्रोँ मेँ ५० प्रकार के मृत्यु पूर्वाभास बताए गए हैँ।

ॐ,OHM/OM /PRANAYAM / YOGA

Photo
ॐ के उच्चारण को अनाहत नाद कहते हैं, ये ब्रह्म नाद के रूप मेँ प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और इस ब्रह्मांड में सतत् गूँजता रहता है।

इसके गूँजते रहने का कोई कारण नहीं। सामान्यत: नियम है कि ध्वनि उत्पन्न होती है किसी की टकराहट से, लेकिन अनाहत को उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

ओ, उ और म उक्त तीन अक्षरों वाले शब्द की महिमा अव्यक्त है। यह नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र को जगाता है। इसे प्रणव साधना भी कहा जाता है।

इसके अनेक चमत्कार हैँ। प्रत्येक मंत्र के पूर्व इसका उच्चारण किया जाता है। योग साधना में इसका अधिक महत्व है। इसके निरंतर उच्चारण करते रहने से अनाहत को जगाया जा सकता है।

विधि नंबर 01 :-

प्राणायाम या कोई विशेष आसन करते वक्त इसका उच्चारण किया जाता है। केवल प्रणव साधना के लिए ॐ का उच्चारण पद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 11, 21 बार अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। बोलने की जरूरत जब समाप्त हो जाए तो इसे अपने अंतरमन में सुनने का अभ्यास बढ़ाएँ।

सावधानी :- उच्चारण करते वक्त लय का विशेष ध्यान रखें। इसका उच्चारण प्रभात या संध्या में ही करें। उच्चारण करने के लिए कोई एक स्थान नियुक्त हो। हर कहीं इसका उच्चारण न करें। उच्चारण करते वक्त पवित्रता और सफाई का विशेष ध्यान रखें।

लाभ : संसार की समस्त ध्वनियों से अधिक शक्तिशाली, मोहक, दिव्य और सर्वश्रेष्ठ आनंद से युक्तनाद ब्रम्ह के स्वर से सभी प्रकार के रोग और शोक मिट जाते हैं। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। इससे हमारे शरीर की ऊर्जा संतुलन में आ जाती है। इसके संतुलन में आने पर चित्त शांत हो जाता है।
व्यर्थ के मानसिक द्वंद्व, तनाव, संताप और नकारात्मक विचार मिटकर मन की शक्ति बढ़ती है। मन की शक्ति बढ़ने से संकल्प शक्ति और आत्मविश्वास बढ़ता है। सम्मोहन साधकों के लिए इसका निरंतर जाप करना अनिवार्य है।

विधि नंबर 02 :-

किसी शांत जगह पर अपने दोनोँ हाथोँ से अपने कानोँ को ढंके, कानोँ को पूरी तरह हाथोँ से सील करले आपको एक आवाज सुनाई देगी, यही अनाहत नाद या ब्रह्म नाद है, ये ध्वनि या नाद आपके शरीर के अंदर 24 घंटे होते रहता है, ये हमेशा आपके शरीर को ॐ के रूप मेँ अंदर से वाद्यित् करता रहता है। इसे ध्यान के रूप मेँ परिणित कर आप अतुल्य लाभ उठा सकते हैँ।

सर्वप्रथम एक स्वच्छ, व शांत कमरे मेँ आसन लगाकर बैठ जाइए, अपने सामने एक घी का दीपक जला लीजिए, अपने कानोँ को दोनोँ हाथोँ से कसकर बंद कर लीजिए ताकि आपको नाद सुनाई देने लगे, मन मेँ उस नाद के समान्तर ॐ का उच्चारण कीजिए। ये क्रिया 5 मिनिट तक कीजिए, रोजाना सुबह व शाम ये क्रिया कीजिए, कुछ समय बाद अभ्यास से आप ध्यान की अवस्था मेँ बिना कानोँ को ढंके, नाद को सुन पाएंगेँ, रोजमर्रा के काम करते वक्त भी अगर आप कुछ सेकंड के लिए भी ध्यान लगाएं तो भी आप शोरगुल मेँ भी अनाहत नाद को सुन सकते हैँ।

अगर आप ऐसा कर पाने मेँ सफल हो गए तो आप अपने आपको इस क्रिया मेँ सिद्ध कर लेँगे। "करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान" ये बात याद रखिए।

सावधानी :- पवित्रता व स्वच्छता पर विशेष ध्यान देँ। ब्रह्मचर्य का पालन करेँ।

लाभ :- विधि नंबर 01 के समान

नोट :- दोनोँ विधियोँ मेँ ॐ का उच्चारण विषम संख्या मेँ ही करेँ। अर्थात् 5, 7, 11, 21, या 51, उच्चारण करते समय पहले ॐ मेँ "ओ" शब्द छोटा व "म" शब्द लम्बा खीँचे, द्वितीय ॐ मेँ "ओ" तथा "म" दोनोँ बराबर रखेँ, तृतीय उच्चारण मेँ पुनः "ओ" छोटा व "म" लम्बा रखेँ। यही क्रम चलने देँ। आपको शीघ्र ही लाभ होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।


विधि- 02

आराम से सुखआसन में बैठ जाएँ |
रीढ़ की हड्डी सीधी हो | ठुढि थोड़ी सी गर्दन के तरफ झुकी हो |
सारे शरीर को ढीला छोड़ दें |
आँखे बंद हो |...
एकदम आनन्द अनुभव करें |
अब एक लम्बी गहरी सांस खींचे धीरे धीरे बिलकुल आराम से |
फिर सांस को धीरे धीरे बाहर छोड़ दें से |
तीन बार या पांच बार ऐसा हीं सांस खींचे और छोड़ें धीरे धीरे से बिलकुल |

दो मिनट बाद |
कल्पना करें आपके सिर के ठीक ऊपर अनंत आकाश में एक तारा निकला हुआ है |
तारे का प्रकाश ठीक आपके सिर के ऊपरी भाग पर गिर रहा है |
तारे के प्रकाश के साथ यह भी कल्पना करें सुख, शान्ति, आनंद भी आपके सिर के उपरी भाग पर गिर रहा है और आपके शरीर में प्रवेश कर रहा है |
सारे शरीर ऊपर से नीचे की ओर शान्ति और शीतलता रूपी तारा का प्रकाश बह रहा है ऐसी कल्पना करें |
ध्यान को सिर के चोटी पर रखें अधिकांश समय के लिए |
  पन्द्रह मिनट इसी कल्पना में डूबे रहें !



Mother Teresa: Satanic Saint

MOTHER TERESA 'S SATANIC HOOD.

Researchers dispell the myth of altruism and generosity surrounding Mother Teresa

The myth of altruism and generosity surrounding Mother Teresa is dispelled in a paper by Serge Larivée and Genevieve Chenard of University of Montreal’s Department of Psychoeducation and Carole Sénéchal of the University of Ottawa’s Faculty of Education. The paper will be published in the March issue of the journal Studies in Religion/Sciences religieuses and is an analysis of the published writings about Mother Teresa. Like the journalist and author Christopher Hitchens, who is amply quoted in their analysis, the researchers conclude that her hallowed image—which does not stand up to analysis of the facts—was constructed, and that her beatification was orchestrated by an effective media relations campaign.
“While looking for documentation on the phenomenon of altruism for a seminar on ethics, one of us stumbled upon the life and work of one of Catholic Church’s most celebrated woman and now part of our collective imagination—Mother Teresa—whose real name was Agnes Gonxha,” says Professor Larivée, who led the research. “The description was so ecstatic that it piqued our curiosity and pushed us to research further.”
As a result, the three researchers collected 502 documents on the life and work of Mother Teresa. After eliminating 195 duplicates, they consulted 287 documents to conduct their analysis, representing 96% of the literature on the founder of the Order of the Missionaries of Charity (OMC). Facts debunk the myth of Mother Teresa
In their article, Serge Larivée and his colleagues also cite a number of problems not take into account by the Vatican in Mother Teresa’s beatification process, such as “her rather dubious way of caring for the sick, her questionable political contacts, her suspicious management of the enormous sums of money she received, and her overly dogmatic views regarding, in particular, abortion, contraception, and divorce.”
The sick must suffer like Christ on the cross
At the time of her death, Mother Teresa had opened 517 missions welcoming the poor and sick in more than 100 countries. The missions have been described as “homes for the dying” by doctors visiting several of these establishments in Calcutta. Two-thirds of the people coming to these missions hoped to a find a doctor to treat them, while the other third lay dying without receiving appropriate care. The doctors observed a significant lack of hygiene, even unfit conditions, as well as a shortage of actual care, inadequate food, and no painkillers. The problem is not a lack of money—the Foundation created by Mother Teresa has raised hundreds of millions of dollars—but rather a particular conception of suffering and death: “There is something beautiful in seeing the poor accept their lot, to suffer it like Christ’s Passion. The world gains much from their suffering,” was her reply to criticism, cites the journalist Christopher Hitchens. Nevertheless, when Mother Teresa required palliative care, she received it in a modern American hospital.
Questionable politics and shadowy accounting
Mother Teresa was generous with her prayers but rather miserly with her foundation’s millions when it came to humanity’s suffering. During numerous floods in India or following the explosion of a pesticide plant in Bhopal, she offered numerous prayers and medallions of the Virgin Mary but no direct or monetary aid. On the other hand, she had no qualms about accepting the Legion of Honour and a grant from the Duvalier dictatorship in Haiti. Millions of dollars were transferred to the MCO’s various bank accounts, but most of the accounts were kept secret, Larivée says. “Given the parsimonious management of Mother Theresa’s works, one may ask where the millions of dollars for the poorest of the poor have gone?”
The grand media plan for holiness
Despite these disturbing facts, how did Mother Teresa succeed in building an image of holiness and infinite goodness? According to the three researchers, her meeting in London in 1968 with the BBC’s Malcom Muggeridge, an anti-abortion journalist who shared her right-wing Catholic values, was crucial. Muggeridge decided to promote Teresa, who consequently discovered the power of mass media. In 1969, he made a eulogistic film of the missionary, promoting her by attributing to her the “first photographic miracle,” when it should have been attributed to the new film stock being marketed by Kodak. Afterwards, Mother Teresa travelled throughout the world and received numerous awards, including the Nobel Peace Prize. In her acceptance speech, on the subject of Bosnian women who were raped by Serbs and now sought abortion, she said: “I feel the greatest destroyer of peace today is abortion, because it is a direct war, a direct killing—direct murder by the mother herself.”
Following her death, the Vatican decided to waive the usual five-year waiting period to open the beatification process. The miracle attributed to Mother Theresa was the healing of a woman, Monica Besra, who had been suffering from intense abdominal pain. The woman testified that she was cured after a medallion blessed by Mother Theresa was placed on her abdomen. Her doctors thought otherwise: the ovarian cyst and the tuberculosis from which she suffered were healed by the drugs they had given her. The Vatican, nevertheless, concluded that it was a miracle. Mother Teresa’s popularity was such that she had become untouchable for the population, which had already declared her a saint. “What could be better than beatification followed by canonization of this model to revitalize the Church and inspire the faithful especially at a time when churches are empty and the Roman authority is in decline?” Larivée and his colleagues ask.
Positive effect of the Mother Teresa myth
Despite Mother Teresa’s dubious way of caring for the sick by glorifying their suffering instead of relieving it, Serge Larivée and his colleagues point out the positive effect of the Mother Teresa myth: “If the extraordinary image of Mother Teresa conveyed in the collective imagination has encouraged humanitarian initiatives that are genuinely engaged with those crushed by poverty, we can only rejoice. It is likely that she has inspired many humanitarian workers whose actions have truly relieved the suffering of the destitute and addressed the causes of poverty and isolation without being extolled by the media. Nevertheless, the media coverage of Mother Theresa could have been a little more rigorous.”
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About the study
The study was conducted by Serge Larivée, Department of psychoeducation, University of Montreal, Carole Sénéchal, Faculty of Education, University of Ottawa, and Geneviève Chénard, Department of psychoeducation, University of Montreal.

Monday, February 3, 2014

भारतीय गणितज्ञ “रामानुजम” (1887-1920)

Photo: ^ भारतीय गणितज्ञ “रामानुजम” (1887-1920)

गणित के क्षेत्र में अनेक विद्वान हुए हैं, जिनमे रामानुजम भी एक उच्चकोटि के गणितज्ञ रहे हैं, इनका जन्म ‘तमिलनाडु’ प्रांत के ‘इरोद’ नामक ग्राम मे एक निर्धन ब्राह्मण परिवार मे 22 दिसम्बर, 1887 मे हुआ इनके पिता ‘कुम्भ कोनम्’ ग्राम मे रहते थे और वही पर एक कपङे वाले के यहां मुनीमी करते थे ।
 रामानुज के जन्म के बारे मे एक किंवदंती प्रचलित है, कहा जाता है कि विवाह होने के कई वर्ष बाद तक उनकी माता को कोई संतान नही हुई । इससे वह हमेशा चिंतित रहती थी । अपनी पुत्री को चिंतकुल देख कर रामानुजम् के नाना नामकल गाँव मे जाकर वहाँ नामगिरी देवी की आराधना की, इसी के फलस्वरूप ‘श्रीनिवास रामानुजम्’ का जन्म हुआ ।      
5 वर्ष की अवस्था मे रामानुजम् को स्कूल भेजा गया । वहाँ 2 वर्ष के बाद इनको कुम्भ-कोनम् हाईस्कूल मे पढ़ने भेजा गया, इन्हे गणितशास्त्र मे विशेष रुचि थी । वे अपने सहपाठियो और गुरुओ से यह कभी नक्षत्रों के बारे मे तो कभी परिधि के बारे मे प्रश्न पूछते थे, वह जब कक्षा 3 मे पढ़ते थे, तो एक दिन जब अध्यापक समझा रहे थे कि किसी संख्या को उसी से भाग देने पर भागफल 1 होता है, तो रामानुजम् ने उसी समय पूछा, “क्या यह नियम शून्य के लिए भी लागू होता है ?” उन्होने इसी कक्षा मे बीजगणित की तीनों श्रेणियो – समान्तर श्रेणी, गुणोत्तर श्रेणी और हरात्मक श्रेणी को पढ़ लिया था, जो कि आजकल इंटर मीडिएट कक्षा मे पढ़ाई जाती है । कक्षा 4 मे त्रिकोणमिति तथा कक्षा 5 मे Sin (ज्या) और Cos (कोज्या) का विस्तार समाप्त कर लिया था ।
17 वर्ष की आयु मे इनहोने हाईस्कूल की परीक्षा योग्यता सहित उत्तीर्ण की, और इन्हे सरकारी छात्रवृत्ति प्रदान की गई । परंतु कालेज के प्रथम वर्ष तक पहुंचते- पहुंचते यह गणितशास्त्र मे इतने तल्लीन हो गए कि गणित के सिवाय और किसी के नही रहे और उसका परिणाम यह हुआ कि यह फेल हो गये, इससे इनकी छात्रवृत्ति रोक दी गई । अतः आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण इनको विश्बविधालय कि शिक्षा समाप्त करनी पङी ।
उन दिनो रामानुजम् को आर्थिक कठिनाइयो ने परेशान कर दिया इसी समय इनका विवाह भी कर दिया गया । विवाह हो जाने के कारण कठिनाइयां दुगनी हो गई, और वह शीघ्र नौकरी ढूँढने के लिए मजबूर हो गए । बङी कठिनाइयो के बाद इनको मद्रास ट्रस्ट मे 30 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई, इसी बीच ड़ॉ॰ वाकर गणित मे उनकी दिलचस्पी से बहुत प्रभावित हुये उनके प्रयत्न से रामानुजम् को मद्रास विश्बविधालय से 2 वर्ष के 75 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिल गई तथा इनको क्लर्कीसे छुटकारा मिल गया । आर्थिक चिंताओ से मुक्त होकर इन्हे अपना सारा समय गणित के अध्ययन मे लगाने का सुअवसर प्राप्त हो गया ।
फिर इनहोने कुछ लेख लिखकर ट्रिनिटी कालेज के गणित के फैलो ड़ॉ॰ हार्ड़ी के पास भेजे, इन लेखो को देखकर ड़ॉ॰ हार्ड़ी तथा दूसरे अंग्रेज़ गणितज्ञ बहुत प्रभावित हुए । अतः वे लोग रामानुजम् को कैम्ब्रिज बुलाने का प्रयत्न करने लगे ।
सन् 1914 मे जब ट्रिनिटी कालेज के ड़ॉ॰नोविल भारत आये तो हार्डी ने उसे रामानुजम् से मिलने तथा उनको कैम्ब्रिज लाने का अनुरोध कर दिया था । भारत आने पर ड़ॉ नोविल ने रामानुजम् से भेट की । चरित नायक ने नोविल महोदय की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । इस पर नोविल महोदय (साहव) ने इनको 250 पौंड की छात्रवृत्ति देने के अतिरिक्त प्रारम्भिक व्यय तथा यात्रा व्यय देना भी स्वीकार कर लिया । इसमे से 60 रूपये प्रति मास अपनी मटा को देने का प्रबंध करके 17 मार्च 1917 ई० को मि० नोबिल के साथ आप विलायत के लिए रवाना हो गए ।
28 फरवरी 1918 को आप रायल सोसाइटी के फैलो वन गए, इस सम्मान को प्राप्त करने वाले आप प्रथम भारतीय थे । 27 फरवरी 1919 को आप लंदन से भारत के लिए रवाना हुए और 27 मार्च को आप मुंबई पहुंचे । विदेश मे जलवायु अनुकूल न होने से आपका स्वस्थ्य गिर गया था । स्वस्थ्य खराब होने से इनको कावेरी कोदू मंडी ले जाया गया । वहाँ से उनको कुम्भ कोणम ले जाया गया । इनका स्वस्थ्य दिन पर दिन गिरता गया । फिर भी मस्तिष्क का प्रकाश अंत तक मंद नहीं हुआ, अंतिम समय तक वह कार्य मे लगे रहे। ‘Mock Theta Function’ पर उनका सब कार्य रोग शैय्या पर ही हुआ । हालात ज्यादा खराब होती देखकर मद्रास ले जाए गये ।  26 अप्रैल 1920 ई० को मद्रास के पास चेतपुर ग्राम मे इस विश्व विख्यात गणितज्ञ का शरीरांत हो गया । उनके निधन से गणित जगत निर्धन हो गया । 

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गणित के क्षेत्र में अनेक विद्वान हुए हैं, जिनमे रामानुजम भी एक उच्चकोटि के गणितज्ञ रहे हैं, इनका जन्म ‘तमिलनाडु’ प्रांत के ‘इरोद’ नामक ग्राम मे एक निर्धन ब्राह्मण परिवार मे 22 दिसम्बर, 1887 मे हुआ इनके पिता ‘कुम्भ कोनम्’ ग्राम मे रहते थे और वही पर एक कपङे वाले के यहां मुनीमी करते थे ।
रामानुज के जन्म के बारे मे एक किंवदंती प्रचलित है, कहा जाता है कि विवाह होने के कई वर्ष बाद तक उनकी माता को कोई संतान नही हुई । इससे वह हमेशा चिंतित रहती थी । अपनी पुत्री को चिंतकुल देख कर रामानुजम् के नाना नामकल गाँव मे जाकर वहाँ नामगिरी देवी की आराधना की, इसी के फलस्वरूप ‘श्रीनिवास रामानुजम्’ का जन्म हुआ ।
5 वर्ष की अवस्था मे रामानुजम् को स्कूल भेजा गया । वहाँ 2 वर्ष के बाद इनको कुम्भ-कोनम् हाईस्कूल मे पढ़ने भेजा गया, इन्हे गणितशास्त्र मे विशेष रुचि थी । वे अपने सहपाठियो और गुरुओ से यह कभी नक्षत्रों के बारे मे तो कभी परिधि के बारे मे प्रश्न पूछते थे, वह जब कक्षा 3 मे पढ़ते थे, तो एक दिन जब अध्यापक समझा रहे थे कि किसी संख्या को उसी से भाग देने पर भागफल 1 होता है, तो रामानुजम् ने उसी समय पूछा, “क्या यह नियम शून्य के लिए भी लागू होता है ?” उन्होने इसी कक्षा मे बीजगणित की तीनों श्रेणियो – समान्तर श्रेणी, गुणोत्तर श्रेणी और हरात्मक श्रेणी को पढ़ लिया था, जो कि आजकल इंटर मीडिएट कक्षा मे पढ़ाई जाती है । कक्षा 4 मे त्रिकोणमिति तथा कक्षा 5 मे Sin (ज्या) और Cos (कोज्या) का विस्तार समाप्त कर लिया था ।
17 वर्ष की आयु मे इनहोने हाईस्कूल की परीक्षा योग्यता सहित उत्तीर्ण की, और इन्हे सरकारी छात्रवृत्ति प्रदान की गई । परंतु कालेज के प्रथम वर्ष तक पहुंचते- पहुंचते यह गणितशास्त्र मे इतने तल्लीन हो गए कि गणित के सिवाय और किसी के नही रहे और उसका परिणाम यह हुआ कि यह फेल हो गये, इससे इनकी छात्रवृत्ति रोक दी गई । अतः आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण इनको विश्बविधालय कि शिक्षा समाप्त करनी पङी ।
उन दिनो रामानुजम् को आर्थिक कठिनाइयो ने परेशान कर दिया इसी समय इनका विवाह भी कर दिया गया । विवाह हो जाने के कारण कठिनाइयां दुगनी हो गई, और वह शीघ्र नौकरी ढूँढने के लिए मजबूर हो गए । बङी कठिनाइयो के बाद इनको मद्रास ट्रस्ट मे 30 रुपये मासिक की नौकरी मिल गई, इसी बीच ड़ॉ॰ वाकर गणित मे उनकी दिलचस्पी से बहुत प्रभावित हुये उनके प्रयत्न से रामानुजम् को मद्रास विश्बविधालय से 2 वर्ष के 75 रूपये मासिक छात्रवृत्ति मिल गई तथा इनको क्लर्कीसे छुटकारा मिल गया । आर्थिक चिंताओ से मुक्त होकर इन्हे अपना सारा समय गणित के अध्ययन मे लगाने का सुअवसर प्राप्त हो गया ।
फिर इनहोने कुछ लेख लिखकर ट्रिनिटी कालेज के गणित के फैलो ड़ॉ॰ हार्ड़ी के पास भेजे, इन लेखो को देखकर ड़ॉ॰ हार्ड़ी तथा दूसरे अंग्रेज़ गणितज्ञ बहुत प्रभावित हुए । अतः वे लोग रामानुजम् को कैम्ब्रिज बुलाने का प्रयत्न करने लगे ।
सन् 1914 मे जब ट्रिनिटी कालेज के ड़ॉ॰नोविल भारत आये तो हार्डी ने उसे रामानुजम् से मिलने तथा उनको कैम्ब्रिज लाने का अनुरोध कर दिया था । भारत आने पर ड़ॉ नोविल ने रामानुजम् से भेट की । चरित नायक ने नोविल महोदय की प्रार्थना को स्वीकार कर लिया । इस पर नोविल महोदय (साहव) ने इनको 250 पौंड की छात्रवृत्ति देने के अतिरिक्त प्रारम्भिक व्यय तथा यात्रा व्यय देना भी स्वीकार कर लिया । इसमे से 60 रूपये प्रति मास अपनी मटा को देने का प्रबंध करके 17 मार्च 1917 ई० को मि० नोबिल के साथ आप विलायत के लिए रवाना हो गए ।
28 फरवरी 1918 को आप रायल सोसाइटी के फैलो वन गए, इस सम्मान को प्राप्त करने वाले आप प्रथम भारतीय थे । 27 फरवरी 1919 को आप लंदन से भारत के लिए रवाना हुए और 27 मार्च को आप मुंबई पहुंचे । विदेश मे जलवायु अनुकूल न होने से आपका स्वस्थ्य गिर गया था । स्वस्थ्य खराब होने से इनको कावेरी कोदू मंडी ले जाया गया । वहाँ से उनको कुम्भ कोणम ले जाया गया । इनका स्वस्थ्य दिन पर दिन गिरता गया । फिर भी मस्तिष्क का प्रकाश अंत तक मंद नहीं हुआ, अंतिम समय तक वह कार्य मे लगे रहे। ‘Mock Theta Function’ पर उनका सब कार्य रोग शैय्या पर ही हुआ । हालात ज्यादा खराब होती देखकर मद्रास ले जाए गये । 26 अप्रैल 1920 ई० को मद्रास के पास चेतपुर ग्राम मे इस विश्व विख्यात गणितज्ञ का शरीरांत हो गया 

प्राचीन भारत में हुए परमाण्विक युद्ध | Atomic Warfare of Mahabharata

Photo: ^ प्राचीन भारत में हुए परमाण्विक युद्ध | Atomic Warfare of Mahabharata

आधुनिक परमाणु बम का सफल परिक्षण 16 जुलाई 1945 को New Mexico के एक दूर दराज स्थान में किया गया | इस बम का निर्माण अमेरिका के एक वैज्ञानिक Julius Robert Oppenheimer के नेतृत्व में किया गया |
इन्हें परमाणु बम का जनक भी कहा जाता है | इस एटम बम का नाम उन्होंने त्रिदेव (Trinity) रखा |


{त्रिदेव (ट्रिनीटी) नाम क्यो?

परमाणु विखण्डन की श्रृंखला अभिक्रिया में २३५ भार वला यूरेनियम परमाणु,बेरियम और क्रिप्टन तत्वों में विघटित होता है। प्रति परमाणु ३ न्यूट्रान मुक्त होकर अन्य तीन परमाणुओं का विखण्डन करते है। कुछ द्रव्यमान ऊ र्जा में परिणित हो जाता है। आइंस्टाइन के सूत्र
 ऊ र्जा = द्रव्यमान * (प्रकाश का वेग)२  {E=MC^2}
 के अनुसार अपरिमित ऊ र्जा अर्थात उष्मा व प्रकाश उत्पन्न होते है।
१८९३ में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में थे,उन्होने वेद और गीता के कतिपय श्लोकों का अंग्रेजी अनुवाद किया था। यद्यपि परमाणु बम विस्फोटट कमेटी के अध्यक्ष ओपेन हाइमर का जन्म स्वामी जी की मृत्यु के बाद हुआ था किन्तु राबर्ट ने श्लोकों का अध्ययन किया था। वे वेद और गीता से बहुत प्रभावित हुए थे। वेदों के बारे में उनका कहना था कि पाश्चात्य संस्कृति में वेदों की पंहुच इस सदी की विशेष कल्याणकारी घटना है। उन्होने जिन तीन श्लोकों को महत्व दिया वे निम्र प्रकार है।

१. राबर्ट औपेन हाइमर का अनुमान था कि परमाणु बम विस्फोट से अत्यधिक तीव्र प्रकाश और उच्च ऊ ष्मा होगी, जैसा कि भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को विराट स्वरुप के दर्शन देते समय उत्पन्न हुआ होगा। गीता के ग्यारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में लिखा है-
दिविसूर्य सहस्य भवेयुग पदुत्थिता
यदि मा सदृशीसा स्यादा सस्तस्य महात्मन:
अर्थात आकाश में हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होगा वह भी वह विश्वरुप परमात्मा के प्रकाश के सदृश्य शायद ही हो।

२. औपेन हाइमर ने सोचा कि इस बम विस्फोट से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु होगी,दुनिया में विनाश ही विनाश होगा। उस समय उन्हे गीता के ग्यारहवें अध्याय के ३२ वें श्लोक में वर्णित बातों का ध्यान आया-
कालोस्स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृध्दो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत:।
ऋ तेह्यपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येह्यवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:।।
अर्थात मैं लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं,अत: जो प्रतिपक्षी सेना के योध्दा लोग हैं वे तेरे युध्द न करने पर भी नहीं रहेंगे अर्थात इनका नाश हो जाएगा।
राबर्ट का बम भी विश्व संहारक और महाकाल ही था।

३. औपेन हाइमर ने सोचा कि बम विस्फोट से जहां कुछ लोग प्रसन्न होंगे तो जिनका विनाश हुआ है वे दु:खी होंगे विलाप करेंगे,जबकि अधिकांश तटस्थ रहेंगे। इस विनाश का जिम्मेदार खुद को मानते हुए वे दुखी हुए तभी उन्हे गीता के द्वितीय अध्याय के सैंतालिसवें श्लोक का भावार्थ ध्यान आया।
श्लोक निम्र प्रकार है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोह्यस्त्वकर्माणि।।
अर्थात तेरा कर्म करने का ही अधिकार है,फल का नहीं। अत: तू कर्मो के फल का हेतु मत हो,तेरी आसक्ति सिर्फ कर्म करने में ही होनी चाहिए।
तीनों श्लोकों के भावार्थ के आधार पर ही राबर्ट ने बम का नाम त्रिदेव (ट्रिनीटी) रखा। ये बात उन्होने कई बार अमेरिकी पत्रकार वार्ता और टीवी इण्टरव्यू में स्वीकार की थी।
 }साभार:   http://sarkarigupshup.com/mp/?p=49

इसके अतिरिक्त  1933 में उन्होंने अपने एक मित्र Arthur William Ryder, जोकि University of California, Berkeley में संस्कृत के  प्रोफेसर थे, के साथ मिल कर भगवद गीता का पूरा अध्यन किया  और परमाणु बम बनाया 1945 में | परमाणु बम जैसी किसी चीज़ के होने का पता भी इनको भगवद गीता तथा महाभारत से ही मिला, इसमें कोई संदेह नहीं | Robert Oppenheimer ने इस प्रयोग के बाद प्राप्त निष्कर्षों पर अध्यन किया और कहा की विस्फोट के बाद उत्पन विकट परिस्तियाँ तथा दुष्परिणाम जो हमें प्राप्त हुए है ठीक इस प्रकार का वर्णन भगवद गीता तथा महाभारत आदि में मिलते है |


इसके पश्चात खलबली मच गई तथा महाभारत और गीता आदि पर शोध किया गया और उन्होंने बताया की कई अन्य परमाण्विक बमों के अतिरिक्त एक "ब्रह्माश्त्र" नामक अस्त्र का वर्णन मिलता है जो इतना संहारक था की उस के प्रयोग से कई  हजारो लोग व  अन्य वस्तुएं न केवल जल गई अपितु पिघल भी गई|
ब्रह्माश्त्र के बारे में हमसे बेहतर कौन जान सकता है प्रत्येक पुराण आदि में वर्णन मिलता है जगत पिता भगवान ब्रह्मा द्वारा देत्यो के नाश हेतु ब्रह्माश्त्र की उत्पति हुई |
इस शोध पर लिखी गई कई किताबो में से एक है : The Atoms of Kshatriyas (यहाँ देखें)
रामायण में भी मेघनाद से युद्ध हेतु श्रीलक्ष्मण ने जब ब्रह्माश्त्र का प्रयोग करना चाहा तब श्रीराम ने उन्हें यह कह कर रोक दिया की अभी इसका प्रयोग उचित नही अन्यथा पूरी लंका साफ़ हो जाएगी |
>इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में परमाण्विक बमों के होने के प्रमाणों  की कोई कमी नही है । सिन्धु घाटी सभ्यता (मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि) में अनुसन्धान से ऐसी कई नगरियाँ प्राप्त हुई है जो लगभग 5000 से 7000 ईसापूर्व तक अस्तीत्व में थी|
वहां ऐसे कई नर कंकाल इस स्थिति में प्राप्त हुए है मानो वो सभी किसी अकस्मात प्रहार में मारे गये हों  तथा इनमें रेडिएशन का असर भी था |
तथा कई ऐसे प्रमाण जो यह सिद्ध करते है की किसी समय यहाँ भयंकर ऊष्मा उत्पन्न हुई जो केवल परमाण्विक बम से ही उत्पन्न हो सकती है |

राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव्ह राख की मोटी सतह पाई जाती है। वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी परमाणु विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे। एक शोधकर्ता के आकलन के अनुसार प्राचीनकाल में उस नगर पर गिराया गया परमाणु बम जापान में सन् 1945 में गिराए गए परमाणु बम की क्षमता के बराबर का था।
मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 कि.मी. दूरी पर स्थित लगभग 2,154 मीटर की परिधि वाला एक अद्भुत विशाल गड्ढा (crater), जिसकी आयु 50,000 से कम आँकी गई है, भी यही इंगित करती है कि प्राचीन काल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था। शोध से ज्ञात हुआ है कि यह गड्ढा  crater) पृथ्वी पर किसी 600.000 वायुमंडल के दबाव वाले किसी विशाल के प्रहार के कारण बना है किन्तु  इस गड्ढे (crater) तथा इसके आसपास के क्षेत्र में उल्कापात से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री नहीं पाई जाती। फिर यह विलक्षण गड्ढा  crater) आखिर बना कैसे? सम्पूर्ण विश्व में यह अपने प्रकार का एक अकेला गड्ढा (crater) है।

महाभारत में सौप्टिक पर्व अध्याय १३ से १५ तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गए है|
Great Event of the 20th Century. How they changed our lives ? नामक पुस्तक  में हिरोशिमा नामक जापान के नगर पर परमाणु बम गिराने के बाद जो परिणाम हुए उसका वर्णन हैं, दोनों वर्णन मिलते झूलते हैं । यह देख हमें विश्वास होता हैं कि 3 नवंबर 5561 ईसापूर्व (आज से 7574 वर्ष पूर्व ) छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र एटोमिक वेपन अर्थात परमाणु बम ही था ।
महाभारत युद्ध का आरंभ 16 नवंबर 5561 ईसा पूर्व हुआ और 18 दिन चलाने के बाद 2 दिसम्बर 5561 ईसा पूर्व को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । 3 नवंबर 5561 ईसा पूर्व के दिन भीम ने अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया । तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह प्रलंकारी थी । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई जो तेजोमंडल को घिर जाने मे समर्थ थी ।
तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम ।। ८ ।।

इसके बाद भयंकर वायु चलने लगी । सहस्त्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे ।
आकाश में बड़ा शब्द (ध्वनि ) हुआ ।  पर्वत, अरण्य, वृक्षो के साथ पृथ्वी हिल गई|
 सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम । चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ।। १० ।। अ १४

यहाँ व्यास लिखते हैं कि “जहां ब्रहास्त्र छोड़ा जाता है वहीं १२ वषों तक पर्जन्यवृष्ठी (जीव-जंतु , पेड़-पोधे आदि की उत्पति ) नहीं हो पाती “।
’ब्रह्मास्त्र के कारण गाँव मे रहने वाली स्त्रियों के गर्भ मारे गए, ऐसा महाभारत लिखता है । वैसे ही हिरोशिमा में रेडिएशन फॉल आउट के कारण गर्भ मारे गए थे ।
ब्रह्मास्त्र के कारण १२ वर्ष अकाल का निर्माण होता है यह भी हिरोशिमा में देखने को मिलता है ।   
                              


आधार: http://www.swadeshi.shreshthbharat.in/scientist-bharat/atom-bomb-missiles-in-mahabharat/
http://www.bibliotecapleyades.net/ancientatomicwar/esp_ancient_atomic_07.htm
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इन्हें परमाणु बम का जनक भी कहा जाता है | इस एटम बम का नाम उन्होंने त्रिदेव (Trinity) रखा |


{त्रिदेव (ट्रिनीटी) नाम क्यो?

परमाणु विखण्डन की श्रृंखला अभिक्रिया में २३५ भार वला यूरेनियम परमाणु,बेरियम और क्रिप्टन तत्वों में विघटित होता है। प्रति परमाणु ३ न्यूट्रान मुक्त होकर अन्य तीन परमाणुओं का विखण्डन करते है। कुछ द्रव्यमान ऊ र्जा में परिणित हो जाता है। आइंस्टाइन के सूत्र
ऊ र्जा = द्रव्यमान * (प्रकाश का वेग)२ {E=MC^2}
के अनुसार अपरिमित ऊ र्जा अर्थात उष्मा व प्रकाश उत्पन्न होते है।
१८९३ में जब स्वामी विवेकानन्द अमेरिका में थे,उन्होने वेद और गीता के कतिपय श्लोकों का अंग्रेजी अनुवाद किया था। यद्यपि परमाणु बम विस्फोटट कमेटी के अध्यक्ष ओपेन हाइमर का जन्म स्वामी जी की मृत्यु के बाद हुआ था किन्तु राबर्ट ने श्लोकों का अध्ययन किया था। वे वेद और गीता से बहुत प्रभावित हुए थे। वेदों के बारे में उनका कहना था कि पाश्चात्य संस्कृति में वेदों की पंहुच इस सदी की विशेष कल्याणकारी घटना है। उन्होने जिन तीन श्लोकों को महत्व दिया वे निम्र प्रकार है।

१. राबर्ट औपेन हाइमर का अनुमान था कि परमाणु बम विस्फोट से अत्यधिक तीव्र प्रकाश और उच्च ऊ ष्मा होगी, जैसा कि भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को विराट स्वरुप के दर्शन देते समय उत्पन्न हुआ होगा। गीता के ग्यारहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में लिखा है-
दिविसूर्य सहस्य भवेयुग पदुत्थिता
यदि मा सदृशीसा स्यादा सस्तस्य महात्मन:
अर्थात आकाश में हजारों सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होगा वह भी वह विश्वरुप परमात्मा के प्रकाश के सदृश्य शायद ही हो।

२. औपेन हाइमर ने सोचा कि इस बम विस्फोट से बहुत अधिक लोगों की मृत्यु होगी,दुनिया में विनाश ही विनाश होगा। उस समय उन्हे गीता के ग्यारहवें अध्याय के ३२ वें श्लोक में वर्णित बातों का ध्यान आया-
कालोस्स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृध्दो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत:।
ऋ तेह्यपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येह्यवस्थिता: प्रत्यनीकेषु योधा:।।
अर्थात मैं लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं,अत: जो प्रतिपक्षी सेना के योध्दा लोग हैं वे तेरे युध्द न करने पर भी नहीं रहेंगे अर्थात इनका नाश हो जाएगा।
राबर्ट का बम भी विश्व संहारक और महाकाल ही था।

३. औपेन हाइमर ने सोचा कि बम विस्फोट से जहां कुछ लोग प्रसन्न होंगे तो जिनका विनाश हुआ है वे दु:खी होंगे विलाप करेंगे,जबकि अधिकांश तटस्थ रहेंगे। इस विनाश का जिम्मेदार खुद को मानते हुए वे दुखी हुए तभी उन्हे गीता के द्वितीय अध्याय के सैंतालिसवें श्लोक का भावार्थ ध्यान आया।
श्लोक निम्र प्रकार है-
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संङ्गोह्यस्त्वकर्माणि।।
अर्थात तेरा कर्म करने का ही अधिकार है,फल का नहीं। अत: तू कर्मो के फल का हेतु मत हो,तेरी आसक्ति सिर्फ कर्म करने में ही होनी चाहिए।
तीनों श्लोकों के भावार्थ के आधार पर ही राबर्ट ने बम का नाम त्रिदेव (ट्रिनीटी) रखा। ये बात उन्होने कई बार अमेरिकी पत्रकार वा
र्ता और टीवी इण्टरव्यू में स्वीकार की थी।
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इसके अतिरिक्त 1933 में उन्होंने अपने एक मित्र Arthur William Ryder, जोकि University of California, Berkeley में संस्कृत के प्रोफेसर थे, के साथ मिल कर भगवद गीता का पूरा अध्यन किया और परमाणु बम बनाया 1945 में | परमाणु बम जैसी किसी चीज़ के होने का पता भी इनको भगवद गीता तथा महाभारत से ही मिला, इसमें कोई संदेह नहीं | Robert Oppenheimer ने इस प्रयोग के बाद प्राप्त निष्कर्षों पर अध्यन किया और कहा की विस्फोट के बाद उत्पन विकट परिस्तियाँ तथा दुष्परिणाम जो हमें प्राप्त हुए है ठीक इस प्रकार का वर्णन भगवद गीता तथा महाभारत आदि में मिलते है |


इसके पश्चात खलबली मच गई तथा महाभारत और गीता आदि पर शोध किया गया और उन्होंने बताया की कई अन्य परमाण्विक बमों के अतिरिक्त एक "ब्रह्माश्त्र" नामक अस्त्र का वर्णन मिलता है जो इतना संहारक था की उस के प्रयोग से कई हजारो लोग व अन्य वस्तुएं न केवल जल गई अपितु पिघल भी गई|
ब्रह्माश्त्र के बारे में हमसे बेहतर कौन जान सकता है प्रत्येक पुराण आदि में वर्णन मिलता है जगत पिता भगवान ब्रह्मा द्वारा देत्यो के नाश हेतु ब्रह्माश्त्र की उत्पति हुई |
इस शोध पर लिखी गई कई किताबो में से एक है : The Atoms of Kshatriyas (यहाँ देखें)
रामायण में भी मेघनाद से युद्ध हेतु श्रीलक्ष्मण ने जब ब्रह्माश्त्र का प्रयोग करना चाहा तब श्रीराम ने उन्हें यह कह कर रोक दिया की अभी इसका प्रयोग उचित नही अन्यथा पूरी लंका साफ़ हो जाएगी |
>इसके अतिरिक्त प्राचीन भारत में परमाण्विक बमों के होने के प्रमाणों की कोई कमी नही है । सिन्धु घाटी सभ्यता (मोहन जोदड़ो, हड़प्पा आदि) में अनुसन्धान से ऐसी कई नगरियाँ प्राप्त हुई है जो लगभग 5000 से 7000 ईसापूर्व तक अस्तीत्व में थी|
वहां ऐसे कई नर कंकाल इस स्थिति में प्राप्त हुए है मानो वो सभी किसी अकस्मात प्रहार में मारे गये हों तथा इनमें रेडिएशन का असर भी था |
तथा कई ऐसे प्रमाण जो यह सिद्ध करते है की किसी समय यहाँ भयंकर ऊष्मा उत्पन्न हुई जो केवल परमाण्विक बम से ही उत्पन्न हो सकती है |

राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव्ह राख की मोटी सतह पाई जाती है। वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी परमाणु विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे। एक शोधकर्ता के आकलन के अनुसार प्राचीनकाल में उस नगर पर गिराया गया परमाणु बम जापान में सन् 1945 में गिराए गए परमाणु बम की क्षमता के बराबर का था।
मुंबई से उत्तर दिशा में लगभग 400 कि.मी. दूरी पर स्थित लगभग 2,154 मीटर की परिधि वाला एक अद्भुत विशाल गड्ढा (crater), जिसकी आयु 50,000 से कम आँकी गई है, भी यही इंगित करती है कि प्राचीन काल में भारत में परमाणु युद्ध हुआ था। शोध से ज्ञात हुआ है कि यह गड्ढा crater) पृथ्वी पर किसी 600.000 वायुमंडल के दबाव वाले किसी विशाल के प्रहार के कारण बना है किन्तु इस गड्ढे (crater) तथा इसके आसपास के क्षेत्र में उल्कापात से सम्बन्धित कुछ भी सामग्री नहीं पाई जाती। फिर यह विलक्षण गड्ढा crater) आखिर बना कैसे? सम्पूर्ण विश्व में यह अपने प्रकार का एक अकेला गड्ढा (crater) है।

महाभारत में सौप्टिक पर्व अध्याय १३ से १५ तक ब्रह्मास्त्र के परिणाम दिये गए है|
Great Event of the 20th Century. How they changed our lives ? नामक पुस्तक में हिरोशिमा नामक जापान के नगर पर परमाणु बम गिराने के बाद जो परिणाम हुए उसका वर्णन हैं, दोनों वर्णन मिलते झूलते हैं । यह देख हमें विश्वास होता हैं कि 3 नवंबर 5561 ईसापूर्व (आज से 7574 वर्ष पूर्व ) छोड़ा हुआ ब्रह्मास्त्र एटोमिक वेपन अर्थात परमाणु बम ही था ।
महाभारत युद्ध का आरंभ 16 नवंबर 5561 ईसा पूर्व हुआ और 18 दिन चलाने के बाद 2 दिसम्बर 5561 ईसा पूर्व को समाप्त हुआ उसी रात दुर्योधन ने अश्वथामा को सेनापति नियुक्त किया । 3 नवंबर 5561 ईसा पूर्व के दिन भीम ने अश्वथामा को पकड़ने का प्रयत्न किया । तब अश्वथामा ने जो ब्रह्मास्त्र छोड़ा उस अस्त्र के कारण जो अग्नि उत्पन्न हुई वह प्रलंकारी थी । वह अस्त्र प्रज्वलित हुआ तब एक भयानक ज्वाला उत्पन्न हुई जो तेजोमंडल को घिर जाने मे समर्थ थी ।
तदस्त्रं प्रजज्वाल महाज्वालं तेजोमंडल संवृतम ।। ८ ।।

इसके बाद भयंकर वायु चलने लगी । सहस्त्रावधि उल्का आकाश से गिरने लगे ।
आकाश में बड़ा शब्द (ध्वनि ) हुआ । पर्वत, अरण्य, वृक्षो के साथ पृथ्वी हिल गई|
सशब्द्म्भवम व्योम ज्वालामालाकुलं भृशम । चचाल च मही कृत्स्ना सपर्वतवनद्रुमा ।। १० ।। अ १४

यहाँ व्यास लिखते हैं कि “जहां ब्रहास्त्र छोड़ा जाता है वहीं १२ वषों तक पर्जन्यवृष्ठी (जीव-जंतु , पेड़-पोधे आदि की उत्पति ) नहीं हो पाती “।
’ब्रह्मास्त्र के कारण गाँव मे रहने वाली स्त्रियों के गर्भ मारे गए, ऐसा महाभारत लिखता है । वैसे ही हिरोशिमा में रेडिएशन फॉल आउट के कारण गर्भ मारे गए थे ।
ब्रह्मास्त्र के कारण १२ वर्ष अकाल का निर्माण होता है यह भी हिरोशिमा में देखने को मिलता है ।  

ANCIENT ATOMIC BOMB
atom bomb in mahabharat

 
 

वेदों की दृष्टि में मानसिक स्वास्थ्य, समस्याएं और निवारण

Photo: ^ वेदों की दृष्टि में मानसिक स्वास्थ्य, समस्याएं और निवारण

मानसिक स्वास्थ्य

मन एक व अणुस्वरूप है । मन का निवास स्थान ह्रदय व कार्य स्थान मस्तिस्क है । इंद्रियों तथा स्वयं को नियंत्रित करना, ऊह (प्लानिंग) व विचार करना ये मन के कार्य हैं । मन के बाद बुद्धि प्रवृत होती है । रज व तं मन के दोष हैं । सत्व अविकारी व अविकारी व प्रकाशक हैं, अतः यह दोष नहीं है । रज प्रधान दोष हैं । इसकी सहायता से तं प्रवृत होता है ।
नारजस्कं तमः प्रवर्तते ।
राज व तम काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिंता, उद्देग, भय और हर्ष इन बारह विकारों को उत्तपन्न करते हैं । ये विकार उग्र हो जाने पर मन क्षुब्ध हो जाता है । क्षुब्ध मन मस्तिस्क की क्रियाओं को उत्तेजित कर मानसिक रोग उत्पन्न करता है । मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, भक्ति, शील, शारीरिक चेष्टा व आचार (कर्तव्य का पालन) कि विषमता को मानसिक रोग जानना चाहिए ।

विरुद्ध, दोष-प्रकोप, दूषित व अपवित्र आहार तथा गुरु, देवता व ब्राह्मण के अपमान से बारहा प्रकार के मनोविकार बढ़ते हैं और ज्ञान (शास्त्र्यज्ञान), विज्ञान (आत्मज्ञान), धैर्य, स्मर्ति व समाधि से सभी मनोविकार शांत होते हैं । 
मानसो ञानविज्ञानधैर्यस्मर्तिसमाधिभिः
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १.५८)
ज्ञान-विज्ञानादि द्वारा मन (सत्व) पर विजय प्राप्त करनेवाली इस चिकित्सा पद्दति को चरकाचार्यजी ने ‘सात्त्वाजय चिकित्सा’ कहा है।
आज का मानव शारीरिक अस्वास्थ्य से भी अधिक मानसिक अस्वास्थ्य से पीड़ित है। मानस रोगों मे दी जानेवाली अँग्रेजी दवाइयां अमन व बुद्धि को अवसादित (डिप्रेस) कर निष्क्रिय कर देतीं हैं । सात्त्वाजय चिकित्सा मन को निर्विकार व बलवान बनाती है, संयम, ध्यान-धारणा, आसान-प्राणायाम, भगवान के नाम का जप, शस्त्र्याध्ययन के द्वारा चित्त का निरोध करके सम्पूर्ण मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करती है ।
मन को स्वस्थ व बलवान बनाने के लिए
आहारशुद्धि : आहारशुधो सत्वशुद्धि: । सत्वशुद्धो ध्रुवास्मृति: ॥  (छंदोग्य उपनिषद् : ७.२६.२)
शब्द-स्पर्शादि विषय इंद्रियों का आहार है । आहार शुद्ध होने पर मन शुद्ध होता है । शुद्ध मन मे निश्चल स्मृति (स्वानुभूति) होती है। 
प्राणायाम : प्राणायाम से मन का माल नष्ट होता है। रज व तम दूर होकर मन स्थिर व शांत होता है। 
शुभ कर्म : मन को सतत शुभ कर्मों मे रात रखने से उसकी विषय-विकारों कि ओर होने वाली भागदौड़ रुक जाती है।
मौन : संवेदन, स्मृति, भावना, मनीषा, संकल्प व धारणा – ये मन की छ: शक्तियां हैं । मौन व प्राणायाम से इन सुषुप्त शक्तियों का विकाश होता है। 
उपवास (अति भुखमरी नहीं) : उपवास से मन विषय-वासनाओं से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है । 
मन्त्र्जप : भगवान के नाम का जाप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवी गुणों को प्रकट करता है।
प्रार्थना : प्रार्थना से मानसिक तनाव दूर होकर मन हल्का व प्रफुल्लित होता है । मन मे विश्वास व निर्भयता आती है। 
सत्य भाषण : सदैव सत्य बोलने से मन मे असीम शक्ति आती है।
सदविचार :  कुविचार मन को अवनत व सदविचार उन्नत बनाते हैं। 
प्रणवोच्चारन : दुष्कर्मों का त्याग कर किया गया ॐकार का दीर्घ उच्चारण मन को आत्म-परमात्म शांति में एकाकार कर देता है ।
इन शास्त्रनिर्दिस्ट उपायों से मन निर्मलता, समता व प्रसन्नतरूपी प्रसाद प्राप्त करता है ।
पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोबर), सुवर्ण तथा ब्राह्मी, यष्टिमधु, शंखपुष्पी, जटामांसी, वचा, ज्योतिष्मती आदि औषधियाँ मानस रोगों के निवारण मे सहायक हैं । 

सत्वसार पुरुष के लक्षण
सत्वसार पुरुष स्मरणशक्तियुक्त, बुद्धिमान, भक्तिसंपन्न, कृतज्ञ, पवित्र, उत्साही, पराक्रमी, चतुर व धीर होते है । उनके मन मे विषाद कभी नहीं होता । उनकी गतियाँ स्थिर व गंभीर होती है । वे निरंतर कल्याण करने वाले विषयो मे मन और बुद्धि को लगाये रहते है।

                                  आयुर्वेद का अवतरण

शरीर, इंद्रियो, मन, और आत्मा के संयोग को आयु कहते है ओर उस आयु का ज्ञान देने वाला वेद है – आयुर्वेद ।   
तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविंदा मतः ।
वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम् ॥ 
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १॰४३)
आयुर्वेद आयु का पुण्यतम वेद होने के कारण विद्धानो द्वारा पूजित है। यह मनुष्य के लिए इस लोक व परलोक मे हितकारी है । अपना हित चाहनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह आयुर्वेद के उपदेशों का अतिशय आदर के साथ पालन करे ।
आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है और यह अपौरुषेय है, अर्थात् इसका कोई कर्ता नही है।

ब्रह्मा स्मृत्वाssयुषो वेदम्
(अष्टांगहृदयम्, सूत्रस्थानम् : अध्याय १)
ब्रह्माजी के स्मरणमात्र से आयुर्वेद का आविभार्व हुआ । उन्होने सर्वप्रथम एक लाख श्लोकोंवाली ‘ब्रह्म संहिता’ बनायी व दक्ष प्रजापति को इसका उपदेश दिया । दक्ष प्रजापति ने सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद सिखाया । अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को तथा इन्द्र ने आत्रेय आदि मुनियों को आयुर्वेद का ज्ञान कराया । उन सब मुनियों ने अग्निवेश, पाराशर, जतुकर्ण आदि ऋषियों को ज्ञान कराया, जिन्होंने अपने-अपने नामों कि प्रथक-प्रथक संहिताएँ बनायी । उन संहिताओं का प्रति-संस्कार करके शेष भगवान के अंश चरकाचार्या  जी ने ‘चरक संहिता’बनायी, जो आयुर्वेद कि प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ संहिता मानी जाती है ।
आयुर्वेद के आठ अंग हैं -
1- कायचिकित्सा – सम्पूर्ण शरीर कि चिकित्सा । 
2- कौमारभ्रत्य  तंत्र – बालरोग चिकित्सा । 
3- भूतविध्या – मंत्र , होम , हवनादि द्वारा चिकित्सा ।
4- शल्य तंत्र – शस्त्रकर्म चिकित्सा । 
5- शालाक्या तंत्र – नेत्र, कर्ण, नाक आदि की चिकित्सा ।
6- अगद तंत्र – विष की चिकित्सा । 
7-  रसायन तंत्र – वृद्धावस्था को दूर करनेवाली चिकित्सा ।
8- वाजीकरण तंत्र – शुक्रधातुवर्धक चिकित्सा । 
इन आठ अंगों मे व्याधि – उत्पत्ति के कारण, व्याधि के लक्षण व व्याधि – निव्रत्ति के उपायों का सूक्ष्म विवेचन समग्ररूप से किया गया है । 

(मित्रों यह सदैव याद रखे की स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क निवास करता  है ! इसलिए जब तक आप मानसिक व शारीरिक रूप से  मजबूत नहीं है तब तक आप अपने व अपने देश, धर्म के कार्य में अपना योगदान नहीं दे सकते !) 

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वेदों की दृष्टि में मानसिक स्वास्थ्य, समस्याएं और निवारण

मानसिक स्वास्थ्य

मन एक व अणुस्वरूप है । मन का निवास स्थान ह्रदय व कार्य स्थान मस्तिस्क है । इंद्रियों तथा स्वयं को नियंत्रित करना, ऊह (प्लानिंग) व विचार करना ये मन के कार्य हैं । ...मन के बाद बुद्धि प्रवृत होती है । रज व तं मन के दोष हैं । सत्व अविकारी व अविकारी व प्रकाशक हैं, अतः यह दोष नहीं है । रज प्रधान दोष हैं । इसकी सहायता से तं प्रवृत होता है ।
नारजस्कं तमः प्रवर्तते ।
राज व तम काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मान, मद, शोक, चिंता, उद्देग, भय और हर्ष इन बारह विकारों को उत्तपन्न करते हैं । ये विकार उग्र हो जाने पर मन क्षुब्ध हो जाता है । क्षुब्ध मन मस्तिस्क की क्रियाओं को उत्तेजित कर मानसिक रोग उत्पन्न करता है । मन, बुद्धि, स्मृति, ज्ञान, भक्ति, शील, शारीरिक चेष्टा व आचार (कर्तव्य का पालन) कि विषमता को मानसिक रोग जानना चाहिए ।

विरुद्ध, दोष-प्रकोप, दूषित व अपवित्र आहार तथा गुरु, देवता व ब्राह्मण के अपमान से बारहा प्रकार के मनोविकार बढ़ते हैं और ज्ञान (शास्त्र्यज्ञान), विज्ञान (आत्मज्ञान), धैर्य, स्मर्ति व समाधि से सभी मनोविकार शांत होते हैं ।
मानसो ञानविज्ञानधैर्यस्मर्तिसमाधिभिः
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १.५८)
ज्ञान-विज्ञानादि द्वारा मन (सत्व) पर विजय प्राप्त करनेवाली इस चिकित्सा पद्दति को चरकाचार्यजी ने ‘सात्त्वाजय चिकित्सा’ कहा है।
आज का मानव शारीरिक अस्वास्थ्य से भी अधिक मानसिक अस्वास्थ्य से पीड़ित है। मानस रोगों मे दी जानेवाली अँग्रेजी दवाइयां अमन व बुद्धि को अवसादित (डिप्रेस) कर निष्क्रिय कर देतीं हैं । सात्त्वाजय चिकित्सा मन को निर्विकार व बलवान बनाती है, संयम, ध्यान-धारणा, आसान-प्राणायाम, भगवान के नाम का जप, शस्त्र्याध्ययन के द्वारा चित्त का निरोध करके सम्पूर्ण मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करती है ।
मन को स्वस्थ व बलवान बनाने के लिए
आहारशुद्धि : आहारशुधो सत्वशुद्धि: । सत्वशुद्धो ध्रुवास्मृति: ॥ (छंदोग्य उपनिषद् : ७.२६.२)
शब्द-स्पर्शादि विषय इंद्रियों का आहार है । आहार शुद्ध होने पर मन शुद्ध होता है । शुद्ध मन मे निश्चल स्मृति (स्वानुभूति) होती है।
प्राणायाम : प्राणायाम से मन का माल नष्ट होता है। रज व तम दूर होकर मन स्थिर व शांत होता है।
शुभ कर्म : मन को सतत शुभ कर्मों मे रात रखने से उसकी विषय-विकारों कि ओर होने वाली भागदौड़ रुक जाती है।
मौन : संवेदन, स्मृति, भावना, मनीषा, संकल्प व धारणा – ये मन की छ: शक्तियां हैं । मौन व प्राणायाम से इन सुषुप्त शक्तियों का विकाश होता है।
उपवास (अति भुखमरी नहीं) : उपवास से मन विषय-वासनाओं से उपराम होकर अंतर्मुख होने लगता है ।
मन्त्र्जप : भगवान के नाम का जाप सभी विकारों को मिटाकर दया, क्षमा, निष्कामता आदि दैवी गुणों को प्रकट करता है।
प्रार्थना : प्रार्थना से मानसिक तनाव दूर होकर मन हल्का व प्रफुल्लित होता है । मन मे विश्वास व निर्भयता आती है।
सत्य भाषण : सदैव सत्य बोलने से मन मे असीम शक्ति आती है।
सदविचार : कुविचार मन को अवनत व सदविचार उन्नत बनाते हैं।
प्रणवोच्चारन : दुष्कर्मों का त्याग कर किया गया ॐकार का दीर्घ उच्चारण मन को आत्म-परमात्म शांति में एकाकार कर देता है ।
इन शास्त्रनिर्दिस्ट उपायों से मन निर्मलता, समता व प्रसन्नतरूपी प्रसाद प्राप्त करता है ।
पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र व गोबर), सुवर्ण तथा ब्राह्मी, यष्टिमधु, शंखपुष्पी, जटामांसी, वचा, ज्योतिष्मती आदि औषधियाँ मानस रोगों के निवारण मे सहायक हैं ।

सत्वसार पुरुष के लक्षण
सत्वसार पुरुष स्मरणशक्तियुक्त, बुद्धिमान, भक्तिसंपन्न, कृतज्ञ, पवित्र, उत्साही, पराक्रमी, चतुर व धीर होते है । उनके मन मे विषाद कभी नहीं होता । उनकी गतियाँ स्थिर व गंभीर होती है । वे निरंतर कल्याण करने वाले विषयो मे मन और बुद्धि को लगाये रहते है।

आयुर्वेद का अवतरण

शरीर, इंद्रियो, मन, और आत्मा के संयोग को आयु कहते है ओर उस आयु का ज्ञान देने वाला वेद है – आयुर्वेद ।
तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविंदा मतः ।
वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितम् ॥
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : १॰४३)
आयुर्वेद आयु का पुण्यतम वेद होने के कारण विद्धानो द्वारा पूजित है। यह मनुष्य के लिए इस लोक व परलोक मे हितकारी है । अपना हित चाहनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह आयुर्वेद के उपदेशों का अतिशय आदर के साथ पालन करे ।
आयुर्वेद अथर्ववेद का उपवेद है और यह अपौरुषेय है, अर्थात् इसका कोई कर्ता नही है।

ब्रह्मा स्मृत्वाssयुषो वेदम्
(अष्टांगहृदयम्, सूत्रस्थानम् : अध्याय १)
ब्रह्माजी के स्मरणमात्र से आयुर्वेद का आविभार्व हुआ । उन्होने सर्वप्रथम एक लाख श्लोकोंवाली ‘ब्रह्म संहिता’ बनायी व दक्ष प्रजापति को इसका उपदेश दिया । दक्ष प्रजापति ने सूर्यपुत्र अश्विनीकुमारों को आयुर्वेद सिखाया । अश्विनीकुमारों ने इन्द्र को तथा इन्द्र ने आत्रेय आदि मुनियों को आयुर्वेद का ज्ञान कराया । उन सब मुनियों ने अग्निवेश, पाराशर, जतुकर्ण आदि ऋषियों को ज्ञान कराया, जिन्होंने अपने-अपने नामों कि प्रथक-प्रथक संहिताएँ बनायी । उन संहिताओं का प्रति-संस्कार करके शेष भगवान के अंश चरकाचार्या जी ने ‘चरक संहिता’बनायी, जो आयुर्वेद कि प्रमुख व सर्वश्रेष्ठ संहिता मानी जाती है ।
आयुर्वेद के आठ अंग हैं -
1- कायचिकित्सा – सम्पूर्ण शरीर कि चिकित्सा ।
2- कौमारभ्रत्य तंत्र – बालरोग चिकित्सा ।
3- भूतविध्या – मंत्र , होम , हवनादि द्वारा चिकित्सा ।
4- शल्य तंत्र – शस्त्रकर्म चिकित्सा ।
5- शालाक्या तंत्र – नेत्र, कर्ण, नाक आदि की चिकित्सा ।
6- अगद तंत्र – विष की चिकित्सा ।
7- रसायन तंत्र – वृद्धावस्था को दूर करनेवाली चिकित्सा ।
8- वाजीकरण तंत्र – शुक्रधातुवर्धक चिकित्सा ।
इन आठ अंगों मे व्याधि – उत्पत्ति के कारण, व्याधि के लक्षण व व्याधि – निव्रत्ति के उपायों का सूक्ष्म विवेचन समग्ररूप से किया गया है ।

(मित्रों यह सदैव याद रखे की स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिष्क निवास करता है ! इसलिए जब तक आप मानसिक व शारीरिक रूप से मजबूत नहीं है तब तक आप अपने व अपने देश, धर्म के कार्य में अपना योगदान नहीं दे सकते !)

महाभारत का 18 दिन का युद्ध

महाभारत का 18 दिन का युद्ध
Photo: ^ महाभारत का  18 दिन का युद्ध 

 पांड्वो व कौरव के मध्य हुए युद्ध को महाभारत की संज्ञा दी जाती है । पाण्डवो के पास सात अक्षौहिणी तथा कौरवो के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी । एक अक्षौहिणी मे- 1,09,350 पैदल, 65,610 घोड़े, 21,870 रथ तथा 21,870 हाथी होते है । इस प्रकार पाण्डवो  के पास – 7,65,750 पैदल, 4,59,270 घोड़े, 1,53,090 रथ तथा 1,53,090 हाथी थे । कौरवो के पास- 12,02,850 पैदल, 7,21,710 घोड़े, 2,40,570 रथ तथा 2,40,570 हाथी थे । इस प्रकार की कुल सेना मे 19,68,300 पैदल 11,80,980 घोड़े, 3,93,660 रथ तथा 3,93,660 हाथी थे ।

महाभारत के युद्ध मे अट्ठारह का विशेष महत्व है । इस युद्ध मे अट्ठारह महारथी तथा अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी तथा यह युद्ध अट्ठारह दिन चला था । पाण्डवो के पास सात महारथी अर्जुन, भीम, सात्यकि, धृष्टधुम्न, द्रुपद, विराट, तथा युधिष्ठिर थे । इसी प्रकार कौरवो के पास ग्यारह महारथी- भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ, कृतवर्मा, भूरीश्रवा, भगदत्त तथा दुर्योधन 
थे । महाभारत मेअट्ठारह ही पर्व है ।

प्रथम दिन के युद्ध - मे युधिष्ठिर के क्रियाकलापों (भक्ति) के कारण धृतराष्ट का पुत्र युयुत्सु पाण्डवो के सात आ मिला तथा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया तथा अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाकर युद्ध कि घोषण की । दस हजार सैनिको की मृत्यु इस दिन हुई । भीम ने दु;शासन पर आक्रमण किया । अभीमन्यु ने भीष्म का धनुष तथा रथ का ध्वजदंड काट दिया तथा शल्य ने राजा विराट के पुत्र उत्तर का वध किया ।

दूसरे दिन का युद्ध - अर्जुन तथा भीष्म , धृष्टधुम्न तथा द्रोण के मध्य युद्ध हुआ । सात्यकि ने भीष्म के सारथि को घायल कर दिया ।

तीसरे दिन का युद्ध - कौरवो ने गरुण जैसा तथा पाण्डवो ने अर्द्धचंद्राकार मोर्चाबंदी बनाया । कौरवो की ओर से दुर्योधन तथा पाण्डवो की ओर से भीम तथा अर्जुन सुरक्षा कर रहे थे । भीम के बाण से दुर्योधन अचेत हो गया उसका सारथीरथ को भगा ले गया । भीम ने सैकङो सैनिको को मार गिराया ।

चौथे दिन का युद्ध - कौरव पक्ष को भारी नुकसान हुआ । भीम ने दुर्योधन के कई भाई मार डाले ।

पाँचवे  दिन का युद्ध - किसी भी पक्ष को भारी नुकसान हुआ , दोनों पक्षो के सैनिको का वध ।

छठे दिन का युद्ध - कौरवो ने क्रोंचव्यूह तथा पाण्डवो ने मकरवव्यूह के आकार मे सेना लगायी । द्रौण का सारथी मारा गया ।

सातवे दिन का युद्ध - कौरवो द्वारा मण्डलाकार व्यूह की रचना । एक हाथी के पास सात रथ, एक रथ की रक्षार्थ सात अश्वारोही, एक अश्वारोही की रक्षार्थ सात धनुर्धर तथा एक धनुर्धर की रक्षार्थ दस सैनिक लगाये गये । सेना के मध्य दुर्योधन था । पाण्डवो ने व्रजव्यूह की रचना की । दसो 
मोर्चो पर घमासान युद्ध हुआ ।

आठवे दिन का युद्ध - कौरवो ने कछुआ व्यूह तो पांडवों ने तीन शिखरों बाला व्यूह रचा । भीम ने दुर्योधन के आठ भाइयों को मार डाला । अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी के पुत्र इरावान का बकासुर के पुत्र आष्र्र्यश्रंग के द्वारा बध किया गया । घटोत्कच द्वारा दुर्योधन पर शक्ति का प्रयोग परंतु बंगनरेश ने दुर्योधन को हटा कर शक्ति का प्रहार स्वयं के ऊपर ले लिया तथा बंगनरेश की मृत्यु हो गयी ।

नवें दिन का युद्ध - भीष्म द्वारा घायल अर्जुन तथा उसके जर्जर रथ को देख कर श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर भीष्म पर झपटे । पांडवों तथा कृष्ण के अनुरोध पर भीष्म ने अपनी म्रत्यु के बारे मे बताया ।

दसबें दिन का युद्ध - युद्धक्षेत्र मे शिखंडी को सामने डटा देखकर भीष्म ने अपने अस्त्र त्याग दिये । अर्जुन ने अपने वाणों से भीष्म को शर शय्या पर लिटा दिया । भीष्म ने बताया की वह सूर्य के उत्तरायन होने पर शरीर छोड़ेंगे क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त है ।

ग्यारवे दिन का युद्ध - द्रोण सेनापति बनाये गए । सुशर्मा तथा अर्जुन, शल्य तथा भीम, सात्यकी तथा कर्ण और सहदेव तथा शकुनी के मध्य युद्ध हुआ । नकुल, धर्मराज के साथ थे अर्जुन भी वापस धर्मराज के पास आ गए । इस प्रकार कौरव युधिष्टर को नहीं पकड़ सके ।

बारहवे दिन का युद्ध - त्रिगर्त, अर्जुन को दूर ले जाते हैं । सत्यजित, युधिष्टर के रक्षक थे । वापस लोटने पर अर्जुन ने प्राग्ज्येतिषपुर के राजा भगदत्त को अर्धचंद्र बाण से मार डाला । सत्यजित ने द्रोण के रथ का पहिया काटा और उसके घोड़े मार डाले । द्रोण ने अर्धचंद्र बाण के द्वारा सत्यजित का सिर काट लिया ।

तरहवें दिन का युद्ध - कौरवों ने चक्रव्यहु की रचना की । त्रिगर्त अर्जुन को दूर ले गये । सप्तमहारथीओ द्वारा अभिमन्यु का बध किया । कर्ण के कहने पर सातों महारथियों कर्ण, जयद्रथ, द्रोण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, लक्ष्मण तथा शकुनी ने एक साथ अभिमन्यु पर आक्रमण किया । लक्ष्मण ने जो गदा अभिमन्यु के सिर पर मारी वही गदा अभिमन्यु ने लक्ष्मण के फेक कर मारी दोनों की उसी समय मृत्यु हो गयी । अर्जुन ने त्रिगर्तराज सुशर्मा तथा संसप्तकों को मार डाला । जयद्रथ को सूर्यास्त से पूर्व मारने की अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ।

चौदहवे दिन का युद्ध - भूरिश्रवा, सात्यकि को मारना चाहता था तभी अर्जुन ने भूरिश्र्वा के हाथ काट दिये, वह प्रथ्वी पर गिर पड़ा तभी सात्यकि ने उसका सिर काट लिया । अर्जुन के आत्मदाह हेतु चिता तैयार की गई । जयद्रथ भी देखने आया, उसी समय श्री कृष्ण की कृपा से सूर्य पुनः निकाल आया तथा कृष्ण के इशारे पर अर्जुन ने जयद्रथ का बध कर दिया । रात्री मे घटोत्चक द्वारा कौरवों पर आक्रमण, कर्ण ने अमोघ शक्ति के द्वारा घटोत्चक का बध किया ।

पंद्रहवे दिन का युद्ध - द्रौण द्वारा द्रुपद तथा विराट का वध । अवन्तिराज के अश्वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध । धृष्टधुम्न ने द्रौण का सर काटा ।

सोलहवे दिन का युद्ध - कौरवो की ओर से कर्ण सेनापति बनाया गया ।

सत्रहवे दिन का युद्ध - शल्य को कर्ण का सारथि बनाया गया । भीम द्वारा गदायुद्ध मे दु:शासन का वध कर्ण तथा अर्जुन के मध्य युद्ध । कर्ण के रथ का पहिया धसने पर श्रीकृष्ण के इशारे पर अर्जुन द्वारा कर्ण का वध ।  

अट्ठारवे दिन का युद्ध - युधिष्ठिर द्वारा शल्य का वध । दुर्योधन भागकर सरोवर के स्तम्भ मे जा छुपा । बलराम तीर्थ-यात्रा से वापस आ गये तथा दुर्योधन को आशीर्वाद । गदायुद्ध मे भीम द्वारा दुर्योधन को अपंग बनाना । कौरेवो के तीन योद्धा शेष- अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा । अश्वत्थामा द्वारा पांडवो के वध की प्रतिज्ञा । सेना पति अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के कृतवर्मा द्वारा रात्री मे पांडव शिविर पर हमला । अश्वत्थामा द्वारा सभी पांचालों-द्रोपदी के पांचों पुत्र, धृष्टधुम्न तथा शिखंडी आदि वध । द्रोपदी के पांचों पुत्रो के कटे सर अश्वत्थामा ने दुर्योधन के सामने रख दिये तभी दुर्योधन ने एक सर पर मुक्का मारा वह सर फूट गया । दुर्योधन सब कुछ समझ गया व उसने अपने प्राण त्याग दिये ।

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  पांड्वो व कौरव के मध्य हुए युद्ध को महाभारत की संज्ञा दी जाती है । पाण्डवो के पास सात अक्षौहिणी तथा कौरवो के पास ग्यारह अक्षौहिणी सेना थी । एक अक्षौहिणी मे- 1,09,350 पैदल, 65,610 घोड़े, 21,870 रथ तथा 21,870 ...हाथी होते है । इस प्रकार पाण्डवो के पास – 7,65,750 पैदल, 4,59,270 घोड़े, 1,53,090 रथ तथा 1,53,090 हाथी थे । कौरवो के पास- 12,02,850 पैदल, 7,21,710 घोड़े, 2,40,570 रथ तथा 2,40,570 हाथी थे । इस प्रकार की कुल सेना मे 19,68,300 पैदल 11,80,980 घोड़े, 3,93,660 रथ तथा 3,93,660 हाथी थे ।

महाभारत के युद्ध मे अट्ठारह का विशेष महत्व है । इस युद्ध मे अट्ठारह महारथी तथा अट्ठारह अक्षौहिणी सेना थी तथा यह युद्ध अट्ठारह दिन चला था । पाण्डवो के पास सात महारथी अर्जुन, भीम, सात्यकि, धृष्टधुम्न, द्रुपद, विराट, तथा युधिष्ठिर थे । इसी प्रकार कौरवो के पास ग्यारह महारथी- भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृप, शल्य, अश्वत्थामा, जयद्रथ, कृतवर्मा, भूरीश्रवा, भगदत्त तथा दुर्योधन
थे । महाभारत मेअट्ठारह ही पर्व है ।

प्रथम दिन के युद्ध - मे युधिष्ठिर के क्रियाकलापों (भक्ति) के कारण धृतराष्ट का पुत्र युयुत्सु पाण्डवो के सात आ मिला तथा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया तथा अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख बजाकर युद्ध कि घोषण की । दस हजार सैनिको की मृत्यु इस दिन हुई । भीम ने दु;शासन पर आक्रमण किया । अभीमन्यु ने भीष्म का धनुष तथा रथ का ध्वजदंड काट दिया तथा शल्य ने राजा विराट के पुत्र उत्तर का वध किया ।

दूसरे दिन का युद्ध - अर्जुन तथा भीष्म , धृष्टधुम्न तथा द्रोण के मध्य युद्ध हुआ । सात्यकि ने भीष्म के सारथि को घायल कर दिया ।

तीसरे दिन का युद्ध - कौरवो ने गरुण जैसा तथा पाण्डवो ने अर्द्धचंद्राकार मोर्चाबंदी बनाया । कौरवो की ओर से दुर्योधन तथा पाण्डवो की ओर से भीम तथा अर्जुन सुरक्षा कर रहे थे । भीम के बाण से दुर्योधन अचेत हो गया उसका सारथीरथ को भगा ले गया । भीम ने सैकङो सैनिको को मार गिराया ।

चौथे दिन का युद्ध - कौरव पक्ष को भारी नुकसान हुआ । भीम ने दुर्योधन के कई भाई मार डाले ।

पाँचवे दिन का युद्ध - किसी भी पक्ष को भारी नुकसान हुआ , दोनों पक्षो के सैनिको का वध ।

छठे दिन का युद्ध - कौरवो ने क्रोंचव्यूह तथा पाण्डवो ने मकरवव्यूह के आकार मे सेना लगायी । द्रौण का सारथी मारा गया ।

सातवे दिन का युद्ध - कौरवो द्वारा मण्डलाकार व्यूह की रचना । एक हाथी के पास सात रथ, एक रथ की रक्षार्थ सात अश्वारोही, एक अश्वारोही की रक्षार्थ सात धनुर्धर तथा एक धनुर्धर की रक्षार्थ दस सैनिक लगाये गये । सेना के मध्य दुर्योधन था । पाण्डवो ने व्रजव्यूह की रचना की । दसो
मोर्चो पर घमासान युद्ध हुआ ।

आठवे दिन का युद्ध - कौरवो ने कछुआ व्यूह तो पांडवों ने तीन शिखरों बाला व्यूह रचा । भीम ने दुर्योधन के आठ भाइयों को मार डाला । अर्जुन की दूसरी पत्नी उलूपी के पुत्र इरावान का बकासुर के पुत्र आष्र्र्यश्रंग के द्वारा बध किया गया । घटोत्कच द्वारा दुर्योधन पर शक्ति का प्रयोग परंतु बंगनरेश ने दुर्योधन को हटा कर शक्ति का प्रहार स्वयं के ऊपर ले लिया तथा बंगनरेश की मृत्यु हो गयी ।

नवें दिन का युद्ध - भीष्म द्वारा घायल अर्जुन तथा उसके जर्जर रथ को देख कर श्रीकृष्ण रथ का पहिया लेकर भीष्म पर झपटे । पांडवों तथा कृष्ण के अनुरोध पर भीष्म ने अपनी म्रत्यु के बारे मे बताया ।

दसबें दिन का युद्ध - युद्धक्षेत्र मे शिखंडी को सामने डटा देखकर भीष्म ने अपने अस्त्र त्याग दिये । अर्जुन ने अपने वाणों से भीष्म को शर शय्या पर लिटा दिया । भीष्म ने बताया की वह सूर्य के उत्तरायन होने पर शरीर छोड़ेंगे क्योंकि उन्हें अपने पिता शांतनु से इच्छा मृत्यु का वर प्राप्त है ।

ग्यारवे दिन का युद्ध - द्रोण सेनापति बनाये गए । सुशर्मा तथा अर्जुन, शल्य तथा भीम, सात्यकी तथा कर्ण और सहदेव तथा शकुनी के मध्य युद्ध हुआ । नकुल, धर्मराज के साथ थे अर्जुन भी वापस धर्मराज के पास आ गए । इस प्रकार कौरव युधिष्टर को नहीं पकड़ सके ।

बारहवे दिन का युद्ध - त्रिगर्त, अर्जुन को दूर ले जाते हैं । सत्यजित, युधिष्टर के रक्षक थे । वापस लोटने पर अर्जुन ने प्राग्ज्येतिषपुर के राजा भगदत्त को अर्धचंद्र बाण से मार डाला । सत्यजित ने द्रोण के रथ का पहिया काटा और उसके घोड़े मार डाले । द्रोण ने अर्धचंद्र बाण के द्वारा सत्यजित का सिर काट लिया ।

तरहवें दिन का युद्ध - कौरवों ने चक्रव्यहु की रचना की । त्रिगर्त अर्जुन को दूर ले गये । सप्तमहारथीओ द्वारा अभिमन्यु का बध किया । कर्ण के कहने पर सातों महारथियों कर्ण, जयद्रथ, द्रोण, अश्वत्थामा, दुर्योधन, लक्ष्मण तथा शकुनी ने एक साथ अभिमन्यु पर आक्रमण किया । लक्ष्मण ने जो गदा अभिमन्यु के सिर पर मारी वही गदा अभिमन्यु ने लक्ष्मण के फेक कर मारी दोनों की उसी समय मृत्यु हो गयी । अर्जुन ने त्रिगर्तराज सुशर्मा तथा संसप्तकों को मार डाला । जयद्रथ को सूर्यास्त से पूर्व मारने की अर्जुन ने प्रतिज्ञा की ।

चौदहवे दिन का युद्ध - भूरिश्रवा, सात्यकि को मारना चाहता था तभी अर्जुन ने भूरिश्र्वा के हाथ काट दिये, वह प्रथ्वी पर गिर पड़ा तभी सात्यकि ने उसका सिर काट लिया । अर्जुन के आत्मदाह हेतु चिता तैयार की गई । जयद्रथ भी देखने आया, उसी समय श्री कृष्ण की कृपा से सूर्य पुनः निकाल आया तथा कृष्ण के इशारे पर अर्जुन ने जयद्रथ का बध कर दिया । रात्री मे घटोत्चक द्वारा कौरवों पर आक्रमण, कर्ण ने अमोघ शक्ति के द्वारा घटोत्चक का बध किया ।

पंद्रहवे दिन का युद्ध - द्रौण द्वारा द्रुपद तथा विराट का वध । अवन्तिराज के अश्वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध । धृष्टधुम्न ने द्रौण का सर काटा ।

सोलहवे दिन का युद्ध - कौरवो की ओर से कर्ण सेनापति बनाया गया ।

सत्रहवे दिन का युद्ध - शल्य को कर्ण का सारथि बनाया गया । भीम द्वारा गदायुद्ध मे दु:शासन का वध कर्ण तथा अर्जुन के मध्य युद्ध । कर्ण के रथ का पहिया धसने पर श्रीकृष्ण के इशारे पर अर्जुन द्वारा कर्ण का वध ।

अट्ठारवे दिन का युद्ध - युधिष्ठिर द्वारा शल्य का वध । दुर्योधन भागकर सरोवर के स्तम्भ मे जा छुपा । बलराम तीर्थ-यात्रा से वापस आ गये तथा दुर्योधन को आशीर्वाद । गदायुद्ध मे भीम द्वारा दुर्योधन को अपंग बनाना । कौरेवो के तीन योद्धा शेष- अश्वत्थामा, कृपाचार्य, कृतवर्मा । अश्वत्थामा द्वारा पांडवो के वध की प्रतिज्ञा । सेना पति अश्वत्थामा तथा कृपाचार्य के कृतवर्मा द्वारा रात्री मे पांडव शिविर पर हमला । अश्वत्थामा द्वारा सभी पांचालों-द्रोपदी के पांचों पुत्र, धृष्टधुम्न तथा शिखंडी आदि वध । द्रोपदी के पांचों पुत्रो के कटे सर अश्वत्थामा ने दुर्योधन के सामने रख दिये तभी दुर्योधन ने एक सर पर मुक्का मारा वह सर फूट गया । दुर्योधन सब कुछ समझ गया व उसने अपने प्राण त्याग दिये ।
 

PURPOSE OF LIFE AND HOW TO MEDITATE- IN BHAGVAT GITA

Photo: The purpose of living this human life is to practice truth, morality, justice, harmony and finally wisdom. An important step towards achieving wisdom is meditation to conquer the senses. "One who remains unshaken, who has conquered the senses to whom a lump of earth a stone and gold are the same is said to have attained Nirvikalp Samadhi (harmonised)," Almighty sermons in Bhagavat Gita, Ch 6 (atmasaMyanmyog) sloke no.8. 

Meditation is renouncing the thought and "No one verily becomes a Yogi who has not abandoned the thought", BG 6:2. Thee sermon further that "For the meditative pious, religious person, who wants to reach the highest state of Karm Yog, action is said to be the means. For the same person when he elevates in Yog, tranquility of mind is all the means of God consciousness." (BG 6:3).

We hear ways of meditation from preachers, practitioners and alikes and have seen the portrait/picture of those who achieved the wisdom viz Gautam Buddha, Mahavir, Sri Ramkrishna. Let us know what Almighty sermon on how the yog (meditation) is to be practiced. Almighty is our Creator (the whole universe) and His commandments (in Holy Scriptures) are the most authentic for His most intelligent creations on the face of this earth, the human beings. It is same as an engineer knows the best ways to maintain his created machines.

Please refer Bhagavat Gita 6:11, "In a clean place, having set the seat firm, neither very high nor very low.....". 

6:12, "Seated there on the seat, having made the mind one pointed with the activity of the senses and thought subdued, let practice Yog for self-purification."

6:13, "Let the body hold firmly, head and neck erect and still gazing at the tip of the nose, without looking around."

6:14, "Serene minded , fearless, firm in the vow of Brahmacharya, having controlled the mind, thinking on me (Supreme God) and balanced, let sit, having me as the Supreme Goal."

We are an assembly to discuss on Hinduism : SANATAN DHARM (in the light of Holy Scriptures) which are "....the testaments to decide of what should be done and what should not be done. After knowing the ordinances given in the Scriptures, you should act as accordingly." BG 16:23.

ALMIGHTY IS THE GREATEST. SELF ILLUMINATED AND GLORIOUS.
The purpose of living this human life is to practice truth, morality, justice, harmony and finally wisdom. An important step towards achieving wisdom is meditation to conquer the senses. "One who remains unshaken, who has conquered the sens...es to whom a lump of earth a stone and gold are the same is said to have attained Nirvikalp Samadhi (harmonised)," Almighty sermons in Bhagavat Gita, Ch 6 (atmasaMyanmyog) sloke no.8.

Meditation is renouncing the thought and "No one verily becomes a Yogi who has not abandoned the thought", BG 6:2. Thee sermon further that "For the meditative pious, religious person, who wants to reach the highest state of Karm Yog, action is said to be the means. For the same person when he elevates in Yog, tranquility of mind is all the means of God consciousness." (BG 6:3).

We hear ways of meditation from preachers, practitioners and alikes and have seen the portrait/picture of those who achieved the wisdom viz Gautam Buddha, Mahavir, Sri Ramkrishna. Let us know what Almighty sermon on how the yog (meditation) is to be practiced. Almighty is our Creator (the whole universe) and His commandments (in Holy Scriptures) are the most authentic for His most intelligent creations on the face of this earth, the human beings. It is same as an engineer knows the best ways to maintain his created machines.

Please refer Bhagavat Gita 6:11, "In a clean place, having set the seat firm, neither very high nor very low.....".

6:12, "Seated there on the seat, having made the mind one pointed with the activity of the senses and thought subdued, let practice Yog for self-purification."

6:13, "Let the body hold firmly, head and neck erect and still gazing at the tip of the nose, without looking around."

6:14, "Serene minded , fearless, firm in the vow of Brahmacharya, having controlled the mind, thinking on me (Supreme God) and balanced, let sit, having me as the Supreme Goal."

We are an assembly to discuss on Hinduism : SANATAN DHARM (in the light of Holy Scriptures) which are "....the testaments to decide of what should be done and what should not be done. After knowing the ordinances given in the Scriptures, you should act as accordingly." BG 16:23.

ALMIGHTY IS THE GREATEST. SELF ILLUMINATED AND GLORIOUS.