Saturday, February 8, 2014

अकबर महान ? नपुंसक इतिहासकारों की नजरों में

हमारे पाठकों को अपने विद्यालय के दिनों में पढ़े इतिहास में अकबर का नाम और काम बखूबी याद होगा. रियासतों के रूप में टुकड़ों टुकड़ों में टूटे हुए भारत को एक बनाने की बात हो, या हिन्दू मुस्लिम झगडे मिटाने को दीन ए इलाही चलाने की बात, सब मजहब की दीवारें तोड़कर हिन्दू लड़कियों को अपने साथ शादी करने का सम्मान देने की बात हो, या हिन्दुओं के पवित्र स्थानों पर जाकर सजदा करने की, हिन्दुओं पर से जजिया कर हटाने की बात हो या फिर हिन्दुओं को अपने दरबार में जगह देने की, अकबर ही अकबर सब ओर दिखाई देता है. सच है कि हमारे इतिहासकार किसी को महान यूँ ही नहीं कह देते. इस महानता को पाने के लिए, विक्रमादित्य, पृथ्वीराज, राणा प्रताप, शिवाजी और न जाने ऐसे कितने ही महापुरुषों के नाम तरसते रहे, पर इनके साथ “महान” शब्द न लग सका.
हमें याद है कि इतिहास की किताबों में अकबर पर पूरे अध्याय के अन्दर दो पंक्तियाँ महाराणा प्रताप पर भी होती थीं. मसलन वो कब पैदा हुए, कब मरे, कैसे विद्रोह किया, और कैसे उनके ही राजपूत उनके खिलाफ थे. इतिहासकार महाराणा प्रताप को कभी महान न कह सके. ठीक ही तो है! अकबर और राणा का मुकाबला क्या है? कहाँ अकबर पूरे भारत का सम्राट, अपने हरम में पांच हज़ार से भी ज्यादा औरतों की जिन्दगी रोशन करने वाला, उनसे दिल्लगी कर उन्हें शान बख्शने वाला, बीसियों राजपूत राजाओं को अपने दरबार में रखने वाला, और कहाँ राणा प्रताप, क्षुद्र क्षत्रिय, अपने राज्य के लिए लड़ने वाला, सत्ता का भूखा, सत्ता के लिए वन वन भटककर पत्तलों पर घास की रोटियाँ खाने वाला, जिसका कोई हरम ही नहीं इस तरह का छोटा और निष्ठुर हृदय, सब राजपूतों से केवल इसलिए लड़ने वाला कि उन्होंने अपनी लड़कियां, पत्नियाँ, बहनें अकबर को भेजीं, अकबर “महान” का संधि प्रस्ताव कई बार ठुकराने वाला घमंडी, और मुसलमान राजाओं से रोटी बेटी का सम्बन्ध भी न रखने वाला दकियानूसी, इत्यादि. कहाँ अकबर जैसा त्यागी जो अपने देश को उसके हाल पर छोड़ कर दूसरे देश भारत का भला करने पूरा जीवन यहीं पर रहा, और कहाँ राणा प्रताप जो अपनी जमीन भी ऐसे त्यागी के लिए खाली न कर पाया और इस आशा में कि एक दिन फिर से अपने राज्य पर कब्ज़ा कर लेगा, वनों में धूल फांकता, पत्नी और बच्चों को जंगलों के कष्ट देता सत्ता का भूखा!
अकबर “महान” की महानता बताने से पहले उसके महान पूर्वजों के बारे में थोड़ा जान लेना जरूरी है. भारत में पिछले तेरह सौ सालों से इस्लाम के मानने वालों ने लगातार आक्रमण किये. मुहम्मद बिन कासिम और उसके बाद आने वाले गाजियों ने एक के बाद एक हमला करके, यहाँ लूटमार, बलात्कार, नरसंहार और इन सबसे बढ़कर यहाँ रहने वाले काफिरों को अल्लाह और उसके रसूल की इच्छानुसार मुसलमान बनाने का पवित्र किया. आज के अफगानिस्तान तक पश्चिम में फैला उस समय का भारत धीरे धीरे इस्लाम के शिकंजे में आने लगा. आज के अफगानिस्तान में उस समय अहिंसक बौद्धों की निष्क्रियता ने बहुत नुकसान पहुंचाया क्योंकि इसी के चलते मुहम्मद के गाजियों के लश्कर भारत के अंदर घुस पाए. जहाँ जहाँ तक बौद्धों का प्रभाव था, वहाँ पूरी की पूरी आबादी या तो मुसलमान बना दी गयी या काट दी गयी. जहां हिंदुओं ने प्रतिरोध किया, वहाँ न तो गाजियों की अधिक चली और न अल्लाह की. यही कारण है कि सिंध के पूर्व भाग में आज भी हिंदू बहुसंख्यक हैं क्योंकि सिंध के पूर्व में राजपूत, जाट, आदि वीर जातियों ने इस्लाम को उस रूप में बढ़ने से रोक दिया जिस रूप में वह इराक, ईरान, मिस्र, अफगानिस्तान और सिंध के पश्चिम तक फैला था अर्थात वहाँ की पुरानी संस्कृति को मिटा कर केवल इस्लाम में ही रंग दिया गया पर भारत में ऐसा नहीं हो सका.
पर बीच बीच में लुटेरे आते गए और देश को लूटते गए. तैमूरलंग ने कत्लेआम करने के नए आयाम स्थापित किये और अपनी इस पशुता को बड़ी ढिटाई से अपनी डायरी में भी लिखता गया. इसके बाद मुग़ल आये जो हमारे इतिहास में इस देश से प्यार करने वाले लिखे गए हैं! बताते चलें कि ये देशभक्त और प्रेमपुजारी मुग़ल, तैमूर और चंगेज खान के कुलों के आपस के विवाह संबंधों का ही परिणाम थे. इनमें बाबर हुआ जो अकबर “महान” का दादा था. यह वही बाबर है जिसने अपने काल में न जानेकितने मंदिर तोड़े, कितने ही हिंदुओं को मुसलमान बनाया, कितने ही हिंदुओं के सिर उतारे और उनसे मीनारें बनायीं. यह सब पवित्र कर्म करके वह उनको अपनी डायरी में लिखता भी रहता था ताकि आने वाली उसकी नस्ल इमान की पक्की हो और इसी नेक राह पर चले. क्योंकि मूर्तिपूजा दुनिया की सबसे बड़ी बुराई है और अल्लाह को वह बर्दाश्त नहीं. इस देशभक्त प्रेमपुजारी बाबर ने प्रसिद्ध राम मंदिर भी तुडवाया और उस जगह पर अपने नाम की मस्जिद बनवाई. यह बात अलग है किवह अपने समय का प्रसिद्ध नशाखोर, शराबी, हत्यारा, समलैंगिक (पुरुषों से भोग करने वाला), छोटे बच्चों के साथ भी बिस्मिल्लाह पढकर भोग करने वाला था. पर वह था पक्का मुसलमान! तभी तो हमारे देश के मुसलमान भाई अपने असली पूर्वजों को भुला कर इस सच्चे मुसलमान के नाम की मस्जिद बनवाने के लिए दिन रात एक किये हुए हैं. खैर यह वो “महान” अकबर का महान दादा था जो अपने पोते के कारनामों से इस्लामी इतिहास में अपना नाम सुनहरे अक्षरों से लिखवा गया.
ऐसे महान दादा के पोते स्वनामधन्य अकबर “महान” के जीवन के कुछ दृश्य आपके सामने रखते हैं. इस काम में हम किसी हिन्दुवादी इतिहासकार के प्रमाण नहीं देंगे क्योंकि वे तो खामखाह अकबर “महान” से चिढ़ते हैं! हम देंगे प्रमाण अबुल फज़ल (अकबर का खास दरबारी) की आइन ए अकबरी और अकबरनामा से. और साथ ही अकबर के जीवन पर सबसे ज्यादा प्रामाणिक इतिहासकार विन्सेंट स्मिथ की अंग्रेजी की किताब “अकबर- द ग्रेट मुग़ल” से. हम दोनों किताबों के प्रमाणों को हिंदी में देंगे ताकि सबको पढ़ने में आसानी रहे. यहाँ याद रहे कि ये दोनों लेखक सदा इस बात के लिए निशाने पर रहे हैं कि इन्होने अकबर की प्रशंसा करते करते बहुत झूठ बातें लिखी हैं, इन्होने बहुत सी उसकी कमियां छुपाई हैं. पर हम यहाँ यह दिखाएँगे कि अकबर के कर्मों का प्रताप ही कुछ ऐसा था कि सच्चाई सौ परदे फाड़ कर उसी तरह सामने आ जाती है जैसे कि अँधेरे को चीर कर उजाला.
तो अब नजर डालते हैं अकबर महान से जुडी कुछ बातों पर-

अकबर महान का आगाज़

१. विन्सेंट स्मिथ ने किताब यहाँ से शुरू की है कि “अकबर भारत में एक विदेशी था. उसकी नसों में एक बूँद खून भी भारतीय नहीं था…. अकबर मुग़ल से ज्यादा एक तुर्क था” पर देखिये! हमारे इतिहासकारों और कहानीकारों ने अकबर को एक भारतीय के रूप में पेश किया है. जबकि हकीकत यह है कि अकबर के सभी पूर्वज बाबर, हुमायूं, से लेकर तैमूर तक सब भारत में लूट, बलात्कार, धर्म परिवर्तन, मंदिर विध्वंस, आदि कामों में लगे रहे. वे कभी एक भारतीय नहीं थे और इसी तरह अकबर भी नहीं था. और इस पर भी हमारी हिंदू जाति अकबर को हिन्दुस्तान की शान समझती रही!

अकबर महान की सुंदरता और अच्छी आदतें

२. बाबर शराब का शौक़ीन था, इतना कि अधिकतर समय धुत रहता था [बाबरनामा]. हुमायूं अफीम का शौक़ीन था और इस वजह से बहुत लाचार भी हो गया. अकबर ने ये दोनों आदतें अपने पिता और दादा से विरासत में लीं. अकबर के दो बच्चे नशाखोरी की आदत के चलते अल्लाह को प्यारे हुए. पर इतने पर भी इस बात पर तो किसी मुसलमान भाई को शक ही नहीं कि ये सब सच्चे मुसलमान थे.
३. कई इतिहासकार अकबर को सबसे सुन्दर आदमी घोषित करते हैं. विन्सेंट स्मिथ इस सुंदरता का वर्णन यूँ करते हैं-
“अकबर एक औसत दर्जे की लम्बाई का था. उसके बाएं पैर में लंगड़ापन था. उसका सिर अपने दायें कंधे की तरफ झुका रहता था. उसकी नाक छोटी थी जिसकी हड्डी बाहर को निकली हुई थी. उसके नाक के नथुने ऐसे दीखते थे जैसे वो गुस्से में हो. आधे मटर के दाने के बराबर एक मस्सा उसके होंठ और नथुनों को मिलाता था. वह गहरे रंग का था”
४. जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर उसे सदा शेख ही बुलाता था भले ही वह नशे की हालत में हो या चुस्ती की हालत में. इसका मतलब यह है कि अकबर काफी बार नशे की हालत में रहता था.
५. अकबर का दरबारी लिखता है कि अकबर ने इतनी ज्यादा पीनी शुरू कर दी थी कि वह मेहमानों से बात करता करता भी नींद में गिर पड़ता था. वह अक्सर ताड़ी पीता था. वह जब ज्यादा पी लेता था तो आपे से बाहर हो जाता था और पागलो के जैसे हरकत करने लगता.

अकबर महान की शिक्षा

६. जहाँगीर ने लिखा है कि अकबर कुछ भी लिखना पढ़ना नहीं जानता था पर यह दिखाता था कि वह बड़ा भारी विद्वान है.

अकबर महान का मातृशक्ति (स्त्रियों) के लिए आदर

७. अबुल फज़ल ने लिखा है कि अपने राजा बनने के शुरूआती सालों में अकबर परदे के पीछे ही रहा! परदे के पीछे वो किस बेशर्मी को बेपर्दा कर रहा था उसकी जानकारी आगे पढ़िए.
८. अबुल फज़ल ने अकबर के हरम को इस तरह वर्णित किया है- “अकबर के हरम में पांच हजार औरतें थीं और हर एक का अपना अलग घर था.” ये पांच हजार औरतें उसकी ३६ पत्नियों से अलग थीं.
९. आइन ए अकबरी में अबुल फजल ने लिखा है- “शहंशाह के महल के पास ही एक शराबखाना बनाया गया था. वहाँ इतनी वेश्याएं इकट्ठी हो गयीं कि उनकी गिनती करनी भी मुश्किल हो गयी. दरबारी नर्तकियों को अपने घर ले जाते थे. अगर कोई दरबारी किसी नयी लड़की को घर ले जाना चाहे तो उसको अकबर से आज्ञा लेनी पड़ती थी. कई बार जवान लोगों में लड़ाई झगडा भी हो जाता था. एक बार अकबर ने खुद कुछ वेश्याओं को बुलाया और उनसे पूछा कि उनसे सबसे पहले भोग किसने किया”.
अब यहाँ सवाल पैदा होता है कि ये वेश्याएं इतनी बड़ी संख्या में कहाँ से आयीं और कौन थीं? आप सब जानते ही होंगे कि इस्लाम में स्त्रियाँ परदे में रहती हैं, बाहर नहीं. और फिर अकबर जैसे नेक मुसलमान को इतना तो ख्याल होगा ही कि मुसलमान औरतों से वेश्यावृत्ति कराना गलत है. तो अब यह सोचना कठिन नहीं है कि ये स्त्रियां कौन थीं. ये वो स्त्रियाँ थीं जो लूट के माल में अल्लाह द्वारा मोमिनों के भोगने के लिए दी जाती हैं, अर्थात काफिरों की हत्या करके उनकी लड़कियां, पत्नियाँ आदि. अकबर की सेनाओं के हाथ युद्ध में जो भी हिंदू स्त्रियाँ लगती थीं, ये उसी की भीड़ मदिरालय में लगती थी.
१०. अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है- “जब भी कभी कोई रानी, दरबारियों की पत्नियाँ, या नयी लडकियां शहंशाह की सेवा (यह साधारण सेवा नहीं है) में जाना चाहती थी तो पहले उसे अपना आवेदन पत्र हरम प्रबंधक के पास भेजना पड़ता था. फिर यह पत्र महल के अधिकारियों तक पहुँचता था और फिर जाकर उन्हें हरम के अंदर जाने दिया जाता जहां वे एक महीने तक रखी जाती थीं.”
अब यहाँ देखना चाहिए कि चाटुकार अबुल फजल भी इस बात को छुपा नहीं सका कि अकबर अपने हरम में दरबारियों, राजाओं और लड़कियों तक को भी महीने के लिए रख लेता था. पूरी प्रक्रिया को संवैधानिक बनाने के लिए इस धूर्त चाटुकार ने चाल चली है कि स्त्रियाँ खुद अकबर की सेवा में पत्र भेज कर जाती थीं! इस मूर्ख को इतनी बुद्धि भी नहीं थी कि ऐसी कौन सी स्त्री होगी जो पति के सामने ही खुल्लम खुल्ला किसी और पुरुष की सेवा में जाने का आवेदन पत्र दे दे? मतलब यह है कि वास्तव में अकबर महान खुद ही आदेश देकर जबरदस्ती किसी को भी अपने हरम में रख लेता था और उनका सतीत्व नष्ट करता था.
११. रणथंभोर की संधि में अकबर महान की पहली शर्त यह थी कि राजपूत अपनी स्त्रियों की डोलियों को अकबर के शाही हरम के लिए रवाना कर दें यदि वे अपने सिपाही वापस चाहते हैं.
१२. बैरम खान जो अकबर के पिता तुल्य और संरक्षक था, उसकी हत्या करके इसने उसकी पत्नी अर्थात अपनी माता के तुल्य स्त्री से शादी की.
१३. ग्रीमन के अनुसार अकबर अपनी रखैलों को अपने दरबारियों में बाँट देता था. औरतों को एक वस्तु की तरह बांटना और खरीदना अकबर महान बखूबी करता था.
१४. मीना बाजार जो हर नए साल की पहली शाम को लगता था, इसमें सब स्त्रियों को सज धज कर आने के आदेश दिए जाते थे और फिर अकबर महान उनमें से किसी को चुन लेते थे.

नेक दिल अकबर महान

१५. ६ नवम्बर १५५६ को १४ साल की आयु में अकबर महान पानीपत की लड़ाई में भाग ले रहा था. हिंदू राजा हेमू की सेना मुग़ल सेना को खदेड़ रही थी कि अचानक हेमू को आँख में तीर लगा और वह बेहोश हो गया. उसे मरा सोचकर उसकी सेना में भगदड़ मच गयी. तब हेमू को बेहोशी की हालत में अकबर महान के सामने लाया गया और इसने बहादुरी से हेमू का सिर काट लिया और तब इसे गाजी के खिताब से नवाजा गया. (गाजी की पदवी इस्लाम में उसे मिलती है जिसने किसी काफिर को कतल किया हो. ऐसे गाजी को जन्नत नसीब होती है और वहाँ सबसे सुन्दर हूरें इनके लिए बुक होती हैं). हेमू के सिर को काबुल भिजा दिया गया एवं उसके धड को दिल्ली के दरवाजे से लटका दिया गया ताकि नए आतंकवादी बादशाह की रहमदिली सब को पता चल सके.
१६. इसके तुरंत बाद जब अकबर महान की सेना दिल्ली आई तो कटे हुए काफिरों के सिरों से मीनार बनायी गयी जो जीत के जश्न का प्रतीक है और यह तरीका अकबर महान के पूर्वजों से ही चला आ रहा है.
१७. हेमू के बूढ़े पिता को भी अकबर महान ने कटवा डाला. और औरतों को उनकी सही जगह अर्थात शाही हरम में भिजवा दिया गया.
१८. अबुल फजल लिखता है कि खान जमन के विद्रोह को दबाने के लिए उसके साथी मोहम्मद मिराक को हथकडियां लगा कर हाथी के सामने छोड़ दिया गया. हाथी ने उसे सूंड से उठाकर फैंक दिया. ऐसा पांच दिनों तक चला और उसके बाद उसको मार डाला गया.
१९. चित्तौड़ पर कब्ज़ा करने के बाद अकबर महान ने तीस हजार नागरिकों का क़त्ल करवाया.
२०. अकबर ने मुजफ्फर शाह को हाथी से कुचलवाया. हमजबान की जबान ही कटवा डाली. मसूद हुसैन मिर्ज़ा की आँखें सीकर बंद कर दी गयीं. उसके ३०० साथी उसके सामने लाये गए और उनके चेहरे पर गधों, भेड़ों और कुत्तों की खालें डाल कर काट डाला गया. विन्सेंट स्मिथ ने यह लिखा है कि अकबर महान फांसी देना, सिर कटवाना, शरीर के अंग कटवाना, आदि सजाएं भी देते थे.
२१. २ सितम्बर १५७३ के दिन अहमदाबाद में उसने २००० दुश्मनों के सिर काटकर अब तक की सबसे ऊंची सिरों की मीनार बनायी. वैसे इसके पहले सबसे ऊंची मीनार बनाने का सौभाग्य भी अकबर महान के दादा बाबर का ही था. अर्थात कीर्तिमान घर के घर में ही रहा!
२२. अकबरनामा के अनुसार जब बंगाल का दाउद खान हारा, तो कटे सिरों के आठ मीनार बनाए गए थे. यह फिर से एक नया कीर्तिमान था. जब दाउद खान ने मरते समय पानी माँगा तो उसे जूतों में पानी पीने को दिया गया.

न्यायकारी अकबर महान

२३. थानेश्वर में दो संप्रदायों कुरु और पुरी के बीच पूजा की जगह को लेकर विवाद चल रहा था. अकबर ने आदेश दिया कि दोनों आपस में लड़ें और जीतने वाला जगह पर कब्ज़ा कर ले. उन मूर्ख आत्मघाती लोगों ने आपस में ही अस्त्र शस्त्रों से लड़ाई शुरू कर दी. जब पुरी पक्ष जीतने लगा तो अकबर ने अपने सैनकों को कुरु पक्ष की तरफ से लड़ने का आदेश दिया. और अंत में इसने दोनों तरफ के लोगों को ही अपने सैनिकों से मरवा डाला. और फिर अकबर महान जोर से हंसा.
२४. हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर की नीति यही थी कि राजपूत ही राजपूतों के विरोध में लड़ें. बादायुनी ने अकबर के सेनापति से बीच युद्ध में पूछा कि प्रताप के राजपूतों को हमारी तरफ से लड़ रहे राजपूतों से कैसे अलग पहचानेंगे? तब उसने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है क्योंकि किसी भी हालत में मरेंगे तो राजपूत ही और फायदा इस्लाम का होगा.
२५. कर्नल टोड लिखते हैं कि अकबर ने एकलिंग की मूर्ति तोड़ी और उस स्थान पर नमाज पढ़ी.
२६. एक बार अकबर शाम के समय जल्दी सोकर उठ गया तो उसने देखा कि एक नौकर उसके बिस्तर के पास सो रहा है. इससे उसको इतना गुस्सा आया कि नौकर को इस बात के लिए एक मीनार से नीचे फिंकवा दिया.
२७. अगस्त १६०० में अकबर की सेना ने असीरगढ़ का किला घेर लिया पर मामला बराबरी का था. न तो वह किला टोड पाया और न ही किले की सेना अकबर को हरा सकी. विन्सेंट स्मिथ ने लिखा है कि अकबर ने एक अद्भुत तरीका सोचा. उसने किले के राजा मीरां बहादुर को आमंत्रित किया और अपने सिर की कसम खाई कि उसे सुरक्षित वापस जाने देगा. तब मीरां शान्ति के नाम पर बाहर आया और अकबर के सामने सम्मान दिखाने के लिए तीन बार झुका. पर अचानक उसे जमीन पर धक्का दिया गया ताकि वह पूरा सजदा कर सके क्योंकि अकबर महान को यही पसंद था.
उसको अब पकड़ लिया गया और आज्ञा दी गयी कि अपने सेनापति को कहकर आत्मसमर्पण करवा दे. सेनापति ने मानने से मना कर दिया और अपने लड़के को अकबर के पास यह पूछने भेजा कि उसने अपनी प्रतिज्ञा क्यों तोड़ी? अकबर ने बच्चे से पूछा कि क्या तेरा पिता आत्मसमर्पण के लिए तैयार है? तब बालक ने कहा कि उसका पिता समर्पण नहीं करेगा चाहे राजा को मार ही क्यों न डाला जाए. यह सुनकर अकबर महान ने उस बालक को मार डालने का आदेश दिया. इस तरह झूठ के बल पर अकबर महान ने यह किला जीता.
यहाँ ध्यान देना चाहिए कि यह घटना अकबर की मृत्यु से पांच साल पहले की ही है. अतः कई लोगों का यह कहना कि अकबर बाद में बदल गया था, एक झूठ बात है.
२८. इसी तरह अपने ताकत के नशे में चूर अकबर ने बुंदेलखंड की प्रतिष्ठित रानी दुर्गावती से लड़ाई की और लोगों का क़त्ल किया.

अकबर महान और महाराणा प्रताप

२९. ऐसे इतिहासकार जिनका अकबर दुलारा और चहेता है, एक बात नहीं बताते कि कैसे एक ही समय पर राणा प्रताप और अकबर महान हो सकते थे जबकि दोनों एक दूसरे के घोर विरोधी थे?
३०. यहाँ तक कि विन्सेंट स्मिथ जैसे अकबर प्रेमी को भी यह बात माननी पड़ी कि चित्तौड़ पर हमले के पीछे केवल उसकी सब कुछ जीतने की हवस ही काम कर रही थी. वहीँ दूसरी तरफ महाराणा प्रताप अपने देश के लिए लड़ रहे थे और कोशिश की कि राजपूतों की इज्जत उनकी स्त्रियां मुगलों के हरम में न जा सकें. शायद इसी लिए अकबर प्रेमी इतिहासकारों ने राणा को लड़ाकू और अकबर को देश निर्माता के खिताब से नवाजा है!
अकबर महान अगर, राणा शैतान तो
शूकर है राजा, नहीं शेर वनराज है
अकबर आबाद और राणा बर्बाद है तो
हिजड़ों की झोली पुत्र, पौरुष बेकार है
अकबर महाबली और राणा बलहीन तो
कुत्ता चढ़ा है जैसे मस्तक गजराज है
अकबर सम्राट, राणा छिपता भयभीत तो
हिरण सोचे, सिंह दल उसका शिकार है
अकबर निर्माता, देश भारत है उसकी देन
कहना यह जिनका शत बार धिक्कार है
अकबर है प्यारा जिसे राणा स्वीकार नहीं
रगों में पिता का जैसे खून अस्वीकार है.

अकबर और इस्लाम

३१. हिन्दुस्तानी मुसलमानों को यह कह कर बेवकूफ बनाया जाता है कि अकबर ने इस्लाम की अच्छाइयों को पेश किया. असलियत यह है कि कुरआन के खिलाफ जाकर ३६ शादियाँ करना, शराब पीना, नशा करना, दूसरों से अपने आगे सजदा करवाना आदि करके भी इस्लाम को अपने दामन से बाँधे रखा ताकि राजनैतिक फायदा मिल सके. और सबसे मजेदार बात यह है कि वंदे मातरम में शिर्क दिखाने वाले मुल्ला मौलवी अकबर की शराब, अफीम, ३६ बीवियों, और अपने लिए करवाए सजदों में भी इस्लाम को महफूज़ पाते हैं! किसी मौलवी ने आज तक यह फतवा नहीं दिया कि अकबर या बाबर जैसे शराबी और समलैंगिक मुसलमान नहीं हैं और इनके नाम की मस्जिद हराम है.
३२. अकबर ने खुद को दिव्य आदमी के रूप में पेश किया. उसने लोगों को आदेश दिए कि आपस में “अल्लाह ओ अकबर” कह कर अभिवादन किया जाए. भोले भाले मुसलमान सोचते हैं कि वे यह कह कर अल्लाह को बड़ा बता रहे हैं पर अकबर ने अल्लाह के साथ अपना नाम जोड़कर अपनी दिव्यता फैलानी चाही. अबुल फज़ल के अनुसार अकबर खुद को सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) की तरह पेश करता था. ऐसा ही इसके लड़के जहांगीर ने लिखा है.
३३. अकबर ने अपना नया पंथ दीन ए इलाही चलाया जिसका केवल एक मकसद खुद की बडाई करवाना था. उसके चाटुकारों ने इस धूर्तता को भी उसकी उदारता की तरह पेश किया!
३४. अकबर को इतना महान बताए जाने का एक कारण ईसाई इतिहासकारों का यह था कि क्योंकि इसने हिंदू धर्म और इस्लाम दोनों का ही जम कर अपमान किया और इस तरह भारत में अंग्रेजों के इसाईयत फैलाने के उद्देश्य में बड़ा कारण बना. विन्सेंट स्मिथ ने भी इस विषय पर अपनी राय दी है.
३५. अकबर भाषा बोलने में बड़ा चतुर था. विन्सेंट स्मिथ लिखता है कि मीठी भाषा के अलावा उसकी सबसे बड़ी खूबी अपने जीवन में दिखाई बर्बरता है!
३६. अकबर ने अपने को रूहानी ताकतों से भरपूर साबित करने के लिए कितने ही झूठ बोले. जैसे कि उसके पैरों की धुलाई करने से निकले गंदे पानी में अद्भुत ताकत है जो रोगों का इलाज कर सकता है. ये वैसे ही दावे हैं जैसे मुहम्मद साहब के बारे में हदीसों में किये गए हैं. अकबर के पैरों का पानी लेने के लिए लोगों की भीड़ लगवाई जाती थी. उसके दरबारियों को तो यह अकबर के नापाक पैर का चरणामृत पीना पड़ता था ताकि वह नाराज न हो जाए.

अकबर महान और जजिया कर

३७. इस्लामिक शरीयत के अनुसार किसी भी इस्लामी राज्य में रहने वाले गैर मुस्लिमों को अगर अपनी संपत्ति और स्त्रियों को छिनने से सुरक्षित रखना होता था तो उनको इसकी कीमत देनी पड़ती थी जिसे जजिया कहते थे. यानी इसे देकर फिर कोई अल्लाह व रसूल का गाजी आपकी संपत्ति, बेटी, बहन, पत्नी आदि को नहीं उठाएगा. कुछ अकबर प्रेमी कहते हैं कि अकबर ने जजिया खत्म कर दिया था. लेकिन इस बात का इतिहास में एक जगह भी उल्लेख नहीं! केवल इतना है कि यह जजिया रणथम्भौर के लिए माफ करने की शर्त राखी गयी थी जिसके बदले वहाँ के हिंदुओं को अपनी स्त्रियों को अकबर के हरम में भिजवाना था! यही कारण बना की इन मुस्लिम सुल्तानों के काल में हिन्दू स्त्रियाँ जौहर में जलना अधिक पसंद करती थी.
३८. यह एक सफ़ेद झूठ है कि उसने जजिया खत्म कर दिया. आखिरकार अकबर जैसा सच्चा मुसलमान जजिया जैसे कुरआन के आदेश को कैसे हटा सकता था? इतिहास में कोई प्रमाण नहीं की उसने अपने राज्य में कभी जजिया बंद करवाया हो.

अकबर महान और उसका सपूत

३९. भारत में महान इस्लामिक शासन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि बादशाह के अपने बच्चे ही उसके खिलाफ बगावत कर बैठते थे! हुमायूं बाबर से दुखी था और जहांगीर अकबर से, शाहजहां जहांगीर से दुखी था तो औरंगजेब शाहजहाँ से. जहांगीर (सलीम) ने १६०२ में खुद को बादशाह घोषित कर दिया और अपना दरबार इलाहबाद में लगाया. कुछ इतिहासकार कहते हैं की जोधा अकबर की पत्नी थी या जहाँगीर की, इस पर विवाद है. संभवतः यही इनकी दुश्मनी का कारण बना, क्योंकि सल्तनत के तख़्त के लिए तो जहाँगीर के आलावा कोई और दावेदार था ही नहीं!
४०. ध्यान रहे कि इतिहासकारों के लाडले और सबसे उदारवादी राजा अकबर ने ही सबसे पहले “प्रयागराज” जैसे काफिर शब्द को बदल कर इलाहबाद कर दिया था.
४१. जहांगीर अपने अब्बूजान अकबर महान की मौत की ही दुआएं करने लगा. स्मिथ लिखता है कि अगर जहांगीर का विद्रोह कामयाब हो जाता तो वह अकबर को मार डालता. बाप को मारने की यह कोशिश यहाँ तो परवान न चढी लेकिन आगे जाकर आखिरकार यह सफलता औरंगजेब को मिली जिसने अपने अब्बू को कष्ट दे दे कर मारा. वैसे कई इतिहासकार यह कहते हैं कि अकबर को जहांगीर ने ही जहर देकर मारा.

अकबर महान और उसका शक्की दिमाग

४२. अकबर ने एक आदमी को केवल इसी काम पर रखा था कि वह उनको जहर दे सके जो लोग अकबर को पसंद नहीं!
४३. अकबर महान ने न केवल कम भरोसेमंद लोगों का कतल कराया बल्कि उनका भी कराया जो उसके भरोसे के आदमी थे जैसे- बैरम खान (अकबर का गुरु जिसे मारकर अकबर ने उसकी बीवी से निकाह कर लिया), जमन, असफ खान (इसका वित्त मंत्री), शाह मंसूर, मानसिंह, कामरान का बेटा, शेख अब्दुरनबी, मुइजुल मुल्क, हाजी इब्राहिम और बाकी सब मुल्ला जो इसे नापसंद थे. पूरी सूची स्मिथ की किताब में दी हुई है. और फिर जयमल जिसे मारने के बाद उसकी पत्नी को अपने हरम के लिए खींच लाया और लोगों से कहा कि उसने इसे सती होने से बचा लिया!

समाज सेवक अकबर महान

४४. अकबर के शासन में मरने वाले की संपत्ति बादशाह के नाम पर जब्त कर ली जाती थी और मृतक के घर वालों का उस पर कोई अधिकार नहीं होता था.
४५. अपनी माँ के मरने पर उसकी भी संपत्ति अपने कब्जे में ले ली जबकि उसकी माँ उसे सब परिवार में बांटना चाहती थी.

अकबर महान और उसके नवरत्न

४६. अकबर के चाटुकारों ने राजा विक्रमादित्य के दरबार की कहानियों के आधार पर उसके दरबार और नौ रत्नों की कहानी घड़ी है. असलियत यह है कि अकबर अपने सब दरबारियों को मूर्ख समझता था. उसने कहा था कि वह अल्लाह का शुक्रगुजार है कि इसको योग्य दरबारी नहीं मिले वरना लोग सोचते कि अकबर का राज उसके दरबारी चलाते हैं वह खुद नहीं.
४७. प्रसिद्ध नवरत्न टोडरमल अकबर की लूट का हिसाब करता था. इसका काम था जजिया न देने वालों की औरतों को हरम का रास्ता दिखाना.
४८. एक और नवरत्न अबुल फजल अकबर का अव्वल दर्जे का चाटुकार था. बाद में जहाँगीर ने इसे मार डाला.
४९. फैजी नामक रत्न असल में एक साधारण सा कवि था जिसकी कलम अपने शहंशाह को प्रसन्न करने के लिए ही चलती थी. कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वह अपने समय का भारत का सबसे बड़ा कवि था. आश्चर्य इस बात का है कि यह सर्वश्रेष्ठ कवि एक अनपढ़ और जाहिल शहंशाह की प्रशंसा का पात्र था! यह ऐसी ही बात है जैसे कोई अरब का मनुष्य किसी संस्कृत के कवि के भाषा सौंदर्य का गुणगान करता हो!
५०. बुद्धिमान बीरबल शर्मनाक तरीके से एक लड़ाई में मारा गया. बीरबल अकबर के किस्से असल में मन बहलाव की बातें हैं जिनका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं. ध्यान रहे कि ऐसी कहानियाँ दक्षिण भारत में तेनालीराम के नाम से भी प्रचलित हैं.
५१. अगले रत्न शाह मंसूर दूसरे रत्न अबुल फजल के हाथों सबसे बड़े रत्न अकबर के आदेश पर मार डाले गए!
५२. मान सिंह जो देश में पैदा हुआ सबसे नीच गद्दार था, ने अपनी बहन जहांगीर को दी. और बाद में इसी जहांगीर ने मान सिंह की पोती को भी अपने हरम में खींच लिया. यही मानसिंह अकबर के आदेश पर जहर देकर मार डाला गया और इसके पिता भगवान दास ने आत्महत्या कर ली.
५३. इन नवरत्नों को अपनी बीवियां, लडकियां, बहनें तो अकबर की खिदमत में भेजनी पड़ती ही थीं ताकि बादशाह सलामत उनको भी सलामत रखें. और साथ ही अकबर महान के पैरों पर डाला गया पानी भी इनको पीना पड़ता था जैसा कि ऊपर बताया गया है.
५४. रत्न टोडरमल अकबर का वफादार था तो भी उसकी पूजा की मूर्तियां अकबर ने तुडवा दीं. इससे टोडरमल को दुःख हुआ और इसने इस्तीफ़ा दे दिया और वाराणसी चला गया.

अकबर और उसके गुलाम

५५. अकबर ने एक ईसाई पुजारी को एक रूसी गुलाम का पूरा परिवार भेंट में दिया. इससे पता चलता है कि अकबर गुलाम रखता था और उन्हें वस्तु की तरह भेंट में दिया और लिया करता था.
५६. कंधार में एक बार अकबर ने बहुत से लोगों को गुलाम बनाया क्योंकि उन्होंने १५८१-८२ में इसकी किसी नीति का विरोध किया था. बाद में इन गुलामों को मंडी में बेच कर घोड़े खरीदे गए.
५७. जब शाही दस्ते शहर से बाहर जाते थे तो अकबर के हरम की औरतें जानवरों की तरह सोने के पिंजरों में बंद कर दी जाती थीं.
५८. वैसे भी इस्लाम के नियमों के अनुसार युद्ध में पकडे गए लोग और उनके बीवी बच्चे गुलाम समझे जाते हैं जिनको अपनी हवस मिटाने के लिए भी प्रयोग किया जा सकता है. अल्लाह ने कुरान में यह व्यवस्था दे रखी है.
५९. अकबर बहुत नए तरीकों से गुलाम बनाता था. उसके आदमी किसी भी घोड़े के सिर पर एक फूल रख देते थे. फिर बादशाह की आज्ञा से उस घोड़े के मालिक के सामने दो विकल्प रखे जाते थे, या तो वह अपने घोड़े को भूल जाये, या अकबर की वित्तीय गुलामी क़ुबूल करे.

कुछ और तथ्य

६०. जब अकबर मरा था तो उसके पास दो करोड़ से ज्यादा अशर्फियाँ केवल आगरे के किले में थीं. इसी तरह के और खजाने छह और जगह पर भी थे. इसके बावजूद भी उसने १५९५-१५९९ की भयानक भुखमरी के समय एक सिक्का भी देश की सहायता में खर्च नहीं किया.
६१. अकबर ने प्रयागराज (जिसे बाद में इसी धर्म निरपेक्ष महात्मा ने इलाहबाद नाम दिया था) में गंगा के तटों पर रहने वाली सारी आबादी का क़त्ल करवा दिया और सब इमारतें गिरा दीं क्योंकि जब उसने इस शहर को जीता तो लोग उसके इस्तकबाल करने की जगह घरों में छिप गए. यही कारण है कि प्रयागराज के तटों पर कोई पुरानी इमारत नहीं है.
६२. एक बहुत बड़ा झूठ यह है कि फतेहपुर सीकरी अकबर ने बनवाया था. इसका कोई विश्वसनीय प्रमाण नहीं है. बाकी दरिंदे लुटेरों की तरह इसने भी पहले सीकरी पर आक्रमण किया और फिर प्रचारित कर दिया कि यह मेरा है. इसी तरह इसके पोते और इसी की तरह दरिंदे शाहजहाँ ने यह ढोल पिटवाया था कि ताज महल इसने बनवाया है वह भी अपनी चौथी पत्नी की याद में जो इसके और अपने सत्रहवें बच्चे को पैदा करने के समय चल बसी थी!
तो ये कुछ उदाहरण थे अकबर “महान” के जीवन से ताकि आपको पता चले कि हमारे नपुंसक इतिहासकारों की नजरों में महान बनना क्यों हर किसी के बस की बात नहीं. क्या इतिहासकार और क्या फिल्मकार और क्या कलाकार, सब एक से एक मक्कार, देशद्रोही, कुल कलंक, नपुंसक हैं जिन्हें फिल्म बनाते हुए अकबर तो दीखता है पर महाराणा प्रताप कहीं नहीं दीखता. अब देखिये कि अकबर पर बनी फिल्मों में इस शराबी, नशाखोर, बलात्कारी, और लाखों हिंदुओं के हत्यारे अकबर के बारे में क्या दिखाया गया है और क्या छुपाया. बैरम खान की पत्नी, जो इसकी माता के सामान थी, से इसकी शादी का जिक्र किसी ने नहीं किया. इस जानवर को इस तरह पेश किया गया है कि जैसे फरिश्ता! जोधाबाई से इसकी शादी की कहानी दिखा दी पर यह नहीं बताया कि जोधा असल में जहांगीर की पत्नी थी और शायद दोनों उसका उपभोग कर रहे थे. दिखाया यह गया कि इसने हिंदू लड़की से शादी करके उसका धर्म नहीं बदला, यहाँ तक कि उसके लिए उसके महल में मंदिर बनवाया! असलियत यह है कि बरसों पुराने वफादार टोडरमल की पूजा की मूर्ति भी जिस अकबर से सहन न हो सकी और उसे झट तोड़ दिया, ऐसे अकबर ने लाचार लड़की के लिए मंदिर बनवाया, यह दिखाना धूर्तता की पराकाष्ठा है. पूरी की पूरी कहानियाँ जैसे मुगलों ने हिन्दुस्तान को अपना घर समझा और इसे प्यार दिया, हेमू का सिर काटने से अकबर का इनकार, देश की शान्ति और सलामती के लिए जोधा से शादी, उसका धर्म परिवर्तन न करना, हिंदू रीति से शादी में आग के चारों तरफ फेरे लेना, राज महल में जोधा का कृष्ण मंदिर और अकबर का उसके साथ पूजा में खड़े होकर तिलक लगवाना, अकबर को हिंदुओं को जबरन इस्लाम क़ुबूल करवाने का विरोधी बताना, हिंदुओं पर से कर हटाना, उसके राज्य में हिंदुओं को भी उसका प्रशंसक बताना, आदि ऐसी हैं जो असलियत से कोसों दूर हैं जैसा कि अब आपको पता चल गयी होंगी. “हिन्दुस्तान मेरी जान तू जान ए हिन्दोस्तां” जैसे गाने अकबर जैसे बलात्कारी, और हत्यारे के लिए लिखने वालों और उन्हें दिखाने वालों को उसी के सामान झूठा और दरिंदा समझा जाना चाहिए.
चित्तौड़ में तीस हजार लोगों का कत्लेआम करने वाला, हिंदू स्त्रियों को एक के बाद एक अपनी पत्नी या रखैल बनने पर विवश करने वाला, नगरों और गाँवों में जाकर नरसंहार कराकर लोगों के कटे सिरों से मीनार बनाने वाला, जिस देश के इतिहास में महान, सम्राट, “शान ए हिन्दोस्तां” लिखा जाए और उसे देश का निर्माता कहा जाए कि भारत को एक छत्र के नीचे उसने खड़ा कर दिया, उस देश का विनाश ही होना चाहिए. वहीं दूसरी तरफ जो ऐसे दरिंदे, नपुंसक के विरुद्ध धर्म और देश की रक्षा करता हुआ अपने से कई गुना अधिक सेनाओं से लड़ा, जंगल जंगल मारा मारा फिरता रहा, अपना राज्य छोड़ा, सब साथियों को छोड़ा, पत्तल पर घास की रोटी खाकर भी जिसने वैदिक धर्म की अग्नि को तुर्की आंधी से कभी बुझने नहीं दिया, वह महाराणा प्रताप इन इतिहासकारों और फिल्मकारों की दृष्टि में “जान ए हिन्दुस्तान” तो दूर “जान ए राजस्थान” भी नहीं था! उसे सदा अपने राज्य मेवाड़ की सत्ता के  लिए लड़ने वाला एक लड़ाका ही बताया गया जिसके लिए इतिहास की किताबों में चार पंक्तियाँ ही पर्याप्त हैं. ऐसी मानसिकता और विचारधारा, जिसने हमें अपने असली गौरवशाली इतिहास को आज तक नहीं पढ़ने दिया, हमारे कातिलों और लुटेरों को महापुरुष बताया और शिवाजी और राणा प्रताप जैसे धर्म रक्षकों को लुटेरा और स्वार्थी बताया, को आज अपने पैरों तले रौंदना है. संकल्प कीजिये कि अब आपके घर में अकबर की जगह राणा प्रताप की चर्चा होगी. क्योंकि इतना सब पता होने पर यदि अब भी कोई अकबर के गीत गाना चाहता है तो उस देशद्रोही और धर्मद्रोही को कम से कम इस देश में रहने का अधिकार नहीं होना चाहिए.
अब तो न अकबर न बाबर से वहशी
दरिन्दे कभी पुज न पायें धरा पर
जो नाम इनका ले कोई अपनी जबाँ से
बता देना राणा की तलवार का बल
इस धूर्त दरिन्दे के पर्दाफाश के बाद, भारत के सच्चे सपूत को अग्निवीर का शत शत नमन :
कोई पूछे कितना था राणा का भाला
तो कहना कि अकबर के जितना था भाला
जो पूछे कोई कैसे उठता था भाला
बता देना हाथों में ज्यों नाचे माला
चलाता था राणा जब रण में ये भाला
उठा देता पांवों को मुग़लों के भाला
जो पूछे कभी क्यों न अकबर लड़ा तो
बता देना कारण था राणा का भाला.
उपरलिखित तथ्यों का विस्तार जानने के लिए पढ़ें:
1. Akbar – the Great Mogul by Vincent Smith
2. Akbarnama by Abul Fazl
3. Ain-e-Akbari by Abul Fazl
4. Who says Akbar is Great by PN Oak

Mukti or Moksha?

Photo: Q: What are spiritual benefits of Om?

A: Meditation upon Om is the best spiritual exercise on earth.

a. It helps you develop emotional connect with Ishwar and realize your relation with Ishwar.

b. It helps you realize your purpose in life and how Ishwar is helping you.

c. It helps you realize your identity beyond this temporary hustle-bustle of the world around and develops a sense of how to make best use of this world for the bigger goal.

d. It provides a sense of security that is unmatched. You realize how you are constantly under protection of Ishwar every moment.

e. It helps you feel the Law of Karma and how each thought of yours is shaping the next moment of life and how Ishwar is managing this Law of Karma meticulously for your benefit alone. You understand why and how Ishwar is just and compassionate at the same time. How in his justice alone lies his pardon! How he loves you! How he is caring for you! How he is pampering you!

What is Mukti or Moksha? means Freedom,that all souls desire for. In other words, freedom from sorrow and miseries.
After this freedom, the soul experiences ultimate bliss and lives under inspiration of Ishwar. This is the most satisfying and enjoyable state one can have. Also note that contrary to what many wrongly believe in, Mukti is not state similar to sleep or Sushupti. It is the OPPOSITE of sleep – a state of highest possible level of consciousness.
Part of Ishwar is already within us. So we are already living under inspiration of Ishwar. Then what is so special about Mukti?
If you recall the discussions on Ishwar and soul, we concluded that soul has a freedom of ‘will’ and has limited knowledge. As and when the soul dispels ignorance through right use of ‘will‘, it gains more and more bliss and acts in harmony with the purpose of creation. That is why it is recommended for soul to emulate Ishwar in whatever way it can, and also work in a manner that cooperates with the overall purpose of creation.

The purpose of life is to enable the soul to conduct such actions that help it get in harmony with purpose of creation. When the harmony reaches a threshold level, there remains no further reason why a soul should take birth. It thus gets freedom from cycle of birth and death, sorrow and happiness and obtains ultimate bliss.

Thus, Mukti means conducting all actions in sync or harmony with purpose of creation. Ishwar is always inspiring us and is all around us and within us as well. But when we realize this and act accordingly, we obtain Mukti.

Q: What is preventing us from Mukti at this very moment? Why Ishwar does not grant us Mukti right now?

A: Answering the second question first: Ishwar does only what is best. It does not act arbitrarily.

Our nature is such that the only way we can obtain Mukti is by dispelling ignorance. And the only way to dispel ignorance is by conducting actions. The only way we can keep practicing doing the right actions is by having an opportunity to take birth and obtain an environment which is best suited to our current level of competence. And Ishwar keeps doing so until we gain mastery and reach Mukti. So He is acting in best possible manner for us to obtain Mukti asap.

Coming to first question, let us review the properties of soul compared to Ishwar and Prakriti (Nature).
Prakriti is Sat – it exists
Soul is Sat and Chit – it exists and it is conscious (living, animate etc)
Ishwar is Sat, Chit and Anand – it exists, is conscious as well as possess bliss.

Now soul DOES NOT possess Anand or bliss intrinsically. It has to move towards bliss through efforts. Since Ishwar has bliss, it implies that it has to move towards Ishwar.

Now let us come to another foundation of Vedic philosophy, “Knowledge = Bliss”.

Since Ishwar has infinite knowledge, it has infinite bliss.

But soul has LIMITED potential and LIMITED knowledge. This LIMIT keeps varying as per its deeds as per the Law of Karma managed by Ishwar.

Thus the ONLY way soul can possess Bliss is by increasing its knowledge through right acts that remove the limits.

The modus operandi of this process is as follows:

1. Actions create Sanskaars (tendencies or habits) and Sanskaars determine Limits of potential of soul. The catch is that the moment you conduct an action, it creates a Sanskaar. Sanskaar implies that the probability of you conducting the same action in similar situation increases.

Thus, if you do wrong acts – like cheating, hating etc – the probability of you doing the same again and again increases. This reduces the limits of your potentials and hence you have reduced knowledge resulting in reduced bliss. Thus you get a step away from Mukti.

But when you do good acts – like compassion, analyzing and accepting only truth, high character etc – the probability of you doing more of such good acts also increases. This leads to greater potential of seeking knowledge and hence bliss. Thus you get a step closer to Mukti.

2. Now EACH AND EVERY ACTION (including thoughts and feelings) count in this process. Also remember that even if you do something even once, its probability of happening again and making you dumber or intelligent increases.

3. A typical soul keeps oscillating between good and bad deeds every moment, going few steps back and few steps forth like a drunkard, resulting in the delay in Mukti.

4. But a yogi uses his will-power to refuse to conduct bad actions and proactively conducts noble actions. This gradually weakens the Sanskaars of old bad actions and replaces them with good Sanskaars. Gradually the seeds of all bad sanskaars are destroyed by a yogi. This results in a situation that bad actions are not repeated under any circumstance by the yogi. He thus has burnt the seeds of bad Sanskaars (dagdhbeej) or has got free of the trap of bad Sanskaars forcing bad actions. He moves straight towards Mukti like an armyman without stepping back.

He surrenders completely to Ishwar’s will and achieves ultimate bliss of Ishwar.

This process of destruction of seeds of sanskaars demands constant practice with full enthusiasm, confidence and faith on Ishwar for a period of time.

THE ONLY CONTROLLING BUTTON WE HAVE IN THIS PROCESS IS OUR WILL-POWER.

Majority of people ignore to use this WILL-POWER in right direction and hence basically act as puppets responding to strings of situations. They thus themselves stifle their progress. Yogis act in opposite manner.

That is why Geeta says that what is day for the world is night for Yogi and vice verse.

The more powerfully you use your WILL-POWER, faster you reach Mukti.

इस्लामी जन्नत की हकीकत



इस्लामी जन्नत की हकीकत

आपको मालूम है कि जन्नत की हकीकत क्या है ?

विश्व के लगभग सभी धर्मों में स्वर्ग और न र्कके बारे में विस्तार से वर्णन किया गया है.इन में सभी धर्मों की बातों में काफी समानता पायी जाती है.

लेकिन स्वर्ग या जन्नत के बारे में जो बातें लिखी गयी हैं वह सिर्फ पुरुषों को रिझाने वाली बातें लिखी गयी हैं.जैसे मरने के बाद जन्नत में खूबसूरत जवान हूरें मिलेंगी ,जो कभी बूढ़ी नहीं होंगी .उनकी उम्र हमेशा १४-१५ साल की रहेगी.जन्नत वाले किसी भी हूर से शारीरिक सम्बन्ध बना सकेंगे.कुरआन में एक और ख़ास बात बतायी गयी है कि जन्नत में हूरों के अलावा सुन्दर लडके भी होंगे ,जिन्हें गिलमा कहा गया है .

शायद ऐसा इसलिए कहा गया होगा कि अरब और ईरान में समलैंगिक सेक्स आम बात है. आज भी पाकिस्तान में पुरुष वेश्यावृत्ति होती है .

इसलिए अक्सर जन्नत के मजे लूटने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं.लोगों ने जन्नत के लालच में दुनिया को जहन्नुम बना रखा है .इस जन्नत के लालच और जहन्नुम का दर दिखा कर सभी धर्म गुरुओं की दुकानें चल रही हैं .भोले भाले लोग जन्नत के लालच में मरान्ने मारने को तैयार हो जाते हैं ,यहाँ तक खुद आत्मघाती बम भी बन जाते हैं.

पाहिले शुरुआती दौर में तो मुसलमान हमलावर लोगों को तलवार के जोर पर मुसलमान बनाते थे.लेकिन जब खुद मुसलाम्मानों में आपस में युद्ध होने लगे तो मुआसलामानों के एक गिरोह इस्माइली लोगों ने नया रास्ता अख्तियार किया .जिस से बिना खून खराबा के आसानी से आसपास के लोगोंको मुसलमान बनाता जा सके.

नाजिरी इस्मायीलिओं के मुजाहिद और धर्म गुरु “हसन बिन सब्बाह “सन-१०९०–११२४ ने जब मिस्र में अपनी धार्मिक शिक्षा पुरीकर चकी तो वह सन १०८१ में इरान के इस्फ़हान शहर चला गया .और इरान के कजवीन प्रान्त में प्रचार करने लगा.वहां एक किला था जिसे अलामुंत कहा जाता है.यह किला तेहरान से १०० कि मी दूर,केस्पियन सागर के पास है .उस समय किले का मालिक सुलतान मालिक शाह था.उनदिनों चारों तरफ युद्ध होते रहते थे.कभी सल्जूकी कभी फातमी आपस में लड़ते थे.इसलिए सुलतान ने किले की रक्षा के लिए अलवीखानदान के एक व्यक्ती कमरुद्दीन खुराशाह को नियुक्त कर दिया था.उनदिन किला खाली पडा था..हसन बिन सब्बाह ने किला तीन हजार दीनार में खरीद लिया.

हसन को वह किला उपयोगी लगा ,क्यों कि किला सीरिया और तेहरान के मार्ग पर था .जिसपर काफिलों से व्यापार होता था.

किला एक सपाट फिसलन वाली पहाडी पर है .किले की ऊंचाई ८४० मीटर है .लेकिन वहां पानी के सोते हैं.किले की लम्बाई ४०० मीटर और चौडाई ३० मीटर है..इसके बाब हसन ने अपने लोगों और कुछ गाँव के लोगों के साथ मिलकर काफिले वालों से टेक्स लेना शुरू करदिया. इससे हसन को काफी दौलत मिली.उसके बाद हसन ने किले में तहखाने और सुरंगें भी बनवा लीं.जब किला हराभरा हो गया तो ,हसन ने किले में एक नकली जन्नत भी बनाली.जैसा कुरआन में कहा गया है,हसन आसपास के गाँव से अपने आदमियों द्वारा सुन्दर ,और कुंवारी जवान लडकियां उठावा लेताथा. और लड़किओं को अपनी जन्नत के तहखानों में कैद कर लेता था.हसन ने इस नकली जन्नत में एक नहर भी बनवाई थी ,जिसमे हमेशा शराब बहती रहती थी.किले वह सब सामान थे जो कुरआनमें जन्नत के बारे में लिखे हैं.

फिरजब हसन के लोग आसपास के गाँव में धर्म प्रचार करने जाते तो लोगों को विश्वास में लेकर उन्हें हशीस पिलाकर बेहोश कर देते थे.और जब लोग बेहोश हो जाते तो उनको उठाकर किले में ले जाते थे .उनसे कहते कि अल्लाह तुम से खुश है ,अब तुम जन्नत में रहो.लोग कुछ दिनों तक यह नादान लोग खूब अय्याशी करते और समझते थे कि वे जन्नत में हैं.फिर कुछ दिनों मौजा मस्ती करवाने के बाद लोगों दोबारा हशीश पिलाकर वापिस गाँव छोड़ दिया जाता .एक बार जन्नत का चस्का लग जाने के बाद लोग फिर से जन्नत की इच्छा करने लगते तो ,उनसे कहा जाता कि अगर फिर से जन्नत में जाना चाहते हो तो हमारा हुक्म मानो .लोग कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे.ऐसे लोगों को हसिसीन कहा जाता है .मार्को पोलो ने इसका अपने विवरणों में उल्लेख किया है आज भी लोग जन्नत के लालच में निर्दोषों की हत्याएं कर रहे हैं.

यह जन्नत बहुत समय तक बनी रही.जब हलाकू खान ने १५ दिसंबर १२५६ को इस किले पर हमला किया तो किले के सूबे दार ने बिना युद्ध के किला हलाकू के हवाले कर दिया.जब हलाकू किले के अन्दर गया तो देखा वहां सिर्फ अधनंगी औरतें ही थी.हलाकू ने उन लडाकिन से पूछा तुम कौन हो ,तो वह वह बोलीं “अना मलाकुन”यानी हम हूरें हैं

यह किला आज भी सीरिया और ईरान की सीमा के पास है .सन २००४ के भूकंप में किले को थोडासा नुकसान हो गया .लेकिन आज बी लोग इस किले को देखने जाते हैं .और जन्नत की हकीकत समाज जाते हैं कि जैसे यह जन्नत झूठी है वैसे ही कुरआन में बतायी गयी जन्नत भी झूठ होगी

यह लेख पाकिस्तान से प्रकाशित पुस्तक “इस्माईली मुशाहीर “के आधार पर लिखा गया है.प्रकाशक अब्बासी लीथो आर्ट .लयाकत रोड -कराची
ISLAMOPHOBIA AS GERMANY,CANADA ALL SHOUTING.

Friday, February 7, 2014

A virtual tour of famous Buddhist archeological sites in Gujarat:


Vadnagar: In 2009, Gujarat State Archeological Department had discovered remains of a Buddhist monastery in Vadnagar which is the home town of Shri Narendra Modi. Hieun-Tsang, a famous Chinese Buddhist Pilgrim had visited Vadnagar in 640 A. D and noted existence of 1000 Buddhist Monks, and 10 Buddhist Monasteries in Vadnagar. He also found important Buddhist center with Viharas. The idea of archeological excavation in Vadnagar was moved by Shri Modi, he had judged Vadnagar as a prolific site for archeological excavation in early days of his life when he was resident of Vadnagar.

Vallabhi: Ancient references indicate that in the 7th Century A. D., Vallabhi was one of the significant Hinayana Buddhist universities and was comparable to Nalanda’s Mahayana Buddhist University. In Vallabhi, Hieun-Tsang had confirmed presence of about 100 monasteries accounting for around 6000 Buddhist monks and also found foreign students in Vallabhi University.

Devni Mori (Sabarkantha): Devnimori was an important Buddhist monastic center 1600 years ago. A huge site consisting of Stupa, Chaitya and Vihara is found on the river Meshwo near Shamlaji. The relics consisting of stone casket having original names of Gautam Buddha with detailed inscription were found from Devni Modi.

Junagadh: One of the best examples of the Buddhist ideologies is found at Ashokan Rock edicts. It contains inscriptions of three dynasties which speak the great popular faith and its healing power to convert the King. Khapra-kodia caves are datable to 3rd-4th century A. D., it is a group of 10 shelters made in rock cut style, used by Monks as a monsoon shelter. Apart from these Upperkot caves and Baba Pyara caves are known as Buddhist archeological sites in Jungadh.

Khambhalida Caves: Located near Gondal in Rajkot, Khambhalida caves is the only site with perfectly identifiable carvings of Boddhistava. It was probably a worshiping site for all surrounding people having faith in Buddhism and therefore, it is one of the rarest sites, as most of the monasteries were residential quarters.

Talaja Caves: About 32 kms from Palitana (famous pilgrimage for Jains), lies Talaja. The most impressive structure in Talaja is, the Ebhala Mandapa – a large hall fronted by four octagonal pillars. A group of 30 caves is nestled in the middle of hillock that was primarily used during monsoons for 4 months resting period.

Sana Caves: The remains of Buddhist establishment of Sana, is located in Amreli District near Rajula. Believed to be among the earliest caves of Western India dating from 2nd century B. C., the most interesting group has Ornate Carvings and Stupas, Rock Cut pillows, Benches and Chaityas. There is a hill in Sana that has 62 rock shelters scattered at different levels.

Siyot Caves: Located in Lakhpat Taluka of Kutch, Siyot must have been one of the 80 monastic sites that the 7th century Chinese travelers reported at the mouth of Indus River. It is believed to be a Shiva Temple before the Buddhist Monks occupied the caves.

Kadia Dunger Caves: 7 caves and monolithic lion pillars are presently found in Kadia Dungar in Bharuch District. The caves are located at the highest altitude having the figures of elephants and monkeys inscribed in it, also, some inscriptions in Brahmi language are found in the caves.

Shri Modi himself has taken keen interest in the activities and has made the Government machinery work, to develop these Buddhist sites as a tourism circuit in par with international standards and promote them globally.
 — in Gujarat, India.

Thursday, February 6, 2014

पुनर्जन्म का रहस्य(REBIRTH)

Photo: पुनर्जन्म का रहस्य...

जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती है? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है? 

यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?

ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।

यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं। 

कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20) 

भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो। 

उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'

अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15) 

पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं। 

श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)

पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58) 

जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया। 

श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)

ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है। 

वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।

मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'

ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1) 

उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती। 

कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही,  यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है। 

पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था। 
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।' 

हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।

बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2) 

बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है। 

बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।

सुप्रभात मित्रों |

साभार : - ह्रदय नारायण दीक्षित (भाजपा सांसद)

पुनर्जन्म का रहस्य...

जीवन अनन्त रहस्यों से भरा हुआ है, लेकिन मृत्यु उससे भी बड़ी पहेली है। मृत्यु को लेकर विज्ञान और दर्शन में अनेक प्रश्न है - क्या मृत्यु के बाद मनुष्य पूरा का पूरा समाप्त हो जाता है? या मृत्यु केवल शरीर पर ही घटित होती ह...ै? प्राण या आत्मतत्व मृत्यु के साथ ही मुक्त हो जाता है?

यह आत्मतत्व कहां चला जाता है? अगर कहीं जाता है तो कहीं से आता भी होगा? इससे अलग एक और मौलिक प्रश्न उत्पन्न होता है - क्या आत्मा सदा से है? या आत्मा का भी जन्म होता है? यदि आत्मा का जन्म होता है तो इसका भी अवसान होता है क्या? क्या मनुष्य की आत्मा या प्राण बार-बार जन्म लेता है? पुनर्जन्म का विचार वास्तव में है क्या?

ऐसे अनेक प्रश्न जिज्ञासु चित्त को मथते हैं। विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। दुनिया के तमाम देशों में मृत्यु बाद के जीवन पर सोच-विचार हुआ था। लेकिन प्रकृति विज्ञान के पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति रहस्यों के साथ ही मनुष्य के अन्तर्जगत पर भी शोध किये थे। इसलिए भारत की अनुभूति ने आत्मा को अमर माना और शरीर को नाशवान।

यम-नचिकेता संवाद-
यह बहस पुरानी है। विश्व स्तर पर इसका विज्ञान सम्मत और निर्णायक समाधान होना शेष है। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही आत्मा का अमरत्व और देहान्तरण तर्क और अनुभूति का विषय रहे हैं।

कठोपनिषद् प्राचीन उपनिषद् है। यहां यम और नचिकेता का प्रश्नोत्तर है। नचिकेता ने अग्नि रहस्य पूछा, यम का उत्तर मिला। वह संतुष्ट हुआ। अंतिम प्रश्न चुनौतीपूर्ण था- 'मृत मनुष्यों के बारे में संशय है कि कुछ लोग कहते हैं कि मृत्यु के बाद यह आत्मा शेष रहती है और कुछ लोग कहते हैं कि नहीं रहती। आप सही बात का उपदेश दें।' (1.1.20)

भारत का उत्तर वैदिक काल रोमांचकारी है। तब नचिकेता जैसे युवा-बालक भी मृत्यु रहस्यों के प्रति जिज्ञासु थे। यम ने पते की बात की 'प्राचीन काल में भी इस विषय पर संदेह रहा है। यह विषय अति सूक्ष्म है- हि एष: धर्म अणु:। तुम कोई दूसरा वर मांगो।

उपनिषद् के रचना काल के पहले से ही यह विषय भारतीयों की जिज्ञासा था। यम के उत्तर में आत्मा की अमरता का उल्लेख है, 'यह आत्मा न जन्मती है, न मरती है, न किसी से हुआ है। यह किसी कारण नहीं है और न किसी का कार्य। यह शाश्वत है, अजन्मा है।'

अथर्ववेद में इस अजन्मा को 'अग्नि और ज्योति-प्रकाश' बताया गया है -अजो अग्निरजमु ज्योति। (9.5.7) कहते हैं 'हे अज! आप अजन्मा और स्वर्ग रूप हैं-अजो इस्यज स्वर्गो असि। (वही, 15)

पुनर्जन्म और श्रीकृष्ण...
पुनर्जन्म का भारतीय विचार आधुनिक विज्ञान की बड़ी चुनौती है। पुनर्जन्म से जुड़ी तमाम घटनाएं विश्व स्तर पर अक्सर घटित होती हैं।

श्रीकृष्ण ने गीता (4.1) में कहा कि 'योग का यह ज्ञान मैंने विवस्वान को बताया था, उन्होंने मनु को और मनु ने इक्ष्वाकु को बताया था।' अर्जुन ने प्रति प्रश्न किया 'आपका जन्म बाद का है और विवस्वान का बहुत प्राचीन है।' (वही 4) श्रीकृष्ण ने कहा, 'अर्जुन! मेरे तेरे बहुत जन्म हो चुके। मैं जानता हूं तू नहीं जानता।' (वही 5)

पुनर्जन्म बेशक भारतीय अनुभूति है, लेकिन ईसा ने भी श्रीकृष्ण की ही तर्ज पर कहा था 'जब अब्राहम हुआ था मैं उसके भी पहले था।' (जौन, 8.58)

जैसे कृष्ण ने स्वयं को पूर्व हुए लोगों के भी पहले विद्यमान बताया वैसे ही ईसा ने स्वयं को पूर्व हुए अब्राहम के भी पहले विद्यमान बताया।

श्रीकृष्ण ने ज्ञान-संन्यास का मर्म समझाते हुए अध्याय 5(17) में कहा, 'अपनी सम्पूर्ण चेतना को परमसत्ता की ओर लगाने वाले वहां पहुंचते हैं, जहां से यहां लौटना नहीं होता।' ऋग्वेद (9.113.10) में ऐसे लोक का प्यारा वर्णन है, 'यत्र कामा निकामाश्च, यत्र ब्रध्नस्य विष्टपम् - जहां सारी कामनाएं पूरी हो जाती हैं, आप हमें वहां अमरत्व दें।' फिर वहां की विशेषता का वर्णन और भी प्यारा है 'यत्रानन्दाश्च मोदाश्य, मुद: प्रमोद आसते - जहां आनंद हैं, मोद, हैं प्रमोद हैं, आमोद हैं, वहां आप मुझे अमरत्व दें।' (वही, 11)

ऋग्वेद में पुनर्जन्म-
वैदिक साहित्य पुनर्जन्म की मान्यता से भरा हुआ है। ऋग्वेद के ऋषि वामदेव कहते हैं 'अहं मनुरभवं सूर्यश्चाहं, कक्षीवां - मैं मनु हुआ, मैं सूर्य हुआ, मैं ही कक्षीवान ऋषि हूं, मैं ही अर्जुनी पुत्र 'कुत्स' हूं और मैं ही उशना कवि हूं। मुझे ठीक से देखो - पश्यतां मा'। (ऋ0 4.26.1) ऋग्वेद में स्वतंत्र विवेक और गहन अनुभूति है।

वामदेव कहते हैं 'मैंने गर्भ (ज्ञान गर्भ) में रहकर इन्द्रादि सभी देवताओं के जन्म का रहस्य जाना है।' (वही 4.27.1) ऋग्वेद (1.164.30) में कहते हैं 'मरणशील शरीरों के साथ जुड़ा जीव अविनाशी है।

मृत्यु के बाद यह जीव अपनी धारण शक्ति से सम्पन्न रहता है और निर्बाध विचरण करता है।' यहां 'मृत्यु के बाद भी निर्बाध विचरण' की स्थापना ध्यान देने योग्य है। ऋग्वेद (1.164.38) में कहते हैं 'अर्मत्य जीव मरणधर्मा शरीर से मिलते हुए विभिन्न योनियों में जाता है। अधिकांश लोग शरीर को ही जानते हैं, पर दूसरे (जीव) को नहीं जानते।'

ऋग्वेद के एक देवता सर्वव्यापी अदिति हैं। वे अंतरिक्ष हैं, आकाश हैं, पृथ्वी हैं, भूत हैं, भविष्य हैं। अदिति ही मृत मां-पिता के दर्शन कराने में सक्षम है। ऋषि कहते हैं 'हम किस देव का स्मरण करें? जो हमें अदिति से मिलवाएं, जिससे हम अपने मृत मां-पिता को देख सकें?' (1.24.1)

उत्तर है 'हम अग्नि का स्मरण करें। वे हमें अदिति से मिलवाएंगे, अदिति के माध्यम से हम मां-पिता को देख सकेंगे।' (वही, 2)। मृत माता-पिता से मिलवाने की अनुभूति ध्यान देने योग्य है। जीवन मृत्यु के बाद भी प्रवाहमान रहता है। ऋग्वेद (10.14) के देवता यम हैं 'वे पुण्यवानों को सुखद धाम ले जाते हैं।' (10.14.1) मृत्यु सारा खेल खत्म नहीं करती।

कहते हैं, 'जिस मार्ग से पूर्वज गये हैं, उसी मार्ग से सभी मनुष्य 'स्व-स्व' (कर्म) अनुसार जाएंगे।' (वही, 2) कहते हैं 'हे पिता! पुण्यकर्मों के कारण पितरों के साथ उच्च लोक में रहे। पाप कर्मों के क्षीण हो जाने के बाद पुन: शरीर धारण करें- सं गच्छस्व तन्वा सुवर्चा'। (वही, यहां मृत पिता के पुनर्जन्म की कामना है। अथर्ववेद के ऋषि कहते हैं 'वह पहले था। वही गर्भ में आता है, वही पिता, वही माता, वही पुत्र होता है। वह नए जन्म लेता है। (अथर्व 10.8.13) अथर्ववेद भी ऐसी स्थापनाओं से भरा पूरा है।

पुनर्जन्म का विचार मिस्र में भी था। अलेक्जेन्ड्रिया के यहूदियों में था।
कार्क हेकेल कहते हैं - मुझे निश्चय हो चुका कि जितनी अधिक गम्भीरता से हम मिस्री धर्म का अध्ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्पष्ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्री धर्म के लिए आत्मा की देहान्तर प्राप्ति का सिद्धांत बिल्कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह 'ओसाइरिस' उपदेशों में अन्तनिर्हित न होकर हिन्दू उद्गम से प्राप्त हुआ है।'

हिब्रू लोगों में भी ऐसा ही विचार है। हिब्रुओं को यह विचार मिस्र से मिला और मिस्रियों को भारत से। यूनानी चिन्तन की शुरुआत (थेल्स ई. पूर्व 600) में पुनर्जन्म जैसा विचार नहीं था। प्रथम यूनानी पाइथागोरस ने यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धांत सिखाया। अपूलियस के अनुसार पाइथागोरस भारत आये थे।

बुद्ध दर्शन में भी पुनर्जन्म की स्थापना है। कहते हैं 'भिक्षुओं चार सत्यों का बोध न होने से ही मेरा, तुम्हारा संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करना हुआ है। वे चार बाते हैं - आर्य शील, आर्य समाधि, आर्य प्रज्ञा और आर्य विमुक्ति।' (अंगुत्तरनिकाय, भाग 2)

बुद्ध के चार सत्य आर्य सत्य हैं। बुद्धदर्शन में पुनर्जन्म का कारण अज्ञान है, उपनिषद् दर्शन में अविद्या है। पुनर्जन्म दोनों में है। अविद्या और विद्या का मूलस्रोत उपनिषद् हैं। बुद्ध को इसकी अनुभूति हैं। उन्होंने शिष्य आनंद को बताया 'आनंद! क्या जरा और मृत्यु सकारण है? कहना चाहिए -मां है। किस कारण से है? कहना चाहिए - 'भव' (आवागमन) के कारण। तब भव किस कारण है? कहना चाहिए - उपादान (आसक्ति) के कारण। तो उपादान क्यों है? उत्तर है तृष्णा के कारण। यहां मुख्य बात तृष्णा है। तृष्णा शून्यता निर्वाण है। उपनिषदों में तृष्णा की जगह इच्छा, कामना या अभिलाषा है।

बौद्ध प्रचारको का कार्य ही क्षेत्र एलेक्जेन्ड्रिया व एशिया में रहा है। स्पष्ट ही पुनर्जन्म का भारतीय विचार विभिन्न स्रोतों से विश्वव्यापी हुआ।

विवेक चूडामणि

Photo: ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः |
विज्ञातव्यमत: सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मन: ||

आदि शंकराचार्य कृत विवेक चूडामणि

अर्थ : ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान पुनः जन्म-मरण रूपी संसारचक्रमें नहीं पडता; इसलिए आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भली प्रकार जान लेना चाहिए |

भावार्थ : जिस ब्रह्मसे हमारी निर्मिति हुई, उसी ब्रह्मसे जब तक हमारा साक्षात्कार नहीं हो जाता तब जन्म-मरणका क्रम चलता रहता है | हम ब्रह्मसे भिन्न है यह हमारी अज्ञानता है |
ब्रह्मभूतस्तु संसृत्यै विद्वान्नावर्तते पुनः |
विज्ञातव्यमत: सम्यग्ब्रह्माभिन्नत्वमात्मन: ||

आदि शंकराचार्य कृत विवेक चूडामणि

अर्थ : ब्रह्मभूत हो जानेपर विद्वान पुनः जन्म-मरण रूपी संसारचक्रमें नहीं पडता; इसलिए आत्माका ब्रह्मसे अभिन्नत्व भ...ली प्रकार जान लेना चाहिए |

भावार्थ : जिस ब्रह्मसे हमारी निर्मिति हुई, उसी ब्रह्मसे जब तक हमारा साक्षात्कार नहीं हो जाता तब जन्म-मरणका क्रम चलता रहता है | हम ब्रह्मसे भिन्न है यह हमारी अज्ञानता है

वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण

Photo: वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण...

"श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम्‌, वाराणसी"... के अध्यक्ष परमहंस परिव्रजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज जी... ने वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामकेर्ति (सर्ग 7), रामकियेन (अ.26) जैसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रंथों का तीन महीने तक गहराई से अध्ययन और अनुसंधान करने के बाद प्रयाग में अपना शोध पत्र जारी किया... इसमें रामसेतु को लेकर वैदिक ग्रंथों में दी गई गणनाओं के अनुसार सही तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं...

शोध पत्र में स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती जी ने बताया है कि भगवान श्रीराम ने 41 वर्ष की आयु में... 1 करोड़ 81 लाख 58 हजार 117 विक्रम संवत पूर्व (18158060 ईसा पूर्व) पौष कृष्ण दशमी तिथि... को सेतु का निर्माण शुरू किया था। इस संबंध में अग्निवेश रामायण में कहा गया है 'सेतोर्दशम्यामारम्भः'।

इसका दूसरा प्रमाण मिलता है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा... ढाई हजार साल पहले रचित... द्वादश ज्योतिर्लिंगम्‌ स्तोत्र में। इसमें कहे गए 'सुताम्रपर्णी जलराशियोगे निबध्यसेतुत' से श्रीराम द्वारा सेतु बनाने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग साक्षात प्रमाण...

शोध में कहा गया है कि श्रीराम सेतु भगवान श्रीराम द्वारा ही निर्मित होने का ज्वलंत और साक्षात प्रमाण स्वयं रामेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यही कारण है कि यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वरम कहा जाता है। इस शास्त्रीय मीमांसा के अनुसार श्री रामसेतु निर्विवाद सत्य है और साथ ही हिन्दू आस्था का केंद्र है।

काल गणना के अनुसार...

भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार ब्रह्म संवत सबसे प्राचीन काल गणना है, जो ब्रह्मा की उत्पत्ति अर्थात सृष्टि के आरंभ से ब्रह्मा की समाप्ति अर्थात सृष्टि प्रलय तक होती है। यह 1 करोड़ 24 लाख मानव वर्ष यानी ब्रह्मा का एक पल होता है। इसी तरह घटी, दिन, रात्रि, पक्ष, मास तथा वर्ष के अनुसार ब्रह्मा की द्विपरार्ध आयु होती है।

एक, दश, शत, सहस्र, अयुत लक्ष्य, प्रयुत, कोटि, अर्वुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापदम, शंकु, समुद्र अल्पपरार्ध, द्विपरार्ध संख्या होती है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। ब्रह्मा का एक दिन 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्षों के बराबर होता है। उसमें संधि सहित चौदह मनवन्तर होते हैं। एक मनुवन्तर में 71 महायुग (चतुर्युग) होते हैं।

वर्तमान में इस सृष्टि के छः मनवन्तर बीत चुके हैं और सातवें मनवन्तर वैवस्वत का 28वें चतुर्युगीय वर्ष में कलियुग का 5109वाँ वर्ष चल रहा है...

श्रीराम का प्राकट्य इसी वैवस्वत मन्वन्तर के 24वें त्रेता में, सृष्टि वर्ष के 1 अरब 94 करोड़ 26 लाख, 93 हजार वर्ष व्यतीत होने पर रावण के वध के लिए दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ था।

चतुर्विशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥
(वायु पुराण 18/72)

रामसेतु की लंबाई-चौड़ाई को लेकर भारतीय धर्मशास्त्रों में दिए गए तथ्य इस प्रकार हैं-

दस योजनम विस्तीर्णम्‌ शतयोजनमायतम्‌
(वा.रा. 22/76)

अर्थात श्रीराम सेतु 100 योजन (1200 किलोमीटर) लंबा और 10 योजन (120 किलोमीटर) चौड़ा था।

अन्य साक्ष्य...

* शास्त्रीय साक्ष्यों के अनुसार इस विस्तृत सेतु का निर्माण शिल्प कला विशेषज्ञ विश्वकर्मा के पुत्र नल ने पौष कृष्ण दशमी से चतुर्दशी तिथि तक मात्र पाँच दिन में किया था।

* सेतु समुद्र का भौगोलिक विस्तार भारत स्थित धनुष कोटि से लंका स्थित सुवेल पर्वत तक है।

* महाबलशाली सेतु निर्माताओं द्वारा विशाल शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यांत्रिक वाहनों द्वारा समुद्र तट तक ले जाने का शास्त्रीण प्रमाण उपलब्ध है।

* भगवान श्रीराम ने प्रवर्षण गिरि (किष्किन्धा) से मार्गशीर्ष अष्टमी तिथि को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था।
 
वैदिक ग्रंथों में मौजूद हैं रामसेतु के प्रमाण
 
"श्रीमद् आद्यजगद्गुरु शंकराचार्य वैदिक शोध संस्थानम्‌, वाराणसी"... के अध्यक्ष परमहंस परिव्रजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती महाराज जी... ने वाल्मीकि रामायण, अध्यात्म रामायण, रामकेर्ति (सर्ग... 7), रामकियेन (अ.26) जैसे अनेक प्राचीन भारतीय ग्रंथों का तीन महीने तक गहराई से अध्ययन और अनुसंधान करने के बाद प्रयाग में अपना शोध पत्र जारी किया... इसमें रामसेतु को लेकर वैदिक ग्रंथों में दी गई गणनाओं के अनुसार सही तथ्य और प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं...

शोध पत्र में स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती जी ने बताया है कि भगवान श्रीराम ने 41 वर्ष की आयु में... 1 करोड़ 81 लाख 58 हजार 117 विक्रम संवत पूर्व (18158060 ईसा पूर्व) पौष कृष्ण दशमी तिथि... को सेतु का निर्माण शुरू किया था। इस संबंध में अग्निवेश रामायण में कहा गया है 'सेतोर्दशम्यामारम्भः'।

इसका दूसरा प्रमाण मिलता है आदि जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा... ढाई हजार साल पहले रचित... द्वादश ज्योतिर्लिंगम्‌ स्तोत्र में। इसमें कहे गए 'सुताम्रपर्णी जलराशियोगे निबध्यसेतुत' से श्रीराम द्वारा सेतु बनाने के पुख्ता प्रमाण मिलते हैं।

रामेश्वर ज्योतिर्लिंग साक्षात प्रमाण...

शोध में कहा गया है कि श्रीराम सेतु भगवान श्रीराम द्वारा ही निर्मित होने का ज्वलंत और साक्षात प्रमाण स्वयं रामेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यही कारण है कि यह ज्योतिर्लिंग सेतुबंध रामेश्वरम कहा जाता है। इस शास्त्रीय मीमांसा के अनुसार श्री रामसेतु निर्विवाद सत्य है और साथ ही हिन्दू आस्था का केंद्र है।

काल गणना के अनुसार...

भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार ब्रह्म संवत सबसे प्राचीन काल गणना है, जो ब्रह्मा की उत्पत्ति अर्थात सृष्टि के आरंभ से ब्रह्मा की समाप्ति अर्थात सृष्टि प्रलय तक होती है। यह 1 करोड़ 24 लाख मानव वर्ष यानी ब्रह्मा का एक पल होता है। इसी तरह घटी, दिन, रात्रि, पक्ष, मास तथा वर्ष के अनुसार ब्रह्मा की द्विपरार्ध आयु होती है।

एक, दश, शत, सहस्र, अयुत लक्ष्य, प्रयुत, कोटि, अर्वुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापदम, शंकु, समुद्र अल्पपरार्ध, द्विपरार्ध संख्या होती है। ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहते हैं। ब्रह्मा का एक दिन 4 अरब 32 करोड़ मानव वर्षों के बराबर होता है। उसमें संधि सहित चौदह मनवन्तर होते हैं। एक मनुवन्तर में 71 महायुग (चतुर्युग) होते हैं।

वर्तमान में इस सृष्टि के छः मनवन्तर बीत चुके हैं और सातवें मनवन्तर वैवस्वत का 28वें चतुर्युगीय वर्ष में कलियुग का 5109वाँ वर्ष चल रहा है...

श्रीराम का प्राकट्य इसी वैवस्वत मन्वन्तर के 24वें त्रेता में, सृष्टि वर्ष के 1 अरब 94 करोड़ 26 लाख, 93 हजार वर्ष व्यतीत होने पर रावण के वध के लिए दशरथ के पुत्र के रूप में हुआ था।

चतुर्विशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा।
सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥
(वायु पुराण 18/72)

रामसेतु की लंबाई-चौड़ाई को लेकर भारतीय धर्मशास्त्रों में दिए गए तथ्य इस प्रकार हैं-

दस योजनम विस्तीर्णम्‌ शतयोजनमायतम्‌
(वा.रा. 22/76)

अर्थात श्रीराम सेतु 100 योजन (1200 किलोमीटर) लंबा और 10 योजन (120 किलोमीटर) चौड़ा था।

अन्य साक्ष्य...

* शास्त्रीय साक्ष्यों के अनुसार इस विस्तृत सेतु का निर्माण शिल्प कला विशेषज्ञ विश्वकर्मा के पुत्र नल ने पौष कृष्ण दशमी से चतुर्दशी तिथि तक मात्र पाँच दिन में किया था।

* सेतु समुद्र का भौगोलिक विस्तार भारत स्थित धनुष कोटि से लंका स्थित सुवेल पर्वत तक है।

* महाबलशाली सेतु निर्माताओं द्वारा विशाल शिलाओं और पर्वतों को उखाड़कर यांत्रिक वाहनों द्वारा समुद्र तट तक ले जाने का शास्त्रीण प्रमाण उपलब्ध है।

* भगवान श्रीराम ने प्रवर्षण गिरि ( किष्किन्धा) से मार्गशीर्ष अष्टमी तिथि को उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र और अभिजीत मुहूर्त में लंका विजय के लिए प्रस्थान किया था।

हे श्रीकृष्‍ण

Photo: इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरन्तर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।



Photo: मोक्ष...

आनीता नटवन्‍मया तब पुर; श्रीकृष्‍ण! या भूमिका ।
व्‍योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्‍त्‍वत्‍प्रीतयेऽद्यावधि ।।
प्रीतस्‍त्‍वं यदि चेन्निरीक्ष्‍य भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे ।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्‍त्‍वेतादृशीं भूमिकाम् ||

हे श्रीकृष्‍ण! आपके प्रीत्‍यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्‍वर! यदि आप इसे (दृश्‍य) देख कर प्रसन्‍न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्‍न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्‍वाँग धारण कर इस पृथ्‍वी पर न लाया जाऊँ।

शुभ रात्रि मित्रों...
मोक्ष...

आनीता नटवन्‍मया तब पुर; श्रीकृष्‍ण! या भूमिका ।
व्‍योमाकाशखखांबराब्धिवसवस्‍त्‍वत्‍प्रीतयेऽद्यावधि ।।
प्रीतस्‍त्‍वं यदि चेन्निरीक्ष्‍य भगवन् स्‍वप्रार्थित देहि मे ।
नोचेद् ब्रूहि कदापि मानय पुरस्‍त्‍वेतादृशीं भूमिकाम् ||...

हे श्रीकृष्‍ण! आपके प्रीत्‍यर्थ आज तक मैं नट की चाल पर आपके सामने लाया जाने से चौरासी लाख रूप धारण करता रहा । हे परमेश्‍वर! यदि आप इसे (दृश्‍य) देख कर प्रसन्‍न हुए हों तो जो मैं माँगता हूँ उसे दीजिए और नहीं प्रसन्‍न हों तो ऐसी आज्ञा दीजिए कि मैं फिर कभी ऐसे स्‍वाँग धारण कर इस पृथ्‍वी पर न लाया जाऊँ।

Photo: ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

(इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, ऐसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव [मोह] उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति [स्मृति] में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से ज्ञानशक्ति अर्थात बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।)
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

(इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में ...आसक्ति हो जाती है, ऐसी आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव [मोह] उत्पन्न होता है, मोह से स्मरण-शक्ति [स्मृति] में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से ज्ञानशक्ति अर्थात बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट होने से मनुष्य का अधो-पतन हो जाता है।
 
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(हे धनंजय! तू सफ़लता तथा विफ़लता में आसक्ति को त्याग कर सम-भाव में स्थित हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऐसी समता ही समत्व बुद्धि-योग कहलाती है।
 
 

 

भगवान श्रीकृष्ण लीला

Photo: सुप्रभात मित्रों...

कुछ "विधर्मी" और "वामपंथी" रासलीला को लेकर भगवान् श्री कृष्ण पर चरित्रहीनता का आरोप लगाते हैं और उसको सच मानकर कुछ हिन्दू भाई बहन भी बिना कृष्ण को जाने उनकी बातों में आकर अपने महान धर्म पर ही उंगली उठाते हैं,ये पोस्ट ऐसे ही मूर्ख लोगों को सही रास्ते पर लाने के लिये मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ.....

भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है। 

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं। 

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है - 

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक की बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था। 

एक अति महत्वपूर्ण बात और भी है जिससे बहुत कम ही लोग परिचित हैं। वह यह है कि जब कृष्ण ने हमेशा-हमेशा के लिये गोकुल-वृंदावन छोड़ा तब उनकी उम्र मात्र नौ वर्ष की थी। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि कृष्ण जब गोप-गोपिकाओं के साथ गौकुल-वृंदावन में थे तब नौ वर्ष से भी छोटे रहे होगें। 

अति मनोहर रूप, बांसुरी बजाने में अत्यंत निपुण,अवतारी आत्मा होने के कारण जन्मजात प्रतिभाशाली आदि तमाम बातों के कारण वे आसपास के पूरे क्षेत्र में अत्यंत् लोकप्रिय थे। नौ वर्ष के बालक का गोपियों के साथ नृत्य करना एक विशुद्ध प्रेम और आनंद का ही विषय हो सकता है। 

अत: कृष्ण रास को शारीरिक धरातल पर लाकर उसमें मोजमस्ती या भोग विलास जेसा कुछ ढूंढना इंसान की स्यवं की फितरत पर निर्भर करता है। कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है। 

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

जय श्री कृष्ण |

{ Manu }
भगवान श्रीकृष्ण लीला पुरुषोत्त्तम कहलाते हैं। क्योंकि पूरे जीवन की गई श्रीकृष्ण की लीलाओं में कोई लीला मोहित करती है तो कोई अचंभित करती है। लेकिन हर लीला जीवन से जुड़े कोई न कोई संदेश देती है।

भगवान श्रीकृष्ण की सभी लीलाओं में से रासलीला हर किसी के मन में उत्सुकता और जिज्ञासा पैदा करती है। किंतु युग के अन्तर और धर्म की गहरी समझ के अभाव से पैदा हुई मानसिकता के कारण रासलीला शब्द को लंपटता या गलत अर्थ में उपयोग किया जाता है। खासतौर पर स्त्रियों से संबंध रखने और उनके साथ रखे जाने वाले व्यवहार के लिए रासलीला के आधार पर अनेक युवा भगवान कृष्ण को आदर्श बताने का अनुचित प्रयास करते हैं।

इसलिए यहां खासतौर पर युवा जाने कि रासलीला से जुड़ा व्यावहारिक सच क्या है -

दरअसल श्रीकृष्ण की रासलीला जीवन के उमंग, उल्लास और आनंद की ओर इशारा करती है। इस रासलीला को संदेह की नजर से सोचना या विचार करना इसलिए भी गलत है, क्योंकि रासलीला के समय भगवान श्रीकृष्ण की उम्र लगभग ८ वर्ष की मानी जाती है और उनके साथ रास करने वाली गोपियों में बालिकाओं के साथ युवतियां यहां तक की बड़ी उम्र की भी गोपियां शामिल थीं। इसलिए जबकि कलयुग में भी इतनी कम उम्र में बालक के व्यवहार में यौन इच्छाएं नहीं देखी जाती तो फिर कृष्ण के काल द्वापर में कल्पना करना व्यर्थ है। इस तरह गोपियों का कान्हा के साथ रास पवित्र प्रेम था।

एक अति महत्वपूर्ण बात और भी है जिससे बहुत कम ही लोग परिचित हैं। वह यह है कि जब कृष्ण ने हमेशा-हमेशा के लिये गोकुल-वृंदावन छोड़ा तब उनकी उम्र मात्र नौ वर्ष की थी। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि कृष्ण जब गोप-गोपिकाओं के साथ गौकुल-वृंदावन में थे तब नौ वर्ष से भी छोटे रहे होगें।

अति मनोहर रूप, बांसुरी बजाने में अत्यंत निपुण,अवतारी आत्मा होने के कारण जन्मजात प्रतिभाशाली आदि तमाम बातों के कारण वे आसपास के पूरे क्षेत्र में अत्यंत् लोकप्रिय थे। नौ वर्ष के बालक का गोपियों के साथ नृत्य करना एक विशुद्ध प्रेम और आनंद का ही विषय हो सकता है।

अत: कृष्ण रास को शारीरिक धरातल पर लाकर उसमें मोजमस्ती या भोग विलास जेसा कुछ ढूंढना इंसान की स्यवं की फितरत पर निर्भर करता है। कृष्ण के प्रति कोई राय बनाने से पूर्व इंसान को गीता को समझना होगा क्योंकि उसके बिना कोई कृष्ण को वास्तविक रूप में समझ ही नहीं पाएगा।

जिस तरह रामायण में श्रीराम के साथ शबरी और केवट इच्छा और स्वार्थ से दूर प्रेम मिलता है, ठीक उसी तरह का प्रेम रासलीला में कृष्ण और गोपियों का मिलता है।

इसलिए रासलीला के अर्थ के साथ मर्म को समझें तो यही बात सामने आती है कि भगवान श्रीकृष्ण की गोपियों के संग रासलीला काम नहीं काम विजय लीला है, जो भोग नहीं योग से जीवन को साधने का संदेश देती है।

जय श्री कृष्ण |

Animal senses death/sickness better than human being. BETTER SENSE.

DEATH IS NO DEATH

मृत्यु के पूर्वाभास से जुड़े निम्नलिखित संकेत व्यक्ति को अपना अंत समय नजदीक होने का आभास करवाते हैं।
1. समय बीतने के साथ अगर कोई व्यक्ति अपनी नाक की नोक देखने में असमर्थ हो जाता है तो इसका अर्थ यही है कि जल्द ही उसकी मृत्यु होने वाली है. क्योंकि उसकी आंखें धीरे-धीरे ऊपर की ओर मुड़ने लगती हैं और मृत्यु के समय आंखें पूरी तरह ऊपर की ओर मुड़ जाती हैं।

2. मृत्यु से कुछ समय पहले व्यक्ति को आसमान में मौजूद आकाशीय पिँड खंडित लगने लगते हैँ। व्यक्ति को लगता है कि सब कुछ बीच में से दो भागों में बंटा हुआ है, जबकि ऐसा कुछ नहीं होता।

3. व्यक्ति को कान बंद करने के बाद सुनाई देने वाला अनाहत नाद सुनाई देना बंद हो जाता है,
4. व्यक्ति को हर समय ऐसा लगता है कि उसके सामने कोई अनजाना धुंधला सा चेहरा बैठा है।

5. अगर मृत्यु हस्त नक्षत्र मेँ होने वाली हो तो अंत समय नजदीक आने पर एक पल के लिए व्यक्ति की परछाई उसका साथ छोड़ जाती है।

6. जीवन का सफर पूरा होने पर व्यक्ति को अपने मृत पूर्वजों के साथ रहने का अहसास होता है। किसी साये का हर समय साथ रहने जैसा आभास व्यक्ति को अपनी मृत्यु के दो-तीन पहले ही होने लगता है।

7. मृत्यु से पहले मानव शरीर में से अजीब सी गंध आने लगती है, जिसे मृत्यु गंध का नाम दिया जाता है।

यहाँ क्लिक करेँ  Cat predicts 50 deaths In nursing home

8. दर्पण में व्यक्ति को अपना चेहरा ना दिख कर किसी और का चेहरा दिखाई देने लगे तो स्पष्ट तौर पर मृत्यु 24 घंटे के भीतर हो जाती है।

9. अगर आपके दोनोँ स्वर चलने लगेँ तो आपका अंत समय नजदीक है ये मानकर चलना चाहिए, व्यक्ति का हमेशा एक ही स्वर चलता है, अपनी नासिका के नीचे अपनी तर्जनी अंगुली पानी से भिगोकर रखेँ, आपको केवल एक ही नासिका छिद्र से ही वायु प्रवाह अनुभव होगा, इसे ही स्वर चलना कहते हैं। परन्तु मृत्यु के समय दोनोँ स्वर चलने लगते हैँ। नासिका के स्वर अव्यस्थित हो जाने का लक्षण अमूमन मृत्यु के 2-3 दिनों पूर्व प्रकट होता है।
शास्त्रोँ मेँ ५० प्रकार के मृत्यु पूर्वाभास बताए गए हैँ।

ॐ,OHM/OM /PRANAYAM / YOGA

Photo
ॐ के उच्चारण को अनाहत नाद कहते हैं, ये ब्रह्म नाद के रूप मेँ प्रत्येक व्यक्ति के भीतर और इस ब्रह्मांड में सतत् गूँजता रहता है।

इसके गूँजते रहने का कोई कारण नहीं। सामान्यत: नियम है कि ध्वनि उत्पन्न होती है किसी की टकराहट से, लेकिन अनाहत को उत्पन्न नहीं किया जा सकता।

ओ, उ और म उक्त तीन अक्षरों वाले शब्द की महिमा अव्यक्त है। यह नाभि, हृदय और आज्ञा चक्र को जगाता है। इसे प्रणव साधना भी कहा जाता है।

इसके अनेक चमत्कार हैँ। प्रत्येक मंत्र के पूर्व इसका उच्चारण किया जाता है। योग साधना में इसका अधिक महत्व है। इसके निरंतर उच्चारण करते रहने से अनाहत को जगाया जा सकता है।

विधि नंबर 01 :-

प्राणायाम या कोई विशेष आसन करते वक्त इसका उच्चारण किया जाता है। केवल प्रणव साधना के लिए ॐ का उच्चारण पद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 11, 21 बार अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। बोलने की जरूरत जब समाप्त हो जाए तो इसे अपने अंतरमन में सुनने का अभ्यास बढ़ाएँ।

सावधानी :- उच्चारण करते वक्त लय का विशेष ध्यान रखें। इसका उच्चारण प्रभात या संध्या में ही करें। उच्चारण करने के लिए कोई एक स्थान नियुक्त हो। हर कहीं इसका उच्चारण न करें। उच्चारण करते वक्त पवित्रता और सफाई का विशेष ध्यान रखें।

लाभ : संसार की समस्त ध्वनियों से अधिक शक्तिशाली, मोहक, दिव्य और सर्वश्रेष्ठ आनंद से युक्तनाद ब्रम्ह के स्वर से सभी प्रकार के रोग और शोक मिट जाते हैं। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। इससे हमारे शरीर की ऊर्जा संतुलन में आ जाती है। इसके संतुलन में आने पर चित्त शांत हो जाता है।
व्यर्थ के मानसिक द्वंद्व, तनाव, संताप और नकारात्मक विचार मिटकर मन की शक्ति बढ़ती है। मन की शक्ति बढ़ने से संकल्प शक्ति और आत्मविश्वास बढ़ता है। सम्मोहन साधकों के लिए इसका निरंतर जाप करना अनिवार्य है।

विधि नंबर 02 :-

किसी शांत जगह पर अपने दोनोँ हाथोँ से अपने कानोँ को ढंके, कानोँ को पूरी तरह हाथोँ से सील करले आपको एक आवाज सुनाई देगी, यही अनाहत नाद या ब्रह्म नाद है, ये ध्वनि या नाद आपके शरीर के अंदर 24 घंटे होते रहता है, ये हमेशा आपके शरीर को ॐ के रूप मेँ अंदर से वाद्यित् करता रहता है। इसे ध्यान के रूप मेँ परिणित कर आप अतुल्य लाभ उठा सकते हैँ।

सर्वप्रथम एक स्वच्छ, व शांत कमरे मेँ आसन लगाकर बैठ जाइए, अपने सामने एक घी का दीपक जला लीजिए, अपने कानोँ को दोनोँ हाथोँ से कसकर बंद कर लीजिए ताकि आपको नाद सुनाई देने लगे, मन मेँ उस नाद के समान्तर ॐ का उच्चारण कीजिए। ये क्रिया 5 मिनिट तक कीजिए, रोजाना सुबह व शाम ये क्रिया कीजिए, कुछ समय बाद अभ्यास से आप ध्यान की अवस्था मेँ बिना कानोँ को ढंके, नाद को सुन पाएंगेँ, रोजमर्रा के काम करते वक्त भी अगर आप कुछ सेकंड के लिए भी ध्यान लगाएं तो भी आप शोरगुल मेँ भी अनाहत नाद को सुन सकते हैँ।

अगर आप ऐसा कर पाने मेँ सफल हो गए तो आप अपने आपको इस क्रिया मेँ सिद्ध कर लेँगे। "करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान" ये बात याद रखिए।

सावधानी :- पवित्रता व स्वच्छता पर विशेष ध्यान देँ। ब्रह्मचर्य का पालन करेँ।

लाभ :- विधि नंबर 01 के समान

नोट :- दोनोँ विधियोँ मेँ ॐ का उच्चारण विषम संख्या मेँ ही करेँ। अर्थात् 5, 7, 11, 21, या 51, उच्चारण करते समय पहले ॐ मेँ "ओ" शब्द छोटा व "म" शब्द लम्बा खीँचे, द्वितीय ॐ मेँ "ओ" तथा "म" दोनोँ बराबर रखेँ, तृतीय उच्चारण मेँ पुनः "ओ" छोटा व "म" लम्बा रखेँ। यही क्रम चलने देँ। आपको शीघ्र ही लाभ होगा, ऐसा मेरा विश्वास है।


विधि- 02

आराम से सुखआसन में बैठ जाएँ |
रीढ़ की हड्डी सीधी हो | ठुढि थोड़ी सी गर्दन के तरफ झुकी हो |
सारे शरीर को ढीला छोड़ दें |
आँखे बंद हो |...
एकदम आनन्द अनुभव करें |
अब एक लम्बी गहरी सांस खींचे धीरे धीरे बिलकुल आराम से |
फिर सांस को धीरे धीरे बाहर छोड़ दें से |
तीन बार या पांच बार ऐसा हीं सांस खींचे और छोड़ें धीरे धीरे से बिलकुल |

दो मिनट बाद |
कल्पना करें आपके सिर के ठीक ऊपर अनंत आकाश में एक तारा निकला हुआ है |
तारे का प्रकाश ठीक आपके सिर के ऊपरी भाग पर गिर रहा है |
तारे के प्रकाश के साथ यह भी कल्पना करें सुख, शान्ति, आनंद भी आपके सिर के उपरी भाग पर गिर रहा है और आपके शरीर में प्रवेश कर रहा है |
सारे शरीर ऊपर से नीचे की ओर शान्ति और शीतलता रूपी तारा का प्रकाश बह रहा है ऐसी कल्पना करें |
ध्यान को सिर के चोटी पर रखें अधिकांश समय के लिए |
  पन्द्रह मिनट इसी कल्पना में डूबे रहें !



Mother Teresa: Satanic Saint

MOTHER TERESA 'S SATANIC HOOD.

Researchers dispell the myth of altruism and generosity surrounding Mother Teresa

The myth of altruism and generosity surrounding Mother Teresa is dispelled in a paper by Serge Larivée and Genevieve Chenard of University of Montreal’s Department of Psychoeducation and Carole Sénéchal of the University of Ottawa’s Faculty of Education. The paper will be published in the March issue of the journal Studies in Religion/Sciences religieuses and is an analysis of the published writings about Mother Teresa. Like the journalist and author Christopher Hitchens, who is amply quoted in their analysis, the researchers conclude that her hallowed image—which does not stand up to analysis of the facts—was constructed, and that her beatification was orchestrated by an effective media relations campaign.
“While looking for documentation on the phenomenon of altruism for a seminar on ethics, one of us stumbled upon the life and work of one of Catholic Church’s most celebrated woman and now part of our collective imagination—Mother Teresa—whose real name was Agnes Gonxha,” says Professor Larivée, who led the research. “The description was so ecstatic that it piqued our curiosity and pushed us to research further.”
As a result, the three researchers collected 502 documents on the life and work of Mother Teresa. After eliminating 195 duplicates, they consulted 287 documents to conduct their analysis, representing 96% of the literature on the founder of the Order of the Missionaries of Charity (OMC). Facts debunk the myth of Mother Teresa
In their article, Serge Larivée and his colleagues also cite a number of problems not take into account by the Vatican in Mother Teresa’s beatification process, such as “her rather dubious way of caring for the sick, her questionable political contacts, her suspicious management of the enormous sums of money she received, and her overly dogmatic views regarding, in particular, abortion, contraception, and divorce.”
The sick must suffer like Christ on the cross
At the time of her death, Mother Teresa had opened 517 missions welcoming the poor and sick in more than 100 countries. The missions have been described as “homes for the dying” by doctors visiting several of these establishments in Calcutta. Two-thirds of the people coming to these missions hoped to a find a doctor to treat them, while the other third lay dying without receiving appropriate care. The doctors observed a significant lack of hygiene, even unfit conditions, as well as a shortage of actual care, inadequate food, and no painkillers. The problem is not a lack of money—the Foundation created by Mother Teresa has raised hundreds of millions of dollars—but rather a particular conception of suffering and death: “There is something beautiful in seeing the poor accept their lot, to suffer it like Christ’s Passion. The world gains much from their suffering,” was her reply to criticism, cites the journalist Christopher Hitchens. Nevertheless, when Mother Teresa required palliative care, she received it in a modern American hospital.
Questionable politics and shadowy accounting
Mother Teresa was generous with her prayers but rather miserly with her foundation’s millions when it came to humanity’s suffering. During numerous floods in India or following the explosion of a pesticide plant in Bhopal, she offered numerous prayers and medallions of the Virgin Mary but no direct or monetary aid. On the other hand, she had no qualms about accepting the Legion of Honour and a grant from the Duvalier dictatorship in Haiti. Millions of dollars were transferred to the MCO’s various bank accounts, but most of the accounts were kept secret, Larivée says. “Given the parsimonious management of Mother Theresa’s works, one may ask where the millions of dollars for the poorest of the poor have gone?”
The grand media plan for holiness
Despite these disturbing facts, how did Mother Teresa succeed in building an image of holiness and infinite goodness? According to the three researchers, her meeting in London in 1968 with the BBC’s Malcom Muggeridge, an anti-abortion journalist who shared her right-wing Catholic values, was crucial. Muggeridge decided to promote Teresa, who consequently discovered the power of mass media. In 1969, he made a eulogistic film of the missionary, promoting her by attributing to her the “first photographic miracle,” when it should have been attributed to the new film stock being marketed by Kodak. Afterwards, Mother Teresa travelled throughout the world and received numerous awards, including the Nobel Peace Prize. In her acceptance speech, on the subject of Bosnian women who were raped by Serbs and now sought abortion, she said: “I feel the greatest destroyer of peace today is abortion, because it is a direct war, a direct killing—direct murder by the mother herself.”
Following her death, the Vatican decided to waive the usual five-year waiting period to open the beatification process. The miracle attributed to Mother Theresa was the healing of a woman, Monica Besra, who had been suffering from intense abdominal pain. The woman testified that she was cured after a medallion blessed by Mother Theresa was placed on her abdomen. Her doctors thought otherwise: the ovarian cyst and the tuberculosis from which she suffered were healed by the drugs they had given her. The Vatican, nevertheless, concluded that it was a miracle. Mother Teresa’s popularity was such that she had become untouchable for the population, which had already declared her a saint. “What could be better than beatification followed by canonization of this model to revitalize the Church and inspire the faithful especially at a time when churches are empty and the Roman authority is in decline?” Larivée and his colleagues ask.
Positive effect of the Mother Teresa myth
Despite Mother Teresa’s dubious way of caring for the sick by glorifying their suffering instead of relieving it, Serge Larivée and his colleagues point out the positive effect of the Mother Teresa myth: “If the extraordinary image of Mother Teresa conveyed in the collective imagination has encouraged humanitarian initiatives that are genuinely engaged with those crushed by poverty, we can only rejoice. It is likely that she has inspired many humanitarian workers whose actions have truly relieved the suffering of the destitute and addressed the causes of poverty and isolation without being extolled by the media. Nevertheless, the media coverage of Mother Theresa could have been a little more rigorous.”
###
About the study
The study was conducted by Serge Larivée, Department of psychoeducation, University of Montreal, Carole Sénéchal, Faculty of Education, University of Ottawa, and Geneviève Chénard, Department of psychoeducation, University of Montreal.