Monday, March 31, 2014

भारद्वाज कृत विमानशास्त्र (vymaanika-shaastra) #Decoding #Hinduism

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प्राचीन भारतीय विमान शास्त्र : सनातन वैदिक विज्ञान का अप्रतिम स्वरूप :


हिंदू वैदिक ग्रंथोँ एवं प्राचीन मनीषी साहित्योँ मेँ वायुवेग से उड़ने वाले विमानोँ (हवाई जहाज़ोँ) का वर्णन है, सेकुलरोँ के लिए ये कपोल कल्पित कथाएं हो सकती हैँ, परन्तु धर्मभ्रष्ट लोगोँ की बातोँ पर ध्यान ना देते हुए हम तथ्योँ को विस्तार देते हैँ।ब्रह्मा का १ दिन, पृथ्वी पर हमारे वर्षोँ के ४,३२,००००००० दिनोँ के बराबर है। और यही १ ब्रह्म दिन चारोँ युगोँ मेँ विभाजित है यानि, सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं वर्तमान मेँ कलियुग।


सतयुग की आयु १,७२,८००० वर्ष निर्धारित है, इसी प्रकार १,००० चक्रोँ के सापेक्ष त्रेता और कलियुग की आयु भी निर्धारित की गई है।


सतयुग मेँ प्राणी एवं जीवधारी वर्तमान से बेहद लंबा एवं जटिल जीवन जीते थे, क्रमशः त्रेता एवं द्वापर से कलियुग आयु कम होती गई और सत्य का प्रसार घटने लगा,


उस समय के व्यक्तियोँ की आयु लम्बी एवं सत्य का अधिक प्रभाव होने के कारण उनमेँ आध्यात्मिक समझ एवं रहस्यमयी शक्तियां विकसित हुई, और उस समय के व्यक्तियोँ ने जिन वैज्ञानिक रचनाओँ को बनाया उनमेँ से एक थी "वैमानिकी"।


उस समय की मांग के अनुसार विभिन्न विमान विकसित किए गए, जिन्हेँ भगवान ब्रह्मा और अन्य देवताओँ के आदेश पर यक्षोँ (जिन्हेँ इंजीनियर कह सकते हैँ) ने बनाया था,


ये विमान प्राकृतिक डिज़ाइन से बनाए जाते थे, इनमेँ पक्षियोँ के परोँ जैसी संरचनाओँ का प्रयोग जाता था, इसके पश्चात् के विमान, वैदिक ज्ञान के प्रकांड संतएवं मनीषियोँ द्वारा निर्मित किए गए, तीनोँ युगोँ के अनुरूप विमानोँ केभी अलग अलग प्रकार होते थे,


प्रथम युग सतयुग मेँ विमान मंत्र शक्ति से उड़ा करते थे, द्वितीय युग त्रेता मेँ मंत्र एवं तंत्र की सम्मिलित शक्ति का प्रयोग होता था, तृतीय युग द्वापर मेँ मंत्र-तंत्र-यंत्र तीनोँ की सामूहिक ऊर्जा से विमान उड़ा करते थे, वर्तमान मेँ अर्थात् कलियुग मेँ मंत्र एवं तंत्र के ज्ञान की अथाह कमी है, अतः आज के विमान सिर्फ यंत्र (मैकेनिकल) शक्ति से उड़ा करते हैँ,


युगोँ के अनुरूप हमेँ विमानोँ के प्रकारोँ की संख्या ज्ञात है, सतयुग मेँ मंत्रिका विमानोँ के २६ प्रकार (मॉडल) थे, त्रेता मेँ तंत्रिका विमानोँ के ५६ प्रकार थे, तथा द्वापर मेँ कृतिका (सम्मिलित) विमानोँ के भी २६ प्रकार थे,


हालांकि आकार और निर्माण के संबंध मेँ इनमेँ आपस मेँ कोई अंतर नहीँ हैँ।


महान भारतीय आचार्य महर्षि भारद्वाज ने एक ग्रंथ रचा, जिसका नाम है, "विमानिका" या "विमानिका शास्त्र"


१८७५ ईसवीँ में दक्षिण भारत के एक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की एक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से ४०० वर्ष पूर्व का बताया जाता है, इस ग्रंथ का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के ९७ अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा २० ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तृत जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियां अब लुप्त हो चुकी हैं। कई कृतियोँ को तो विधर्मियोँ ने नालंदा विश्वविद्यालय मेँ जला दिया,


इस महान ग्रंथ मेँ विभिन्न प्रकार के विमान, हवाई जहाज एवं उड़न-खटोले बनाने की विधियाँ दी गई हैँ, तथा विमान और उसके कलपुर्जे तथा ईंधन के प्रयोग तथा निर्माण की विधियोँ का भी सचित्र वर्णन किया गया है, उन्होँने अपने विमानोँ मेँ ईंधन या नोदक अथवा प्रणोदन (प्रोपेलेँट) के रूप मेँ पारे (मर्करी Hg) का प्रयोग किया।


बहुत कम लोग जानते हैँ कि कलियुग का पहला विमान राइट ब्रदर्स ने नहीँ बनाया था, पहला विमान १८९५ ई. में मुम्बई स्कूल ऑफ आर्ट्स के अध्यापक शिवकर बापूजी तलपड़े, जो एक महान वैदिक विद्वान थे, ने अपनी पत्नी (जो स्वयं भी संस्कृत की विदुषा थीं) की सहायता से बनाया एवं उड़ाया था। उन्होँने एक मरुत्सखा प्रकार के विमान का निर्माण किया। इसकी उड़ान का प्रदर्शन तलपड़े ने मुंबई चौपाटी पर तत्कालीन बड़ौदा नरेश सर शिवाजी राव गायकवाड़ और बम्बई के प्रमुख नागरिक लालजी नारायण के सामने किया था। विमान १५०० फुट की ऊंचाई तक उड़ा और फिर अपने आप नीचे उतर आया। बताया जाता है कि इस विमान में एक ऐसा यंत्र लगा था, जिससे एक निश्चित ऊंचाई के बाद उसका ऊपर उठना बन्द हो जाता था। इस विमान को उन्होंने महादेव गोविन्द रानडे को भी दिखाया था।


दुर्भाग्यवश इसी बीच तलपड़े की विदुषी जीवनसंगिनी का देहावसान हो गया। फलत: वे इस दिशा में और आगे न बढ़ सके। १७ सितंबर, १९१८ ईँसवी को उनका देहावसान हो गया।


राइट ब्रदर्स के काफी पहले वायुयान निर्माण कर उसे उड़ाकर दिखा देने वाले तलपड़े महोदय को आधुनिक विश्व का प्रथम विमान निर्माता होने की मान्यता देश के स्वाधीन (?) हो जाने के इतने वर्षों बाद भी नहीं दिलाई जा सकी, यह निश्चय ही अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। और इससे भी कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि पाठ्य-पुस्तकों में शिवकर बापूजी तलपड़े के बजाय राइटब्रदर्स (राइट बन्धुओं) को ही अब भी प्रथम विमान निर्माता होने का श्रेय दिया जा रहा है, जो नितान्त असत्य है।


"समरांगन:-सूत्र धारा" नामक भारतीय ग्रंथ मेँ भी विमान निर्माण संबंधी जानकारी है। इस ग्रंथ मेँ युद्ध के समय वैमानिक मशीनोँ के प्रयोग का वर्णन है, इस ग्रंथ मेँ संस्कृत के २३० श्लोक हैँ, स्थान की कमी के कारण हम यहाँ इस ग्रंथ के पूरे श्लोक नहीँ लिख रहे हैँ, अन्यथा लेख लंबा हो जाएगा।


परन्तु हम इस ग्रंथ के १९० वेँ श्लोक का अनुवाद अवश्य कर रहे हैँ :-


"[२:२० . १९०] परिपत्रोँ से पूर्ण विमान के दाहिने पंख से अंदर जाते हुए केंद्र पर ध्वनि की गति से पारे को ईँधन के सापेक्ष पहुँचाने पर एक छोटी पर अधिक दबाव वाली आंतरिक ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो आपके यंत्र को आकाश मेँ शनैः शनैः ले जाएगी, जिससे यंत्र के अंदर बैठा व्यक्ति अविस्मरणीय तरीके से नभ की यात्रा करेगा, चार कठोर धातु से बने पारे के पात्रोँ का संयोजन उचित स्थिति मेँ किया जाना चाहिए, एवं उन्हेँ नियंत्रित तरीके से ऊष्मा देनी चाहिए, ऐसा करने से आपका विमान आकाश मेँ चमकीले मोती के समान उड़ता नज़र आएगा।।"


इस ग्रंथ के एक गद्य का अनुवाद इस प्रकार है -


"सर्वप्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था। तत्पश्चात अन्य विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-


(१) रुकमा – रुकमा नुकीले आकार के और स्वर्ण रंग के विमान थे।


(२) सुन्दरः –सुन्दर: त्रिकोण के आकार के तथा रजत (चाँदी) युक्त विमान थे।



(३) त्रिपुरः – त्रिपुरः तीन तल वाले शंक्वाकार विमान थे।



(४) शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था। तथा ये अंतर्राक्षीय विमान थे।



दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का प्रशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुर्ज़े, उपकरण, चालकों एवं यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये। ग्रंथ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबू अथवा सेब या अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।



साथ ही, ७ प्रकार के इंजनों का वर्णन किया गया है, तथा उनका किस विशिष्ट उद्देश्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊंचाई पर उसका प्रयोग सफल और उत्तम होगा ये भी वर्णित है।



ग्रंथ का सारांश यह है कि इसमेँ प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्ध है। विमान आधुनिक हेलीकॉप्टरों की तरह सीधे ऊंची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे-पीछे तथा तिरछा चलने में भी सक्षम बताये गये हैं



इसके अतिरिक्त हमारे दूसरे ग्रंथोँ - रामायण, महाभारत, चारोँ वेद, युक्तिकरालपातु (१२ वीं सदी ईस्वी) मायाम्तम्, शतपत् ब्राह्मण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, भागवतपुराण, हरिवाम्सा, उत्तमचरित्र ,हर्षचरित्र, तमिल पाठ जीविकाचिँतामणि, मेँ तथा और भी कई वैदिक ग्रंथोँ मेँ भी विमानोँ के बारे मेँ विस्तार से बताया गया है,



महर्षि भारद्वाज के शब्दों में - "पक्षियों की भान्ति उडने के कारण वायुयान को विमान कहते हैं, (वेगसाम्याद विमानोण्डजानामिति ।।)



विमानों के प्रकार:-



(१) शकत्युदगम विमान -"विद्युत से चलने वाला विमान"



(२) धूम्र विमान - "धुँआ, वाष्प आदि से चलने वाला विमान"



(३) अशुवाह विमान - "सूर्य किरणों से चलने वाला विमान",



(४) शिखोदभग विमान - "पारे से चलने वाला विमान",



(५) तारामुख विमान -"चुम्बकीय शक्ति से चलने वाला विमान",



(६) मरूत्सख विमान - "गैस इत्यादि से चलने वाला विमान"



(७) भूतवाहक विमान - "जल,अग्नि तथा वायु से चलने वाला विमान"



वो विमान जो मानवनिर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडनतशतरियों’ के अनुरूप है। विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया।



प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्होंने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उनमें से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान-विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-


प्रथम ग्रंथ :


(१) ऋगवेद- इस आदिग्रन्थ में कम से कम २०० बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हेँ अश्विनों (वैज्ञानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणतया तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण,रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई संदेह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी।



यातायात के लिये ऋग्वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-



(१) जलयान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ६.५८.३)



(२) कारायान – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद ९.१४.१)



(३) त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋगवेद ३.१४.१)



(४) त्रिचक्र रथ – यह रथ के समान तिपहिया विमान आकाश में उड़ सकता था। (ऋगवेद ४.३६.१)



(५) वायुरथ – रथ के जैसा ये यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ५.४१.६)



(६) विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋगवेद ३.१४.१).



द्वितीय ग्रंथ :



(२) यजुर्वेद - यजुर्वेद में भी एक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिसका निर्माण जुड़वा अश्विन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्होँने राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।


तृतीय ग्रंथ :


(३) यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रंथ भी महर्षि भारद्वाज रचित है। इसके ४० भाग हैं जिनमें से एक भाग मेँ ‘विमानिका प्रकरण’ के आठ अध्याय, लगभग १०० विषय और ५०० सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारद्वाज ने विमानों को तीन श्रैँणियों में विभाजित किया हैः-



(१) अन्तर्देशीय – जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।



(२) अन्तर्राष्ट्रीय – जो एक देश से दूसरे देश को जाते हैँ।



(३) अन्तर्राक्षीय – जो एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते हैँ।



इनमें सें अति-उल्लेखनीय सैनिक विमान थे जिनकी विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं।



उदाहरणार्थ - सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-



☀ पूर्णत्या अटूट,

☀ अग्नि से पूर्णतयाः सुरक्षित

☀ आवश्यक्तता पड़ने पर पलक झपकने मात्र के समय मेँ ही एक दम से स्थिर हो जाने में सक्षम,

☀ शत्रु से अदृश्य हो जाने की क्षमता (स्टील्थ क्षमता),

☀ शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्षम।

☀ शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृश्योँ को विमान मेँ ही रिकार्ड कर लेने की क्षमता,

☀ शत्रु के विमानोँ की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना,

☀ शत्रु के विमान चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता,

☀ निजी रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता,

☀ आवश्यकता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता,

☀ चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता,

☀ स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता,

☀ हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बड़ा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णतयाः नियन्त्रित कर सकने की सक्षमता,




विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ विमानोँ और अन्य हवाई जहाज़ोँ का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारद्वाज कोई आधुनिक ‘फिक्शन राइटर’ तो थे नहीं। परन्तु ऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित करता है, कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञानिक माडल का विचार कैसे किया।


उन्होंने अंतरिक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती-बाड़ी का ज्ञान भी हासिल नहीं कर पाये थे।


चतुर्थ ग्रंथ :


(४) कथा सरित सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों (इंजीनियरोँ) का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वाले विमानों को बना सकते थे। यह रथ विमान मन की गति से चलते थे।


पंचम ग्रंथ :


(५) अर्थशास्त्र - चाणक्य के अर्थशास्त्र में भी अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सेविकाओं (पायलट) का भी उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उड़ाती थी। चाणक्य ने उनके लिये विशिष्ट शब्द "आकाश युद्धिनाः" का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलट)


आकाश-रथ, का उल्लेख सम्राट अशोक के शिलालेखों में भी किया गया है जो उसके काल (२३७-२५६ ईसा पूर्व) में लगाये गये थे। ☀


भारद्वाज मुनि ने विमानिका शास्त्र मेँ लिखा हैं, -"विमान के रहस्यों को जानने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है।"


शास्त्रों में विमान चलाने के बत्तीस रहस्य बताए गए हैं। उनका भलीभाँति ज्ञान रखने वाला ही उसे चलाने का अधिकारी है। क्योँकि वहीँ सफल पायलट हो सकता है।


विमान बनाना, उसे जमीन से आकाश में ले जाना, खड़ा करना, आगे बढ़ाना टेढ़ी-मेढ़ी गति से चलाना या चक्कर लगाना और विमान के वेग को कम अथवा अधिक करना उसे जाने बिना यान चलाना असम्भव है।


अब हम कुछ विमान रहस्योँ की चर्चा करेँगे।


(१) कृतक रहस्य - बत्तीस रहस्यों में यह तीसरा रहस्य है, जिसके अनुसार हम विश्वकर्मा , छायापुरुष, मनु तथा मयदानव आदि के विमान शास्त्रोँ के आधार पर आवश्यक धातुओं द्वारा इच्छित विमान बना सकते , इसमें हम कह सकते हैं कि यह हार्डवेयर यानी कल-पुर्जोँ का वर्णन है।


(२) गूढ़ रहस्य - यह पाँचवा रहस्य है जिसमें विमान को छिपाने (स्टील्थ मोड) की विधि दी गयी है। इसके अनुसार वायु तत्व प्रकरण में कही गयी रीति के अनुसार वातस्तम्भ की जो आठवीं परिधि रेखा है उस मार्ग की यासा , वियासा तथा प्रयासा इत्यादि वायु शक्तियों के द्वारा सूर्य किरण हरने वाली जो अन्धकार शक्ति है, उसका आकर्षण करके विमान के साथ उसका सम्बन्ध बनाने पर विमान छिप जाता है।


(३) अपरोक्ष रहस्य - यह नौँवा रहस्य है। इसके अनुसार शक्ति तंत्र में कही गयी रोहिणी विद्युत के फैलाने से विमान के सामने आने वाली वस्तुओं को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है।


(४) संकोचा - यह दसवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आसमान में उड़ने समय आवश्यकता पड़ने पर विमान को छोटा करना।


(५) विस्तृता - यह ग्यारहवाँ रहस्य है। इसके अनुसार आवश्यकता पड़ने पर विमान को बड़ा या छोटा करना होता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वर्तमान काल में यह तकनीक १९७० के बाद विकसित हुई है।


(६) सर्पागमन रहस्य - यह बाइसवाँ रहस्य है जिसके अनुसार विमान को सर्प के समान टेढ़ी - मेढ़ी गति से उड़ाना संभव है। इसमें कहा गया है दण्ड, वक्र आदि सात प्रकार के वायु और सूर्य किरणों की शक्तियों का आकर्षण करके यान के मुख में जो तिरछें फेंकने वाला केन्द्र है, उसके मुख में उन्हें नियुक्त करके बाद में उसे खींचकर शक्ति पैदा करने वाले नाल में प्रवेश कराना चाहिए। इसके बाद बटन दबाने से विमान की गति साँप के समान टेढ़ी - मेढ़ी हो जाती है।


(७) परशब्द ग्राहक रहस्य - यह पच्चीसवाँ रहस्य है। इसमें कहा गया है कि शब्द ग्राहक यंत्र विमान पर लगाने से उसके द्वारा दूसरे विमान पर लोगों की बात-चीत सुनी जा सकती है।


(८) रूपाकर्षण रहस्य - इसके द्वारा दूसरे विमानों के अंदर का दृश्य देखा जा सकता है।


(९) दिक्प्रदर्शन रहस्य - दिशा सम्पत्ति नामक यंत्र द्वारा दूसरे विमान की दिशा का पता चलता है।


(९) स्तब्धक रहस्य - एक विशेष प्रकार का अपस्मार नामक गैस स्तम्भन यंत्र द्वारा दूसरे विमान पर छोड़ने से अंदर के सब लोग मूर्छित हो जाते हैं।


(१०) कर्षण रहस्य - यह बत्तीसवाँ रहस्य है, इसके अनुसार आपके विमान का नाश करने आने वाले शत्रु के विमान पर अपने विमान के मुख में रहने वाली वैश्र्‌वानर नाम की नली में ज्वालिनी को जलाकर सत्तासी लिंक (डिग्री जैसा कोई नाप है) प्रमाण हो, तब तक गर्म कर फिर दोनों चक्कल की कीलि (बटन) चलाकर शत्रु विमानों पर गोलाकार दिशा से उस शक्ति की फैलाने से शत्रु का विमान नष्ट हो जाता है।


"विमान-शास्त्री महर्षि शौनक" आकाश मार्ग का पाँच प्रकार का विभाजन करते हैं तथा "महर्षि धुण्डीनाथ" विभिन्न मार्गों की ऊँचाई पर विभिन्न आवर्त्त या तूफानोँ का उल्लेख करते हैं और उस ऊँचाई पर सैकड़ों यात्रा पथों का संकेत देते हैं। इसमें पृथ्वी से १०० किलोमीटर ऊपर तक विभिन्न ऊँचाईयों पर निर्धारित पथ तथा वहाँ कार्यरत शक्तियों का विस्तार से वर्णन करते हैं।


आकाश मार्ग तथा उनके आवर्तों का वर्णन निम्नानुसार है -


(१) १० किलोमीटर - रेखा पथ - शक्त्यावृत्त तूफान या चक्रवात आने पर


(२) ५० किलोमीटर - वातावृत्त - तेज हवा चलने पर


(३) ६० किलोमीटर - कक्ष पथ - किरणावृत्त सौर तूफान आने पर


(४) ८० किलोमीटर - शक्तिपथ - सत्यावृत्त बर्फ गिरने पर


एक महत्वपूर्ण बात विमान के पायलटोँ को विमान मेँ तथा पृथ्वी पर किस तरह भोजन करना चाहिए इसका भी वर्णन है


उस समय के विमान आज से कुछ भिन्न थे। आज के विमान की उतरने की जगह (लैँडिग) निश्चित है, पर उस समय विमान कहीं भी उतर सकते थे।


अतः युद्ध के दौरान जंगल में उतरना पड़ा तो जीवन निर्वाह कैसे करना चाहिए, इसीलिए १०० वनस्पतियों का वर्णन दिया गया है, जिनके सहारे दो-तीन माह जीवन चलाया जा सकता है। जब तक दूसरे विमान आपको खोज नहीँ लेते।


विमानिका शास्त्र में कहा गया है कि पायलट को विमान कभी खाली पेट नहीं उड़ाना चाहिए। १९९० में अमेरिकी वायुसेना ने १० वर्ष के निरीक्षण के बाद ऐसा ही निष्कर्ष निकाला है।




अब जरा विमानोँ मेँ लगे यंत्रोँ और उपकरणोँ के बारे मेँ तथ्य प्रस्तुत कियेँ जाएं -


"विमानिका-शास्त्र" में ३१ प्रकार के यंत्र तथा उनके विमान में निश्चित स्थान का वर्णन मिलता है। इन यंत्रों का कार्य क्या है इसका भी वर्णन किया गया है। कुछ यंत्रों की जानकारी निम्नानुसार है -


(१) विश्व क्रिया दर्पण - इस यंत्र के द्वारा विमान के आसपास चलने वाली गतिविधियों का दर्शन पायलट को विमान के अंदर होता था, इसे बनाने में अभ्रक तथा पारा आदि का प्रयोग होता था।


(२) परिवेष क्रिया यंत्र - ये यंत्र विमान की गति को नियंत्रित करता था।


(३) शब्दाकर्षण मंत्र - इस यंत्र के द्वारा २६ किमी. क्षेत्र की आवाज सुनी जा सकती थी तथा पक्षियों की आवाज आदि सुनने से विमान को "पक्षी-टकराने" जैसी दुर्घटना से बचाया जा सकता था।


(४) गर्भ-गृह यंत्र - इस यंत्र के द्वारा जमीन के अन्दर विस्फोटक खोजा जाता था।


(५) शक्त्याकर्षण यंत्र - इस यंत्र का कार्य था, विषैली किरणों को आकर्षित कर उन्हें ऊष्णता में परिवर्तित करना और ऊष्णता के वातावरण में छोड़ना।


(६) दिशा-दर्शी यंत्र - ये दिशा दिखाने वाला यंत्र था (कम्पास)।


(७) वक्र प्रसारण यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु विमान अचानक सामने आ गया, तो उसी समय पीछे मुड़ना संभव होता था।


(८) अपस्मार यंत्र - युद्ध के समय इस यंत्र से विषैली गैस छोड़ी जाती थी।


(९) तमोगर्भ यंत्र - इस यंत्र के द्वारा शत्रु युद्ध के समय विमान को छिपाना संभव था। तथा इसके निर्माण में तमोगर्भ लौह प्रमुख घटक रहता था।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ विमान को संचालित करने हेतु विभिन्न ऊर्जा स्रोतोँ का वर्णन किया गया है, महर्षि भारद्वाज इसके लिए तीन प्रकार के ऊर्जा स्रोतों उल्लेख करते हैं।


(१) विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियोँ का तेल - ये ईँधन की भाँति काम करता था।


(२) पारे की भाप - प्राचीन शास्त्रों में इसका शक्ति के रूप में उपयोग किए जाने का वर्णन है। इसके द्वारा अमेरिका में विमान उड़ाने का प्रयोग हुआ, पर वह जब ऊपर गया, तब उसमेँ विस्फोट हो गया। पर यह सिद्ध हो गया कि पारे की भाप का ऊर्जा की तरह प्रयोग हो सकता है, इस दिशा मेँ अभी और कार्य करने बाकी हैँ।


(३) सौर ऊर्जा - सूर्य की ऊर्जा द्वारा भी विमान संचालित होता था। सौर ऊर्जा ग्रहण कर विमान उड़ाना जैसे समुद्र में पाल खोलने पर नाव हवा के सहारे तैरता है। इसी प्रकार अंतरिक्ष में विमान वातावरण से सूर्य शक्ति ग्रहण कर चलता रहेगा। सेटेलाइट इसी प्रक्रिया द्वारा चलते हैँ।


"विमानिका-शास्त्र" मेँ महर्षि भारद्वाज विमान बनाने के लिए आवश्यक धातुओँ का वर्णन किया है, पर प्रश्न उठता है कि क्या "विमानिका-शास्त्र" ग्रंथ का कोई ऐसा भाग है जिसे प्रारंभिक तौर पर प्रयोग द्वारा सिद्ध किया जा सके?

यदि कोई ऐसा भाग है, तो क्या इस दिशा में कुछ प्रयोग हुए हैं?


क्या उनमें कुछ सफलता मिली है


सौभाग्य से इन प्रश्नों के उत्तर हाँ में दिए जा सकते हैं।


हैदराबाद के डॉ. श्रीराम प्रभु ने "विमानिक-शास्त्र" ग्रंथ के यंत्राधिकरण को देखा , तो उसमें वर्णित ३१ यंत्रों में कुछ यंत्रों की उन्होंने पहचान की तथा इन यंत्रों को बनाने वाली मिश्र धातुओं का निर्माण सम्भव है या नहीं , इस हेतु प्रयोंग करने का विचार उनके मन में आया । प्रयोग हेतु डॉ. प्रभु तथा उनके साथियों ने हैदराबाद स्थित बी. एम. बिरला साइंस सेन्टर के सहयोग से प्राचीन भारतीय साहित्य में वर्णित धातुएं, दर्पण आदि का निर्माण प्रयोगशाला में करने का प्रकल्प किया और उसके परिणाम आशाष्पद हैं।


अपने प्रयोंगों के आधार पर प्राचीन ग्रंथ में वर्णित वर्णन के आधार पर दुनिया में अनुपलब्ध कुछ धातुएं बनाने में उन्हेँ सफलता मिली है।


(१) प्रथम धातु है "तमोगर्भ-लौह" इसके बारे मेँ हमने अभी ऊपर बताया है, विमानिका-शास्त्र में वर्णन है कि यह विमान को अदृश्य (स्टील्थ मोड मेँ डालने) करने के काम आता है। इस पर प्रकाश छोड़ने से ये ७५ से ८० प्रतिशत प्रकाश को सोख लेता है। यह धातु रंग में काली तथा लेड से कठोर तथा कान्सन्ट्रेटेड सल्फ्‌यूरिक एसिड में भी नहीं गलती।


(२) दूसरी धातु जो उन्होँने बनाई है, उसका नाम है पंच लौह, यह रंग में स्वर्ण जैसी है तथा कठोर व भारी है । ताँबा आधारित इस मिश्र धातु की विशेषता यह है, कि इसमें सीसे का प्रमाण ७.९५ प्रतिशत है, जबकि अमेरिकन सोसायटी ऑफ मेटल्स ने कॉपर बेस्ड मिश्र धातु में सीसे का अधिकतम प्रमाण ०.३५ से ३ प्रतिशत संभव है यह माना है। इस प्रकार ७.९५ सीसे के मिश्रण वाली यह धातु विचित्र गुणोँ से परिपूर्ण है।


(३) तीसरी धातु का नाम है"ऑरर" यह ताँबा आधारित मिश्र धा ☀

इन अध्ययनोँ पर बनारस विश्वविद्यालय के एक रीडर ने कहा था


"This is the Study of Various Materials Described in Vimanika Shastra of Great Maharshi Bharadwaja"


इस प्रकल्प के तहत उन्होंने महर्षि भारद्वाज वर्णित दर्पण बनाने का प्रयत्न नेशनल मेटलर्जिकल लेबोरेटरी जमशेदपुर में किया तथा वहाँ के निदेशक पी.रामचन्द्र राव के साथ प्रयोग कर एक विशेष प्रकार का कांच बनाने में सफलता प्राप्त की, जिसका नाम "प्रकाश स्तंभनभिद् लौह" है। इसकी विशेंषता है कि यह दर्शनीय प्रकाश को सोखता है तथा इन्फ्रारेड प्रकाश को जाने देता है। इसका निर्माण कचर लौह – सिलिका, भूचक्र सुरमित्रादिक्षर - चूना
अयस्कान्त - इन खनिजोँ के द्वारा, अंशुबोधिनी में वर्णित विधि से किया गया है।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह की यह विशेषता है कि यह पूरी तरह से नॉन-हाईग्रोस्कोपिक है, नॉन-हाईग्रोस्कोपिक काँचों में पानी की भाप या वातावरण की नमी से उनका पॉलिश नहीँ हटता है, और वे सुरक्षित रहते हैं।


प्रकाश स्तंभनभिद् लौह के अध्ययन से यह सिद्ध हुआ है कि इन्फ्रारेड सिग्नल्स में यह आदर्श काम करता है तथा इसका प्रयोग वातावरण में मौजूद नमी के खतरे के बिना किया जा सकता है।


तो देखा आपने भारतीय हिँदू सभ्यता और सनातन संस्कृति का अनुपम वैज्ञानिक उदाहरण,


अगर आपने पूरा लेख ध्यान से पढ़ा होगा तो आपको पता चल गया होगा कि सनातन संस्कृति क्या है,


पूर्णतः वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण इसकी श्रेष्ठता को विस्तार देते हैँ,


अब रही बात उपरोक्त लेख को नकाराने वाले सेकुलरोँ की, तो इसमेँ उनकी कोई गलती नहीँ है, "क्योँकि विधर्मियोँ के शुक्राणुओँ वाली "हाइब्रिड-नस्ल" की संतानोँ की मानसिकता ऐसी ही होती है,


क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इन विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं?


अब जरा अन्य देशोँ पर नज़र डाले तो कुछ इस तरह की कहानियाँ निकल के आऐँगी -


"पीटर नामक फरिश्ता अपने हंस जैसे चार पंख फैलाता है और आग की बारिश करते हुए उड़ जाता है","फिर माइकल नाम का फरिश्ता बत्तख के पंख काटकर अपने पीछे लगाता है और उड़कर स्वर्ग मेँ पहुँच जाता है","या फिर सलमा परी जख्मी अबू को उठाती है और उड़न-कालीन मेँ बिठाकर घर भेज देती है","फिर किसी हातिमताई को कोई व्हेल मछली के आकार का बाज उठाकर ले जाता है", "अब सिँदबाद आता है और काले बादलोँ के ऊपर बैठ कर दुनिया का चक्कर लगाने निकल पड़ता है", "फिर कोई 'गुलफाम’ पंख लगे उड़ने वाले घोड़े पर सवार हो कर किसी ‘हसीन परी’ से शादी करने आ धमकता है","आखिर मेँ अलादीन एक चिराग रगड़ता है, और जिन्न महाशय एक जादुई कालीन हाथ मेँ लेकर प्रकट हो जाते हैँ, और फिर दोनोँ अपने बंदर के साथ कालीन मेँ बैठकर रेगिस्तान के बीच मेँ बने सुल्तान के महल मेँ "शैताने-वाहियात " को मारने निकल पड़ते हैँ।"


कहने का तात्पर्य ये है कि भारतीय सनातन संस्कृति के आगे किसी भी तरह की ''मिथ'' कहीँ नहीँ ठहर सकती 

Tuesday, March 25, 2014

Wonders of Ancient India #DECODING #HINDUISM

Wonders of Ancient India
Yogis and traditional households in India have for thousands of years (and are till today) been utilizing a simple, practical and effective method of drinking water in its most holistic way - drinking water from a copper cup or a large copper vessel where water is stored.

Yogis have revered copper as an ideal container to positively charge water before drinking it. For thousands of years, the yogis would carry water in their copper pot called 'kamandalam'. In traditional households in India, copper drinking cups are still used.

In Ayurveda, Copper is being used mostly in bhasma (ashes) form. Tamra bhasma (copper ash) is used in treating various disorders like fever, skin disorders and based on its antipyretic, anti parasitic and anti-leprotic properties.

Ayurvedic practitioners believe that drinking water purified by keeping it over night in a copper vessel will help prevent arteriosclerosis. Other benefits of copper according to ayurveda are:

 Drinking water from copper cups prevents ageing, called vaya-sthapak.

Copper can destroy undesirable virus and bacteria. When copper dissolves in water, water becomes ionic (electrolyte) as can be ascertained by its pH measurement. That is the reason the micro-organisms get killed in such water. This is called the Oligodynamic effect, as proven by research.

 Water is energized. Taste the water from a copper cup to experience the energized quality of water! It is said to be "blessed". When water is 'blessed', its crystalline structure is changed. When water is blessed, the water has super healing properties.

How to use it: Pour water in the copper cup and leave overnight or for a while. Then, drink in the morning. Or use your copper cup to drink water from at all times.  
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In 1894 the Indian astronomer, Sri Yukteswar, wrote that the cause of the moving equinox (precession) was the result of our sun’s orbit around another star, estimating the orbit period at 24,000 years.


This is, of course, is the same concept as Plato's Great Year, as well as the Maya Long Count calendar. The cross, as well as its cardinal points, are of great importance in astrology (astro-theology), the essence behind the ancient "Swastika" and misunderstood in most of today's religions. - Robert Sepehr
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Wonderful ancient engineering at Vapiyaka caves finds no parallel even to this date!!


Shining interior with sharp edges, of the ~2300 years old
Vapiyaka caves carved entirely out of granite at Barabar twin Hills, Zehanabad (Bihar) Amazing ancient engineering!

How they made it possible to cut granite rock and finishing surface to a astonishing degree and that too ~2300 years ago?




This is one among the exemplaries of ancient engineering. They cut the rock like butter using so called primitive tools and made its surface reflective like glass.

The name "Vapiyaka" is derived from sanskrit word "Vapi (meaning well)" which means cave of well.
From Hindu council.

RED FORT -TRUTH.#DECODING#HINDUISM

 WRONG HISTORY OF INDIA IS BEING TOLD.
Just as TAJO MAHAL is told to be bult by MUSLIMS.Infact it was TAJO,MAHAL-LINK



The Royal Emblem of King Anangoal, the true builder of the Red Fort, just above the entrance of the Khas Mahal in the Red Fort.
The close up view of the rntrance to the Khas Mahal.
The figure 7 shows the grand entrance to the Khas Mahal, while the figure 7 shows an enlarged view of the same gate, where one observes the resplendent Hindu midday sun (from whom Hindu rulers claim their descent) in the arch above flanked by sacred OM. This proves the hollowness of the claim of Shah Jahan’s authorship of the Red Fort. The figure 8 shows two life size elephants flanking the Delhi Gate of the Red Fort. It should be mentioned here that it is a sin for the Muslims to imitate Allah’s creation through painting, or by sculpture, or by any other means. This implies that, had Shah Jahan been the builder of the Red Fort, he would have never allowed to install the said life size elephants mentioned above. On the contrary, decorating homes, forts, palaces and temples with elephants is a pure Hindu tradition. To the Hindus, an elephant symbolizes might, power, glory and wealth. So, these life size elephants, flanking the Delhi Gate of the Red Fort, are an unmistakable sign of the fort’s Hindu origin. There is no doubt that, this is one of the conclusive proofs that the Red Fort was commissioned by Raja Anangoal (1060 AD), and not by the Mughal emperor Shah Jahan (1639-48), as is erroneously believed. The fort therefore predates Shah Jahan by 600 years. Many believe that, there were two similar big life-size stone elephants decorating the Naqqar Khana (Music House) gate and they were destroyed by the Muslim invaders. The chopped up pieces may still be found stored in the Khas Mahal basement.
Agra Red Fort is a Hindu Building, P.N. Oak, HISTORY Books, Vedic Books


Two life size elephants flanking the Delhi Gate of Delhi’s Red Fort.




CLOSE UP OF DOOR KNOB-BELOW-
 

PICTURE ABOVE- shows the entrance of the Moti Masjid inside the Red Fort. The archaeological tablet, raised outside, claims that the mosque was built by Aurangzeb, son and successor of Shah Jahan. But many believe that the claim is baseless due to the following reasons. Firstly, the entrance is of a temple design. Secondly, the arch between the domes there are stone carvings of banana bunches, which is used by the Hindus while worshipping their deities. Thirdly, the naming buildings after gems (Moti means pearl) is purely a Hindu custom. Fourthly, the truncated Hindu perambulatory passage may still be seen to exist on the building’s left flank. All these evidence suggest that, originally it was a Hindu temple and, later on, converted into a mosque by the Muslim invaders.
DISCRIPTION HERE-
 Indian history has been distorted to keep so called psudocesular issues active, which is basically let minority rule on majority and majority agree with that. What is the use of history that give a false teaching.It has been pointed out earlier that Mohandas Karamchand Gandhi, the prophet of nonviolence, was the originator of the politics of Muslim appeasement in India. As we know, he was the most trusted as well as the most loyal stooge of the British Empire, it was not possible for him to demand India’s independence.
It should be noted that his concept of Hindu-Muslim amity was entirely biased and prejudiced. Only Hindus were to make every sacrifice for the sake of the said Hindu-Muslim amity. To achieve that Hindu-Muslim amity, Gandhi suggested alteration or distortion of Indian history, partcularly the period of Muslim rule. and two major guidelines, he set for this purpose, were, (1) Muslim rulers were not foreign invaders as they lived in India and died in India and (2) the Muslim rule in India was not a colonial rule but a golden period of Indian history. And following these guidelines, a group of dirty people called the secular historians, set to distort Indian history in a big way.

But what was the real nature of that Muslim colonial rule and what was the nature of Dhimmitude the Hindus had suffered for centuries after centuries? It is best described through a dialogue between Sultan Alauddin Khilji and a qazi called Mughisuddin. The incident has been narrated by Alauddin’s court chronicler Ziauddin Barni in Tarikh-i-Firozshahi. Barni wrote,

“One day Qazi Mughisuddin visited the court of Sultan Alauddin Khilji and the Sultan asked the qazi, ‘How are Hindus designated in the (Islamic) law, as payers of tribute (Kharaj-gauzar) or giver of tribute (Kharaj-dih)?’ The kazi replied, ‘They are called payers of tribute and when the revenue officer demands silver from them, they should, without question and with all humility and respect, tender gold. If the officer throws dirt into their mouths, they must without reluctance open their mouths wide to receive it. By doing so they show their respect for the officer. The due subordination of the Zimmi (tribute payer) is exhibited in this humble payment and by this throwing of dirt in their mouths. The glorification of Islam is a duty. … Allah holds them in contempt, for He says, ‘Keep them in subjection’. To keep the Hindus in abasement is especially a religious duty because they are the most inveterate enemies of the Prophet and because the Prophet has commanded us to slay them, plunder them and make them captive, saying, ‘Convert them to Islam or kill them, enslave them and spoil their wealth and property. No doctor but the great doctor (Hanifa), to whose school we belong, has asserted to the imposition of the jizya (poll tax) on Hindus. Doctors of other schools allow no other alternative but ‘death or Islam’.” (H. M. Elliot & J. Dowson, HISTORY OF INDIA: As Told by It’s Own Historians, III,184).

In the First Part of the article, it has been narrated that, how the so called secular historians of India are wrongly projecting the barbaric Muslim ruler Shahjahan as the author of the famous Red Fort of Delhi, which was built by the Hindu Kings several centuries before the times of Shahjahan. In this Second Part, we shall discuss how these secular historians are narrating another cruel,barbaric and lecherous Muslim ruler Akbar as the author of the invincible fortress of Agra.
 The Fort at Agra:
Like the Red Fort in Delhi, the fortress at Agra also suffers similar misrepresentation. The invincible fort at Agra, as we see it today, was not built by any foreign Muslim invader and its authorship is falsely atributed to Akbar.. This marvellous exhibit of Hindu architecture, was also built by the Hindu kings well before the arrival of the barbaric Muslim invaders in India. Like the Red Fort in Delhi, the Muslim invaders forcefully occupied it and used it as their royal court and residence. During the time of Mahabharata, Agra belonged to the kingdom of Mathura ruled by the oppressive king Kansa, who used the prison at Agra to incarcerate his political rivals. In this regard, the Muslim chronicler Abdulla in his Tarikh-i-Daudi writes, “He (Sultan Sikandar Lodi) generally resided at Agra; it is said by some that Agra became a city in his time, before which it had been a mere village , but one of the old standing. The Hindus, indeed, Assert that Agra was a strong place in the days of Raja Kansa, ruled in Mathura, and who confined everyone who displeased him, in the fort at that place, so that in course of time it had become the established state prison”.

But in the same work, chronicler Abdulla says that Muhammad of Ghazni captured Agra and reduced it to a heap of ruins and writes, “In the year when the army of Sultan Mahmud of Ghazni invaded Hindustan, he so ruined Agra that it became one of the most insignificant villges of the land and after that it improved from the times of Sultan Sikandar, and at length, in Akbar’s time, became the seat of the government of Delhi, and one of the chief cities of Hindustan”.[1] It is important to note here that the above description admits that before the invasion of Mahmud of Ghazni, Agra was city and not a village.

Another Muslim chronicler Nizmuddin Ahmed in his Tabaquat-i-Akbari writes, “In the year 972 H (1565 AD), the command was given by Akbar for building a new fort of hewn stone at Agra, instead of the old citadel, which was of bricks and had become ruinous. The foundation was laid and in four years the fortress was completed”.[2] A Muslim poet named Diwan-i-Salman, who lived during the time of Muhammad Ghori, wrote some poems of historical value. In one of his poems, he said that during the time of Muhammad Ghori, the fortress of Agra was under the control of a Rajput king Jaipal. In the same poem he described the Agra fort and wrote, “The fort of Agra is built amongst the sands like a hill, and its battlements are like hillocks. No calamity had ever befallen its fortification, nor hd deceitful time dealt treacherously with it”.[3] So, the question naturally arises- Which fort Diwan-i-Salman had seen? The fort he saw was definitely made of stone, otherwise he would not have compared it with a hill. Above all, is it possible to finish the construction of a massive fort made of stone, as we see it today, within a period of 4 years?

It should also be mentioned here that the Muslim chroniclers, who claim Akbar’s authorship of the fort at Agra, differ widely regarding the time taken by Akbar to complete the job. According to Abul Fazl, one of the ministers at the Akbar’s court, Akbar took 8 years to build the fort. While according to Jahngir, the son of Akbar, he took 15 years to complete the construction.[4] It has been said earlier that according to Nizamuddin Ahmed, the job was done within a shortm period of 4 years.[12] It is important to note here that there are other evidence that suggest that the fort of Agra was there during the time of Babur. Babur set his foot at the fort of Agra for the first time on May 4, 1526, and before that his son Humayun had taken control of the fort. Thereafter, Babur left Agra on February 11, 1527, and proceeded to face Maharana Sangram Singh in the battle of Khanua, leaving the fort in the care of his son Humayun.[5] So, the rational conclusion is that, there was a massive fort, made of stone, at Agra under the control of a Rajput King Jaipal and Muhammad Ghori occupied it by defeating Jaipal in the year 1192. Thereafter, when the fort came under the control of the Mughals, Akbar might have undertaken some repair and renovation work of the then existing fort.

Above all, there is no dispute among our historians that, whether it is the Red Fort in Delhi or the invincible fortress at Agra, Hindu style, particularly the Gujarati and Rajasthani style, is very prominent in the construction of the interior palaces, courts, halls and so on. Especially, the pillars and the gateways of these halls and courts bear pure Hindu style of stone carving. It seems amusing when our historians, in their attempt to explain this overwhelming and pervasive Hindu influence, say that the Muslim rulers who, according to their belief, were very sympathetic to the Hindus, deliberately encouraged Hindu style in building their edifices to promote Hindu-Muslim amity.

So, a group of historins, having more rational views, believe that all the historical monuments of Delhi and Agra, the authorship of which is at present being wrongly atributed to the Muslim rulers, were, in fact, built by the Hindu kings well before the arrival of the foreign Muslim invders. They also believe that in their endeavour to give these monuments an Islamic face, the Muslim rulers, in the name of repair and renovation, removed almost all the Hindu symbols from these monuments and buried them somewhere within the peripfery of those monuments. So a thorough scientific and archaeological investigations is urgently called for revealing the truth and settling all such contrary views.
Red Fort as mentioned in Prithviraj Raso
According to Oak, Prithviraj Raso, a contemporary chronicle tells us that Prithviraj Chauhan, the king who ruled Ajmer and Delhi, lived in a palace on the bank of river Yamuna. Traditional accounts also tell us that Prithviraj’s palace was known as Lal-Kot, that is, a red-walled structure. The only building in Delhi which answers four-square to these specifications is what is today known as the Red Fort. And yet the Mogul emperor Shahjahan is being wrongly given the credit of having built the Red Fort in Delhi.



Old Delhi was not founded by Shahjahan
Taimurlang who invaded Delhi in 1398, that is nearly 250 years before Shahjahan, refers to Old Delhi whose inhabitants he massacred. And yet Old Delhi is mentioned in our histories as a city founded by Shahjahan. In fact Old Delhi is built around the axial road – The Chandni Chowk - which joins the Red Fort with the building which is now known as the Fatehpuri Mosque but which was the temple of the hereditary deity of Delhi’s Hindu rulers. So even 400 years before Shahjahan, Old Delhi, Red Fort and Chandnin Chowk did exist.



Raj Ghat or Badshah Ghat
The Yamuna bank to the rear of the fort is known as Raj-ghat. That is a Sanskrit word. It could not have stuck on unless several generations of Rajas had occupied the Red Fort prior to Shahjahan and his predecessors. No Rajas ever ruled from the Red Fort after Shahjahan, the fifth generation Mogul ruler. Had Shahjahan built the fort, the bank stretch of the Yamuna at the rear would have been known as the Badshah Ghat and not Rajghat.



Architectural evidence
The Delhi gate of the fort has a pair of stone elephants outside it. Islam strictly forbids the raising of any images while Rajput monarchs were known for their love of the elephant. On either side of the fort, archways are embossed with stone-flower emblems which appear on all mediaeval Hindu buildings. Running water channels, through which Yamuna water coursed its way throughout the fort, again suggest Rajput construction because Muslims with a desert tradition could never have thought of running-water channels.



Architectural evidence
The Sbravan and Bhado pavilions and the Kesar Kund in the Diwan-i-Khas are again all Hindu terms. The Diwan-i-Khas and the Diwan-i-Aam do not have a single dome or minaret which the Muslim architecture is believed to insist on. The marble balcony in which the ruler used to sit in the Diwan-i-Aam has a temple type ceiling with stalactite style ends nicking out obliquely. The Diwan i-Khas has a striking similarity with the royal apartment inside Ambar (old Jaipur) built by the Rajputs in pre-Mogul times.



Architectural evidence
Every one of the Mogul rulers had a harem of 5,000 women as mentioned in memoirs and chronicles. All of them, the ruler himself and his many children could by no stretch of imagination be accommodated in the two-three rooms that comprise the Diwan-i Khas. The Diwan-i_khas and the Diwan-i-Aam have a mandap style ornate Hindu workmanship. Besides, the Diwan-i-Khas bears a close resemblance to the interior palace in Ambar (Old Jaipur) built around 984 A.D.



Symbol of justice
A marble grill wall near the Diwan-i-Khas displays a balance motif symbolic of royal justice. The Mogul rulers who regarded 99 per cent of their subjects as mere vermin could never think of flaunting that symbol of justice in their palace. But the Rajput rulers advised by their Brahman councillors did certainly have the dispensation of justice as one of their primary functions constantly impressed on them through the scales motif.



Heaven on earth?
A Persian couplet inlaid on a wall of the Diwan-i-Khas proclaims the place as a veritable "Heaven on Earth'. Such a boast can only emanate from a captor. Had Shahjahan been the original builder of the fort he would never have described the building in such superlative terms. The original builder is often very modest about his construction. Moreover a builder is more conscious of the building's defects to ever think of calling it a veritable "Heaven on Earth'.



A psychological principle
Another important psychological principle also applies in this case. A person calls his building a shack or a cottage rather than a paradise. It is also worthwhile considering that no matter how beautiful a wife a man may have he would never shout about her beauty from the road square or housetops. Similarly a person who toils and spends money to build a building is not the one who boasts about it. On the other hand neighbours or strangers, who have an evil eye on a building or a woman, are the ones who praise the physical beauty of those attractions.



A psychological principle
We have on actual instance from mediaeval history. Padmini, the queen of Chitor fort is famed for her physical allure. There could have been hundreds of women as beautiful as her in India's Kshatriya households. But histories have been silent regarding their physical beauty precisely because such beauty was never bragged about at least in India in public. But Padmini's physical beauty came to be talked about only because Allauddin Khilji was so enamoured of her that he moved heaven and hell to capture her.



The couplet was inlaid by the captors
This should convince visitors to the Red Fort, and historians that the bragging Persian couplet in the Diwan-i Khas is yet another very strong proof that the couplet was inlaid by the captors of the fort who, dazzled by the ornate beauty of the monument that came to them as war booty, characterized it as a veritable paradise.



Non-Islamic shrines near Red Fort
Emerging from the Red Fort we see that the two nearest shrines, only a stone’s throw from the fort, are both non-Moguls. One is the red Jain Temple and the other the Gauri Shankar Temple. Had Shahjahan built the Red Fort he would never have allowed the two non-Islamic shrines to remain there. These two temples are there because the fort was constructed by the Rajputs several centuries before Shahjahan.



Chandni Chowk’s inhabitants
Chandni Chowk, the main thoroughfare stemming from the fort is almost exclusively inhabited by Hindus. Had the Moguls built the fort we should have seen Turks, Afghans, Persians, Arabs and Hindu converts settled in Cbandni Chowk. The whole of Old Delhi has a teeming and over-whelming Hindu population. In its complicated, winding alleys all their homes too are built in the traditional Hindu style. To maintain that a cruel despot like Shahjahan built houses for Hindus and fortified the whole city with a massive wall is absurd. As Taimuriang's autobiography testifies Old Delhi existed centuries before Shahjahan.
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Jesus was son of GOD as all in earth is part of GOD.#decoding #christianity


Christianity is a Semitic religion, which claims to have nearly 1.2 billion adherents all over the world. Christianity owes its name to Jesus Christ (peace be on him). The Holy Bible is the sacred scripture of the Christians:

a) The Bible is divided into two parts, the Old Testament and the New Testament. The Old Testament is the Holy Scripture of the Jews and contains... records of all the prophets of the Jews that came before Jesus (pbuh).

The New Testament contains records of the life of Jesus (pbuh).
b) The complete Bible, i.e. the Old Testament and the New Testament put together, contains 73 books. However, the Protestant Bible i.e. the King James Version, contains only 66 books as they consider 7 books of the Old Testament to be apocrypha, i.e. of doubtful authority.

Therefore the Old Testament of the Catholics, contains 46 books and that of the Protestants, 39 books. However the New Testament of both these sects contains 27 books.


1. Jesus Christ (pbuh) never claimed Divinity
One may ask, if both Muslims and Christians love and respect Jesus (pbuh), where exactly is the parting of ways? The major difference between Islam and Christianity is the Christians’ insistence on the supposed divinity of Christ (pbuh). A study of the Christian scriptures reveals that Jesus (pbuh) never claimed divinity. In fact there is not a single unequivocal statement in the entire Bible where Jesus (pbuh) himself says, "I am God" or where he says, "worship me". In fact the Bible contains statements attributed to Jesus (pbuh) in which he preached quite the contrary. The following statements in the Bible are attributed to Jesus Christ (pbuh):
(i) "My Father is greater than I."
[The Bible, John 14:28]

(ii) "My Father is greater than all."
[The Bible, John 10:29]

(iii) "…I cast out devils by the Spirit of God…."
[The Bible, Mathew 12:28]

(iv) "…I with the finger of God cast out devils…."
[The Bible, Luke 11:20]

(v) "I can of mine own self do nothing: as I hear, I judge: and my judgement is just; because I seek not my own will, but the will of the Father which hath sent me."
[The Bible, John 5:30]

2. The Mission of Jesus Christ (pbuh) – to Fulfill the Law
Jesus (pbuh) never claimed divinity for himself. He clearly announced the nature of his mission. Jesus (pbuh) was sent by God to confirm the previous Judaic law. This is clearly evident in the following statements attributed to Jesus (pbuh) in the Gospel of Mathew:

"Think not that I am come to destroy the law, or the Prophets: I am not come to destroy, but to fulfil. For verily I say unto you, Till heaven and earth pass, one jot or one tittle shall in no wise pass from the law, till all be fulfilled.

"Whosoever therefore shall break one of these least commandments, and shall teach men so, he shall be called the least in the kingdom of heaven; but whosoever shall do and teach them, the same shall be called great in the kingdom of heaven."

"For I say unto you, That except your righteousness shall exceed the righteousness of the scribes and Pharisees, ye shall in no case enter into the kingdom of heaven."
[The Bible, Mathew 5:17-20]
3. God Sent Jesus' (pbuh)

The Bible mentions the prophetic nature of Jesus (pbuh) mission in the following verses:

(i)"… and the word which ye hear is not mine, but the Father’s which sent me."
[The Bible, John 14:24]

(ii)"And this is life eternal, that they might know thee the only true God, and Jesus Christ, whom thou has sent."
[The Bible, John 17:3]

4. Jesus Refuted even the Remotest Suggestion of his Divinity

Consider the following incident mentioned in the Bible:

"And behold, one came and said unto him, ‘Good Master, what good thing shall I do, that I may have eternal life?’

And he said unto him, ‘Why callest thou me good? There is none good but one, that is, God: but if thou wilt enter into life, keep the commandments.’ "
[The Bible, Mathew 19:16-17]
Jesus (pbuh) did not say that to have the eternal life of paradise, man should believe in him as Almighty God or worship him as God, or believe that Jesus (pbuh) would die for his sins. On the contrary he said that the path to salvation was through keeping the commandments. It is indeed striking to note the difference between the words of Jesus Christ (pbuh) and the Christian dogma of salvation through the sacrifice of Jesus (pbuh).
5. Jesus (pbuh) of Nazareth – a Man Approved of God
The following statement from the Bible supports the Islamic belief that Jesus (pbuh) was a prophet of God.
"Ye men of Israel, hear these words; Jesus of Nazareth, a man approved of God among you by miracles and wonders and signs, which God did by him in the midst of you, as ye yourselves also know."
[The Bible, Acts 2:22]

6. The First Commandment is that God is One
The Bible does not support the Christian belief in trinity at all. One of the scribes once asked Jesus (pbuh) as to which was the first commandment of all, to which Jesus (pbuh) merely repeated what Moses (pbuh) had said earlier:
"Shama Israelu Adonai Ila Hayno Adonai Ikhad."

This is a Hebrew quotation, which means:

"Hear, O Israel; The Lord our God is one Lord."
[The Bible, Mark 12:29]
It is striking that the basic teachings of the Church such as Trinity and vicarious atonement find no mention in the Bible. In fact, various verses of the Bible point to Jesus’ (pbuh) actual mission, which was to fulfill the law revealed to Prophet Moses (pbuh). Indeed Jesus (pbuh) rejected any suggestions that attributed divinity to him, and explained his miracles as the power of the One True God.
Jesus (pbuh) thus reiterated the message of monotheism that was given by all earlier prophets of Almighty God.

NOTE: All quotations of the Bible are taken from the King James Version.
III) Concept of God in Old Testament:

1. God is One

The following verse from the book of Deuteronomy contains an exhortation from Moses (pbuh):

"Shama Israelu Adonai Ila Hayno Adna Ikhad".
It is a Hebrew quotation which means:
"Hear, O Israel: The Lord our God is one Lord"
[The Bible, Deuteronomy 6:4]

2. Unity of God in the Book of Isaiah

The following verses are from the Book of Isaiah:

(i) "I, even I, am the Lord; and beside me there is no saviour."
[The Bible, Isaiah 43:11]

(ii) "I am Lord, and there is none else, there is no God besides me."
[The Bible, Isaiah 45:5]

(iii) "I am God, and there is none else; I am God, and there is none like me."
[The Bible, Isaiah 46:9]

3. Old Testament condemns idol worship

(i) Old Testament condemns idol worship in the following verses:

"Thou shalt have no other gods before me."

"Thou shalt not make unto thee any graven image, or any likeness of anything that is in heaven above, or that is in the earth beneath, or that is in the water under the earth:"

"Thou shalt not bow down thyself to them, nor serve them: for I the Lord thy God am a jealous God."
[The Bible, Exodus 20:3-5]

(ii) A similar message is repeated in the book of Deuteronomy:

"Thou shalt have none other gods before me."

"Thou shalt not make thee any graven image, or any likeness of anything that is in heaven above, or that in the earth beneath, or that is in the water beneath the earth."

"Thou shalt not bow down thyself unto them, nor serve them; for I the Lord thy God am a jealous God."
[The Bible, Deuteronomy 5:7-9]

Tuesday, March 18, 2014

Thursday, March 13, 2014

Buddhist Cave Temples Are Jaw-Droppingly Gorgeous #DECODING #HINDUISM



 Buddhist temples located inside caves,
The isolation of these sites serves to intensify the spiritual connection experienced by visitors. While some places of worship use architectural height to draw attention up to the heavens, these cave temples highlight the value of spiritual treasures that lie within.
Datdawtaung Cave
in the cave leopard
Mandalay region, Myanmar

Khao Luang Cave Temple
temple cave thailand
Phetburi, Thailand

Pindaya Caves
pindaya cave
Pindaya, Myanmar

Yungang Grottoes
yungang
Shanxi, China

Wat Tham Erawan
temple cave thailand
Nong Bua Lamphu province, Thailand

Sadan Cave
cave temple burma
Kayin State, Myanmar

Ellora Caves
ellora caves
Maharashtra, India

Yathae Pyan Cave
myanmar cave
Kayin state, Myanmar
Wat Tham Bo Ya Temple
Nakhon Sawan, Thailand
Phowintaung Caves
Monywa, Myanmar
Phowintaung Caves
Monywa, Myanmar
Phowintaung Caves
Monywa, Myanmar
Kek Lok Cave
Guning Rapat, Malaysia


Batu Caves
Gombak, Malyasia
Batu Caves
Gombak, Malyasia
Batu Caves
Gombak, Malyasia
Batu Caves
Gombak, Malyasia
Badami Cave Temple
Karnataka, India
The fifth cave in the complex is used as a Buddhist temple.
Dusk falls over the temples and homes of Tsarang, once the region's most important town. In Mustang, where the centuries have not disrupted the traditional rhythm of life, the caves offer clues to a time when the remote Himalayan kingdom was a hub linking Tibet to the rest of the world.